छत्तीसगढ़ के बस्तर को आदिवासी बहुल क्षेत्र से जाना जाता है. यहां सदियों से कई सारे जनजातीय समुदाय बसे हुए हैं.
इन जनजातीय समुदायों की अपनी अलग सांस्कृतिक विरासत है. आदिवासियों की अपनी धार्मिक आस्था और पूजा का रिवाज अलग है.
मसलन बस्तर में देवगुड़ी-मातागुड़ी को आदिवासी लोग आस्थाओं का केंद्र मानते हैं. आदिवासियों के लिए देव स्थान बहुत महत्वपूर्ण होता है.
दरअसल, आदिवासी समुदाय प्रकृतिक पूजक हैं. ये पेड़ पौधे में देवी-देवताओं का वास मानते हैं. इसलिए पेड़-पौधे के नीचे देवगुड़ी का निर्माण करते हैं.
ऐसे में छत्तीसगढ़ की सरकार इस परम्परा को बचाने के लिए काम कर रही है.
आदिवासी न केवल जंगल में रह रहे हैं, बल्कि उनकी पूजा भी करते हैं. अपनी आस्था के साथ-साथ पर्यावरण को बचाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
यही कारण है की इनकी देवस्थानों में अधिक पेड़- पौधे रहते है. इन देवस्थलों पर बड़े पैमाने पर पौधरोपण किया जा रहा है.
इसके साथ ही इन देवस्थलों का सामुदायिक वनाधिकार मान्यता पत्र देकर देवगुड़ियों, मातागुड़ियों सहित गोटुल, प्राचीन मृतक स्मारकों की ज़मीन को संरक्षित किया जा रहा है.
छत्तीसगढ़ सरकार ने देवी-देवताओं के स्थानों वाली भूमी को राजस्व अभिलेख में दर्ज कर दिया है. इस तरह से छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासियों की सांस्कृतिक धरोहरों और उनकी जमीनों पर अवैध कब्जा से बचाने का काम कर रही है.
देवगुड़ी क्या है ?
आदिवासी लोग देवगुड़ी को पूजा का स्थान मानते हैं. जहां स्थापित देवी देवताओं का पूजा करते हैं. बस्तर के आदिवासी समुदाय देवगुड़िया को ही ईष्टदेव मानते हैं.
पुरखती कागजात में दर्ज ज़मीन का नाम
कानून के तहत देवी-देवताओं के नाम से ग्राम सभा को 2453 सामुदायिक वनाधिकार पत्र दिए जा रहे हैं. बस्तर के आदिवासी समुदायों के अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जा जाती है. राज्य सरकार ने प्रचलित मान्यताओं को लिखकर “पुरखती कागजात” नामक (भाग एक) पुस्तिका तैयार की है. “पुरखती कागजात” (भाग-दो ) में संरक्षित ज़मीनो का ज़िक्र किया गया है.
कितना हुआ काम, कितना है बाकी
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्दशों के बाद बस्तर में कुल 6283 देवगुड़ी और मातागुड़ी में से 3244 के मरम्मत के लिए मंजूरी दे दी है.
जिसमें से अब तक 2320 और मातागुड़ी का मरम्मत का कार्य पूरा किया जा चुका है.