प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में देश के अंदर समान नागरिक संहिता (UCC) की वकालत करके बड़ी बहस छेड़ दी है. ऐसा कहा जा रहा है कि पीएम मोदी ने यूसीसी के लिए पिच तैयार कर दी है और 20 जुलाई से शुरू होने जा रहे संसद के मानसून सत्र में इसे पटल पर लाया जा सकता है.
देश में अक्सर समान नागरिक संहिता को मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के दृष्टि से देखा जाता है. लेकिन इस मुद्दे ने पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है.
वैसे तो पूर्वोत्तर में जनजातीयों के परंपरागत तरीके से चली आ रही कई प्रथागत कानूनों की सुरक्षा की गारंटी भारत के संविधान के तहत दी गई है. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में करीब 220 से अधिक विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं और इसे दुनिया के सांस्कृतिक रूप से सबसे विविध क्षेत्रों में से एक माना जाता है.
पूर्वोत्तर के प्रमुख आदिवासी समूह चिंतित हैं कि एक समान नागरिक संहिता लागू हुआ तो वो विशेष रूप से बहुसंख्यक-केंद्रित दृष्टिकोण के साथ उनके लंबे समय से चले आ रहे रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर अतिक्रमण करेगी, जो संविधान द्वारा संरक्षित हैं.
यूसीसी से ख़ासकर मिज़ोरम, नागालैंड और मेघालय में विरासत (उत्तराधिकार), विवाह और धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित कानूनों पर असर पड़ने की आशंका है.
2011 की जनगणना के मुताबिक, मिज़ोरम में आदिवासी आबादी 94.4 प्रतिशत है, नागालैंड में 86.5 प्रतिशत और मेघालय में आदिवासी आबादी 86.1 प्रतिशत है.
लॉ कमीशन की 2018 की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि असम, बिहार, झारखंड और ओडिशा में कुछ जनजातियां उत्तराधिकार के प्राचीन प्रथागत कानूनों का पालन करती हैं. इन जनजातियों में असम के खासिया और जैंतिया हिल्स के कूर्ग ईसाई, खासिया ज्येंतेग हैं. साथ ही बिहार, झारखंड और ओडिशा के मुंडा और ओरांव शामिल हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ जनजातियां और समूह जो मातृसत्तात्मक व्यवस्था का पालन करते हैं, जैसे कि उत्तर पूर्वी भारत की गारो पहाड़ी जनजाति खासी और केरल के नायर ने चिंता व्यक्त की है कि यूसीसी उन पर पितृसत्तात्मक एकरूपता लागू कर सकता है.
लॉ कमीशन के 2018 के श्वेत पत्र में यह भी स्वीकार किया गया है कि मेघालय में कुछ जनजातियों में मातृसत्ता है. जहां संपत्ति सबसे छोटी बेटी को विरासत में मिलती है, दूसरी तरफ गारो के बीच शादी के बाद दामाद अपनी पत्नी के साथ सास-ससुर के साथ रहने के लिए आता है.
वहीं कुछ नागा जनजातियों में महिलाओं को संपत्ति विरासत में लेने या जनजाति के बाहर शादी करने पर प्रतिबंध है. ऐसे में यह संभव है कि समान नागरिक संहिता बनाते समय इन सांस्कृतिक मतभेदों को ध्यान में नहीं रखा जाएगा.
मिज़ोरम
भारत के संविधान का अनुच्छेद 371जी मिज़ोरम को विशेष संरक्षण देता है. इसमें कहा गया है कि संसद का कोई भी कानून जो सामाजिक या धार्मिक प्रथाओं, मिज़ो रीति-रिवाजों और मिज़ो जातीय समूहों के भूमि स्वामित्व और हस्तांरण को प्रभावित करता है, मिज़ोरम पर तब तक लागू नहीं हो सकता जब तक राज्य विधानसभा द्वारा वह पारित न हो जाए.
मिज़ोरम की सत्तारूढ़ सरकार ने इसी साल 14 फरवरी को समान नागरिक संहिता के विरोध में राज्य विधानसभा में एक प्रस्तावित पारित कर दिया है. भारत में यूसीसी को लागू करने की दिशा में किसी भी वर्तमान या भविष्य के कदम का विरोध करने के लिए प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपनाया गया था.
सत्तारूढ़ पार्टी मिज़ो नेशनल फ्रंट के विधायक थंगमावई ने कहा कि मिज़ो समुदाय के भीतर कई उप-जनजातियां है. यहां समान नागरिक संहिता लागू करना अव्यावहारिक है.
उन्होंने बताया, “राज्य में बैपटिस्टों के बीच भी अलग-अलग बैपटिस्ट संप्रदाय हैं, जिसमें ईसाई धर्म के भीतर एक समान बैपटिस्ट पहचान होना असंभव हो गया है. मिज़ोरम में एक समान नागरिक संहिता लागू करना मुश्किल हो सकता है और संभावित रूप से अस्थिरता पैदा हो सकती है. इसलिए फरवरी में पिछले विधानसभा सत्र के दौरान यूसीसी के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया है.”
मेघालय
मेघालय एक ऐसा राज्य है जिसमें तीन प्रमुख जनजातियां शामिल है- गारो, खासी और जयंतिया. इन जनजातियों के विवाह, तलाक और गोद लेने और विरासत जैसे कई अन्य मामलों से संबंधित अपने अलग रीति-रिवाज और प्रथागत तरीके हैं.
मेघालय में ज़्यादातर लोगों का मानना है कि यूसीसी स्थानीय रीति-रिवाजों, कानूनों और यहां तक कि संविधान की छठी अनुसूची को भी प्रभावित करेगा.’
यहां सिविल सोसाइटी संगठन राज्य की राजनीति और समाज में काफी दखल रखते हैं. ये संगठन मानते हैं कि संविधान में जनजातीयों के लिए कई विशेष प्रावधान किये गये हैं. मसलन वहां की एक जानी मानी कार्यकर्ता की एग्नेस खारशिंग ने शिलॉन्ग में पत्रकारों से कहा, ‘संविधान भारत के लोगों के लिए है, न कि कुछ राजनीतिक शक्तियों को खुश करने के लिए. अगर उन्हें यूसीसी लागू करना है तो पहले देश के हर नागरिक को समझाना होगा. लोगों यह देखना है कि उनके प्रतिनिधि क्या लागू कर रहे हैं.’
मेघालय के लोगों को इस बात की चिंता है कि अगर संसद ने विवाह, तलाक, गोद लेने आदि के संबंध में एक समान कानून लागू किया तो इसका सीधा असर उन रीति-रिवाजों और परंपराओं पर पड़ेगा जिनका पालन पहाड़ी जनजाति समुदाय सदियों से करते आ रहे हैं.
शायद यही वजह है कि मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के संगमा, जो एनडीए सरकार का हिस्सा हैं, ने 30 जून को कहा कि समान नागरित संहिता भारत की विविधता के सार के खिलाफ है.
एनपीपी प्रमुख संगमा ने कहा कि पूर्वोत्तर को एक अनूठी संस्कृति और समाज मिला है और वह ऐसे ही रहना चाहेंगे.
वहीं अपने राज्य का उदाहरण देते हुए संगमा बताते है, “हमारा मातृसत्तात्मक समाज है और यही हमारी ताकत है. यही हमारी संस्कृति रही है. अब इसे बदला नहीं जा सकता है.”
यूसीसी को लेकर छिड़ी बहस के बाद मिज़ोरम के गृह मंत्री लालचामलियाना ने शुक्रवार को पत्रकारों से कहा कि यूसीसी को भले ही संसद द्वारा क़ानून बना दिया जाए. लेकिन मिज़ोरम में तब तक लागू नहीं किया जाएगा जब तक कि राज्य विधायिका एक प्रस्ताव द्वारा ऐसा कोई निर्णय नहीं ले लेती.
इसके अलावा मेघालय की आदिवासी परिषदों के सभी तीन मुख्य कार्यकारी सदस्यों मे भी समान नागिरक संहिता के कार्यान्वयन का विरोध करने का फैसला किया है.
नागालैंड
मिज़ोरम और मेघालय की तरह नागालैंड को लोगों ने भी समान नागरिक संहिता का कड़ा विरोध किया है. नागालैंड राज्य की स्थापना 1963 में अनुच्छेद 371ए (बाद में अनुच्छेद 371जे तक विस्तारित) को 13वें संशोधन के माध्यम से भारत के संविधान में शामिल किए जाने के बाद की गई थी.
यह अनुच्छेद राज्य में सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं, प्रथागत कानूनों और भूमि और संसाधनों के स्वामित्व की सुरक्षा सुनिश्चित करता है. ये विशेष प्रावधान नागा लोगों की भूमि, संसाधनों, सामाजिक रीति-रिवाजों, धार्मिक प्रथाओं और प्रथागत कानूनों के अधिकारों और हितों की रक्षा करते हैं.
इन मामलों से संबंधित कोई भी संसदीय कानून किसी प्रस्ताव के माध्यम से विधानसभा की मंजूरी के बिना नागालैंड में लागू नहीं किया जा सकता है.ये प्रावधान नागालैंड के लोगों को भारतीय संघ का हिस्सा रहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान और जीवन शैली बनाए रखने की अनुमति देते हैं.
राइजिंग पीपल पार्टी के महासचिव अमाई चिंगखु ने एक बयान में कहा कि ऐसे में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन इन विशेष प्रावधानों का खंडन करेगा और नागालैंड में लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा.
करीब 3 हज़ार से अधिक सदस्यों वाले संगठन नागालैंड ट्रांसपेरेंसी, पब्लिक राइट्स एडवोकेसी एंड डायरेक्ट-एक्शन ऑर्गेनाइजेशन ने (NTPRADO) ने 30 जून को एक बयान जारी करके कहा कि राज्य विधान सभा बाहरी दबाव के आगे झुकती है और समान नागरिक संहिता के पक्ष में विधेयक को मंजूरी देती है तो इसके खिलाफ गंभीर कार्रवाई की जाएगी.
NTPRADAO ने कहा है कि यूसीसी को लागू करना राज्य को दिए गए विशेष संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन होगा और यह नगा लोगों के अद्वितीय रीति-रिवाजों और परंपराओं में भी बाधा डालेगा.
संगठन ने एक बयान में कहा कि अगर यूसीसी को मंजूरी मिल गई तो उसके सदस्य नगालैंड के विधायकों के आधिकारिक आवासों में आग लगाने की हद तक जाने से भी नहीं हिचकिचाएंगे.
वहीं नगालैंड में बीजेपी की सहयोगी सत्तारूढ़ नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) ने पिछले शनिवार को घोषणा की कि “यूसीसी को लागू करने से भारत के अल्पसंख्यक समुदायों और आदिवासी लोगों की स्वतंत्रता और अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा”.
जबकि नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो की पीर्टी एनडीपीपी ने गुरुवार को दो पन्ने को बयान जारी कर कहा कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 371 ए द्वारा नगाओं की प्रथागत प्रथाओं और परंपराओं की सुरक्षा सुनिश्चित की गई है.
UCC पर बहस कैसे छिड़ी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 जून को मध्य प्रदेश में ‘मेरा बूथ सबसे मजबूत’ अभियान के तहत भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यूसीसी यानि समान नागरिक संहिता की पुरजोर वकालत करते हुए सवाल किया था कि ‘दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? अगर लोगों के लिए दो अलग-अलग नियम हों तो क्या एक परिवार चल पाएगा? तो फिर देश कैसे चलेगा? हमारा संविधान भी सभी लोगों को समान अधिकारों की गारंटी देता है.’
पीएम मोदी के इस बायन की आलोचना करते हुए विपक्षी दलों ने कहा था कि प्रधानमंत्री कई मोर्चों पर उनकी सरकार की विफलता से ध्यान भटकाने के लिए विभाजनकारी राजनीति का सहारा ले रहे हैं. मुस्लिम संगठनों ने भी प्रधानमंत्री की यूसीसी पर टिप्पणी को गैर-जरूरी कहा था.
दरअसल, समान नागरिक संहिता बीजेपी के प्रमुख मुद्दों में से एक रहा है. साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यह भाजपा के प्रमुख चुनावी वादों में शुमार था. उत्तराखंड के अलावा मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक और गुजरात की भाजपा सरकारों ने इसे लागू करने की बात कही थी.
उत्तराखंड और गुजरात जैसे भाजपा शासित कुछ राज्यों ने इसे लागू करने की दिशा में कदम उठाया है. नवंबर-दिसंबर 2022 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी समान नागरिक संहिता को लागू करना भाजपा के प्रमुख मुद्दों में शामिल था.
लेकिन जिन राज्यों में आदिवासी जनसंख्या रहती है, वहां समान नागरिक संहिता को लागू करना कितना उचित है, यह एक ज़रूरी सवाल है. यह सवाल संसद की स्थाई समिति ने भी पूछा है.