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मध्य प्रदेश: यहां आदिवासियों को वन अधिकारों की मांग और पेड़ों की कटाई का विरोध करने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है

2019 के बाद से इस क्षेत्र में मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं. अगस्त और सितंबर 2020 के बीच आदिवासी समुदाय से संबंधित क्षेत्र के कई लोगों को कथित झूठे आरोपों के तहत उठाया गया, वन अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया और कथित तौर पर प्रताड़ित किया गया.

अंतराम अवासे मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के सिवलगांव के तीसरी पीढ़ी के निवासी हैं. बरेला आदिवासी समुदाय से संबंधित उनके दादा-दादी, भिलाला और भील समुदायों के कई अन्य लोगों की तरह 1970 के दशक में वन क्षेत्र में चले गए थे. तब से उन्होंने घने और समृद्ध सागौन वन क्षेत्र को अपना घर बना लिया है.

बावजूद इसके वन अधिकार इन समुदायों से दूर हैं जो 50 वर्षों से अधिक समय से इस क्षेत्र में रह रहे हैं. अवासे कहते हैं और इससे भी बुरी बात यह है कि वन और स्थानीय प्रशासन ने ग्रामीणों पर कार्रवाई की है, अतिक्रमण और सरकारी आदेशों की जानबूझकर अवज्ञा का हवाला देते हुए कई मामले दर्ज किए हैं.

भले ही बुरहानपुर जिले का एक बड़ा हिस्सा अनुसूचित क्षेत्र के रूप में चिह्नित है लेकिन वहां रहने वाले आदिवासी समुदाय लंबे समय से वन अधिकारों से वंचित हैं. सिवलगांव के ग्रामीण जिले के 15 अन्य गांवों के निवासियों के साथ मांग कर रहे हैं कि उन्हें वनवासियों के रूप में मान्यता दी जाए और वन अधिकार अधिनियम के तहत उनके अधिकारों की रक्षा की जाए. 2018 में जायज हक की मांग वाली ये लड़ाई और तेज़ हो गई.

ग्रामीणों पर लगा हिंसा का आरोप

जागृत आदिवासी दलित संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं में से एक नितिन उन घटनाओं को याद करते हैं जब ग्रामीणों ने अपनी बेदखली का विरोध किया था तो उन पर पैलेट गन से गोलियां चलाई गईं थीं. गोलीबारी में कम से कम चार लोग घायल हो गए.

नितिन कहते हैं, “ज्यादातर निवासी यहां कई दशकों से रह रहे हैं. यहां तक कि एफआरए कानून के अस्तित्व में आने से भी पहले. वे यहां जमीन जोतते रहे हैं और वन उपज से अपना गुजारा करते रहे हैं. जैसे ही उन्होंने अपने अधिकारों का दावा करना शुरू किया, वन अधिकारियों ने बल प्रयोग किया.”

गोलीबारी की इस घटना के कारण शिकायतें और प्रति-शिकायतें हुईं. जहां एक तरफ वन विभाग ने आदिवासी ग्रामीणों के खिलाफ उनके काम में बाधा डालने का आरोप लगाते हुए मामला दर्ज किया. वहीं दूसरी तरफ ग्रामीणों ने उनके खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग की शिकायत की. इस शिकायत के कारण कम से कम दो वन अधिकारियों का तबादला हो गया.

अवासे कहते हैं, “जंगल और राज्य पुलिस ने मेरे और विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे रहने वाले अन्य ग्रामीणों के खिलाफ कितने मामले दर्ज किए हैं, इसकी गिनती मुझे भूल गई है.”

इन मामलों में उन पर कई चीजों का आरोप लगाया गया है – ‘हत्या के प्रयास’ से लेकर ‘गैरकानूनी सभा’ तक.

2019 के बाद से इस क्षेत्र में मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं. अगस्त और सितंबर 2020 के बीच आदिवासी समुदाय से संबंधित क्षेत्र के कई लोगों को कथित झूठे आरोपों के तहत उठाया गया, वन अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया और कथित तौर पर प्रताड़ित किया गया.

ऐसी ही एक घटना में दो आदिवासी युवकों को अदालत में पेश करने से पहले खिड़की की रेलिंग से हथकड़ी लगा दी गई और कथित तौर पर पूरी रात पीटा गया.

जिन लोगों पर कई मामलों में केस दर्ज किया गया है उनमें से ज्यादातर किसान या खेत मजदूर के रूप में काम करते हैं. अदालत के सामने उपस्थित होने का मतलब है एक दिन की कमाई से चूक जाना.

एक कार्यकर्ता, जिस पर कई मामले दर्ज हैं उन्होंने कहा, “वैसे तो हम हमारे प्रति राज्य के अन्यायपूर्ण रवैये के खिलाफ संगठित होने और आंदोलन करने में काफी समय बित रहा है और अब हमारे पास हर दूसरे हफ्ते अदालत के सामने पेश होने की एक अलग चुनौती है.”

पेड़ों की कटाई

वन भूमि के वैध दावेदार के रूप में ग्रामीणों की मांग सरकार पर पेड़ों की कटाई के आरोप के साथ जटिल हो जाती है. पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई देखी गई है.

इसी साल अप्रैल में बुरहानपुर के वनपरिक्षेत्र नेपानगर के जंगलों की अवैध कटाई और वन पर कब्जे को रुकवाने के लिए 1 हजार से अधिक आदिवासियों ने कलेक्टर कार्यालय में धरना प्रदर्शन किया था.

अवासे का कहना है कि वह संगठन के अन्य सदस्यों के साथ वन क्षेत्र के बड़े पैमाने पर विनाश के बारे में वन और जिला प्रशासन दोनों को सूचित करने के लिए चले गए थे.

अवासे का आरोप है, “ये सभी सागौन के पेड़ हैं. ये करोड़ों रुपए में बिकते हैं. क्योंकि आस-पास के गांवों के कुछ लोग वन क्षेत्र को नष्ट करने के आपराधिक कृत्य में शामिल थे इसलिए हमने अधिकारियों को लिखा. लेकिन इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.”

कार्यकर्ताओं का कहना है कि पेड़ों की कटाई में कथित तौर पर शामिल लोग भी आदिवासी समुदाय से हैं. नितिन बताते हैं कि यह उस क्षेत्र में देखी जाने वाली एक समानांतर घटना है जहां आदिवासी समुदायों के कई लोग जमीन पर हिस्सेदारी का दावा करने के लिए बेताब प्रयास करते हैं.

उन्होंने आगे कहा, “अगर राज्य क्षेत्र में एफआरए कानून को लागू करने के बारे में गंभीर होता तो वन क्षेत्र के विनाश को नियंत्रित किया जा सकता था.”

अक्टूबर 2022 से जेएडीएस का आरोप है कि इस क्षेत्र में 15 हज़ार एकड़ से अधिक वन क्षेत्र खो गया है. जेएडीएस का आरोप है कि यह वन और अन्य राज्य निकायों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं होता.

एक विरोध और उसके परिणाम

अप्रैल में आदिवासी समुदायों से संबंधित एक हजार से अधिक महिलाओं और पुरुषों ने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा व्यापक और अवैध पेड़ों की कटाई को दिए गए मौन समर्थन के खिलाफ तीन दिवसीय विरोध प्रदर्शन किया और इस बात पर जोर दिया कि इतने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई राज्य सरकार के अप्रत्यक्ष समर्थन के बिना मुमकिन नहीं है.

हालांकि अधिकारी ग्रामीणों की मांगों पर बिल्कुल भी सहमत नहीं हुए. वहीं जेएडीएस ने वन और राज्य प्रशासन पर कई पात्र एफआरए दावेदारों को अवैध रूप से बेदखल करने का आरोप लगाया. ग्रामीणों का आरोप है कि जिले में 10 हज़ार से अधिक एफआरए दावे लंबित हैं, जिनमें से कुछ अवैध रूप से बेदखल किए गए लोगों के भी हैं.

राज्य की सबसे हालिया कार्रवाइयों में जेएडीएस की माधुरी कृष्णास्वामी का निष्कासन था. जिले में समुदाय को संगठित करने और आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल रहे कृष्णास्वामी पर 21 मामले दर्ज किए गए हैं. जिनमें अधिकतर उन पर गैरकानूनी जमावड़े का आरोप है. और इसके कारण उन्हें जिले से निष्कासित कर दिया गया है.

क्षेत्र के अधिकार कार्यकर्ता इसे आंदोलन को तोड़ने की प्रशासन की रणनीति का हिस्सा बताते हैं.

अवासे ने कहा, “वे एक-एक करके नेताओं के पीछे जा रहे हैं. कई आदिवासी महिलाएं, जो सबसे आगे हैं. वो भी वन अधिकारियों के निशाने पर हैं. अंग्रेजों की ही तरह मध्य प्रदेश सरकार भी अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले समुदाय का अपराधीकरण करने पर तुली हुई है.”

वन अधिकार अधिनियम, 2006

आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय  से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था और एक लम्बी अवधि के बाद आख़िरकार केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया.

वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति के कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था, जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) शामिल हो.

बावजूद इसके अभी तक कई राज्यों में वन अधिकार अधिनियम, 2006 को ठीक ढंग से लागू नहीं किया जाता है. आदिवासी इलाकों में रहने वाले या वहां काम करने वाले लोग जानते हैं कि यह कानून होने के बावजूद हकीकत में अक्सर इसका पालन ठीक से नहीं होता है.

आदिवासियों ने कई दशकों तक अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, नतीजा वन अधिकार कानून, 2006 आया. लेकिन आज भी आदिवासी अपने वनाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ ही रहे हैं.

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