कोविड महामारी और उसके चलते लागू हुए लॉकडाउन ने लगभग पूरे देश के ग़रीबों की कमर तोड़ दी. आदिवासी भारत में भी लॉकडाउन का गहरा असर हुआ.
महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले की मालशेज घाटी की आदिवासी बस्तियों के निवासियों ने भी अपनी आजीविका खो दी. हालात इतने ख़राब हैं कि ज़िंदा रहने के लिए आदिवासी परिवारों के सभी सदस्य अब काम पर जाने को मजबूर हैं. जी हां, बच्चे भी.
लॉकडाउन की वजह से स्कूल बंद हैं, और ऑनलाइन क्लास यहां अब तक नहीं पहुंची है, इसलिए इन बस्तियों के बच्चे काम पर जाते हैं.
पिछले कई महीनों से आय के नुकसान के चलते शिरावली और टोकवाडे गांव के पास पांच आदिवासी बस्तियों के लोग दिन में तीन वक़्त का खाना जुटाने को जूझ रहे हैं.
यहां के कई परिवार यहां से गुज़रने वाले यात्रियों को सब्जियां और खाने-पीने का सामान बेचते थे, लेकिन कोविड महामारी ने सभी पिकनिक स्पॉट बंद कर दिए.
इसके अलावा, इस इलाक़े में बिजली की आपूर्ति भी पूरी तरह से नहीं है, इसलिए यहां के बच्चों के लिए डिजिटल शिक्षा प्राप्त करना और भी मुश्किल है.
सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि शिरावली गांव के बच्चों ने मछली पकड़ना शुरू कर दिया है या दैनिक वेतन के लिए इलाक़े में काम पर जाते हैं. मछली पकड़ने के लिए बच्चे मच्छरदानी का इस्तेमाल करते हैं, और इसे बेचकर 30 से 40 रुपए कमाते हैं.
इलाक़े में कुछ समय पहले स्कूल खुला था, तो सभी परिवारों ने अपने बच्चों को भेजना शुरु किया था. लेकिन बच्चों का स्कूल से संपर्क फिर टूट गया है. सोशल वर्कर्स के लिए महामारी के बाद बच्चों को फिर स्कूल तक लाना एक बड़ी चुनौती होगी.
मालशेज के एक जिला परिषद अधिकारी ने एक अखबार को बताया कि परिषद के शिक्षक और कर्मचारी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ हर आदिवासी बस्ती का दौरा करेंगे, और बच्चों को स्कूल वापस लाने के लिए नई योजनाएं बनाएंगे.
उनका कहना है कि कोविड-19 ड्यूटी के चलते कर्मचारी कम रह गए हैं, और हर आदिवासी बस्ती तक पहुंचना मुश्किल है.