उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से आए समाचार ने एक बार फिर भुखमरी के दंश को ज़िंदा कर दिया है. सरकार के सभी दावों के बावजूद यहाँ की गुड्डी और उसके बेटे और बेटियाँ भूख के कागार पर पहुँच गए थे. यह बात काफ़ी हैरान करने वाली है कि इस घटना के बारे में ज़िला प्रशासन को कोई अंदाज़ा तक नहीं था.
जबकि यह घटना उनके इतने क़रीब की है. महामारी के इस दौर में सरकार ने यह घोषणा की है कि दिवाली तक देश के कम से कम 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क दाल और चावल या दूसरा अनाज उपलब्ध कराया जाएगा. लेकिन फिर भी अगर देश के किसी हिस्से से एक भी भुखमरी की ख़बर आती है, तो यह परेशान करने वाली बात होती है.
मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक जनहित याचिका सुनवाई के लिए पेश हुई. इस जनहित याचिका में यह बताया गया है कि साल 2013 से 2016 के बीच देश भर में लगभग तीन करोड़ राशन कार्ड रद्द कर दिए गए. इन राशन कार्डों को इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि ये राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं थे.
यह जनहित याचिका उसी आदिवासी महिला कोईली देवी की तरफ़ से पेश की गई जिनकी बेटी ने भूख से दम तोड़ दिया था. कोईली देवी ने बताया था की उनकी बेटी भात-भात कहते इस दुनिया से चली गई. लेकिन माँ अपनी बेटी के लिए भात नहीं जुटा सकी थी.
इस ख़बर ने उस समय काफ़ी सुर्खियाँ बटोरी थीं. भूख के मसले पर संसद से सड़क और सर्वोच्च न्यायालय तक बहस हुई थी. इस साल मार्च महीने में जो जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई है उसमें बताया गया है कि जिन लोगों के राशन कार्ड निरस्त हुए हैं हमें से बड़ी तादाद आदिवासी और दलितों की है.
जिन इलाक़ों में संचार या यातायात के साधन कम हैं वहाँ पर ज़्यादा लोगों के राशन कार्ड रद्द हो गए हैं.
कोविड-19 महामारी ने भुखमरी में इज़ाफ़ा किया है. इस वर्ष के प्रारंभ में एक ग़ैर सरकारी संगठन ऑक्सफैम की रिपोर्ट -ध इनक्वॉलिटी वायरस – में कहा है कि महामारी के पहले दौर में ग़रीबों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा है. इसकी वजह से वो भुखमरी भी झेलनी पड़ रही है.
इसकी वजह से भी भारत में कुछ मौतें हुई हैं. इसी प्रकार राइट टू फ़ूड फ़ाउंडेशन की दिसंबर 2020 में प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत के कई परिवारों को कई कई रातें भूखा ही सोना पड़ा. इन परिवारों को खाने के लिए कुछ भी नहीं था.
जिन लोगों को कई रात भूखे सोना पड़ा उनकी संख्या क़रीब 27 प्रतिशत बताई गई है. इस सर्वे में यह भी बताया गया कि क़रीब 74 प्रतिशत ग़रीब आबादी की पौष्टिकता कोविड-19 के बाद लगे लॉकडाउन में प्रभावित हुई है.
पिछले कुछ सालों में विकास के दावों के बीच में भारत के लिए कई चिंताजनक सवाल पैदा हुए हैं. मसलन इस दौरान ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत लगातार पिछड़ता गया है. 2014 में ग्लोबर हंटर इंडेक्स में भारत 76 देशों के बीच 55वें नंबर पर था. लेकिन साल 2019 में जब 117 देशों के आँकड़े शामिल किए गए तो भारत की रैंकिंग 102 पर पहुँच गई थी. साल 2020 में यह रैंकिंग थोड़ी सी सुधरी और 107 देशों के बीच भारत का स्थान 94वें नंबर पर पहुँच गया.
इसी तरह से मानव विकास सूचकांक के मामले में भी भारत का प्रदर्शन ख़राब दर्ज हुआ है. साल 2014 में भारत का स्थान 188 देशों में 130 वें नंबर पर था. लेकिन 2020 में यानि पिछले 6 सालों में भारत इस मामले में एक पायदान और फिसल गया. अब भारत का स्थान 131 वें नंबर पर पहुँच गया है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में हर नागरिक को जीने का अधिकार दिया गया है. इसके साथ ही हमारे संविधान का अनुच्छेद 47 में राज्य द्वारा अपने नागरिकों के पोषण, आहार और जीवन स्तर को बेहतर करने की बात भी की गई है.
हाल ही में विश्व खाद्य कार्यक्रम के प्रमुख ने चेतावनी दी है कि खाद्य कार्यक्रम को साल 2021 में कम मात्रा में धन उपलब्ध होगा. इस स्थिति में यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार अपने नागरिकों के पोषण के बारे में चिंता करे और नीति बनाए.
इस सिलसिले में एक दीर्घकालिक योजना बनाए जाने की ज़रूरत है. लेकिन सरकार ने ना तो भात-भात कहते दम तोड़ती बच्ची वाली घटना से और ना ही लॉक डाउन में लाखों लोगों की भूखे प्यासे शहरों से पलायन के हादसे से कुछ सीखा है.
अगर सरकार आदिवासी और दलित आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए दीर्घकालिक कदम नहीं उठाती है तो यह बेरूखी भारत के विकास को बुरी तरह से प्रभावित करेगी.
(लेखक भोपाल निवासरत अधिवक्ता हैं. लंबे समय से सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहे हैं. आजकल आदिवासी समाज, सभ्यता और संस्कृति पर काम कर रहे हैं.)