HomeAdivasi Dailyमध्य प्रदेश में सत्ता की चाबी रखने वाले आदिवासी ग़रीब क्यों हैं?

मध्य प्रदेश में सत्ता की चाबी रखने वाले आदिवासी ग़रीब क्यों हैं?

झाबुआ के आदिवासी गांवों के घरों में आपको बुर्जुग लोग ही देखने को मिलेंगे क्योंकि युवक और युवतियां मजदूरी करने के लिए दूसरे शहरों में पलायन कर गए हैं. इन गांवों के ज्यादातर युवा मजदूरी करने के लिए गुजरात चले गए हैं.

17 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ क्षेत्र की आदिवासी आबादी एक बार फिर फोकस में है. इस क्षेत्र की 66 सीटों में से 22 सीटें आदिवासी बहुल हैं और ये समुदाय पारंपरिक रूप से राज्य की राजनीति में किंगमेकर की भूमिका निभाता रहा है.

मालवा-निमाड़ का झाबुआ जिला राज्य के सबसे अधिक आदिवासी आबादी वाले जिलों में से एक है. मध्य प्रदेश चुनावों में एक आम कहावत है – ‘अगर आप झाबुआ हारते हैं, तो आप मध्य प्रदेश हार जाते हैं.’

इस जिले में 3 निर्वाचन क्षेत्र हैं, जो सभी चुनाव परिणामों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. राज्य विधानसभा चुनावों में बेहद अहम होने के बावजूद झाबुआ जिले की 80 फीसदी से अधिक आदिवासी आबादी के लिए गरीबी से छुटकारा पाना एक दूर का सपना बना हुआ है. क्योंकि यहां के लगभग आधे स्थानीय लोग गरीबी रेखा से नीचे आते हैं. जिले की 49.62 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है.

पलायन एक बड़ी समस्या

राज्य के सबसे गरीब में से एक इस जिले में किसी भी बड़े उद्योग की कमी के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है. भील समुदाय के प्रभुत्व वाला यह जिला भारी प्रवासी संकट से परेशान है.

इतना ही नहीं सिंचाई और जल स्रोतों के अभाव के कारण कृषि भी पर्याप्त रोजगार पैदा करने में विफल रही है. यहां पर इंफ्रास्ट्रक्चर का भी खस्ताहाल है.

साल 2012 में झाबुआ जिले ग्लोबल इन्वेस्टर समिट हुआ था और इस दौरान बड़े-बड़े प्रोजेक्ट के लिए MoU साइन हुआ था. इसके बाद यहां के आदिवासियों को उम्मीद थी कि इन्वेस्टर्स के आने से जिले में बड़े उद्योग स्थापित होंगे और लोगों को रोजगार के पर्याप्त अवसर मिलेंगे.

लेकिन यहां के निवासियों का कहना है कि यह सब सिर्फ कागजों पर हुआ जमीनी स्तर पर कुछ काम नहीं हुआ. न यहां पर कोई बड़ा उद्योग शुरू हुआ और न ही बड़ी इंडस्ट्री आई जिससे यहां के लोगों को रोजगार के साधन मिल सके.

यहां के लोगों का कहना है कि अगर यहां बड़े उद्योग होते तो जिले में पलायन की समस्या इतनी बड़ी नहीं होती. रोजगार के अलावा जिले के आदिवासी गांवों में पीने के पानी की समस्या, अनाज और राशन समय पर न मिलने की समस्या भी है. लोगों के पास काम नहीं है ऐसे में वो सरकार की तरफ से मिलने वाले राशन पर निर्भर हैं लेकिन इन्हें वो भी कई-कई महीनों तक नहीं मिलता है.

झाबुआ के आदिवासी गांवों के घरों में आपको बुर्जुग लोग ही देखने को मिलेंगे क्योंकि युवक और युवतियां मजदूरी करने के लिए दूसरे शहरों में पलायन कर गए हैं. इन गांवों के ज्यादातर युवा मजदूरी करने के लिए गुजरात चले गए हैं.

गुजरात में मजदूरी करने वाले युवाओं का कहना है कि अगर झाबुआ में काम मिल भी जाता है तो मेहनताना बेहद कम मिलता है इसलिए हम गुजरात चले जाते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि खेती-किसानी के लिए सिंचाई के साधन उपलब्ध न होने के कारण युवा मजदूरी करने के लिए दूसरे शहरों में जाने को मजबूर हैं.

कम मतदान की आशंका

17 नवंबर को विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है लेकिन अभी भी यहां पलायन का सिलसिला जारी है. गुजरात या अन्य राज्यों में जा रहे कुछ मजदूरों का कहना है कि कम उम्मीद है कि वो मतदान के लिए वापस आएंगे.

चुनाव आयोग के मुताबिक भी आदिवासी बहुल झाबुआ और अलीराजपुर जिलों में कम मतदान की आशंका है. और इसकी वजह है पलायन. इसी के चलते जिला प्रशासन की तरफ से गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक आदि राज्यों में रोजगार की तलाश में पलायन कर गए नागरिकों को बुलावा भेजा जा रहा है. बाकायदा कॉल सेंटर बनाकर उन्हें मतदान के लिए प्रोत्साहित और आमंत्रित करने का अभियान शुरू किया है.

झाबुआ जिले में करीब 1 लाख और अलीराजपुर जिले में 81 हजार 92 पलायन कर चुके मतदाताओं की सूची प्रशासन ने ग्राम पंचायतों के माध्यम से तैयार की है. अब दोनों जिलों में कॉल सेंटर बनाकर दर्जनों कर्मचारियों की तैनाती की गई है.

यह सभी कॉल सेंटर सुबह 10 से लेकर शाम 6 बजे तक अंचल के इन प्रवासी मजदूरों को मतदान के लिए अपने गांव आने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ आमंत्रित भी करेंगे.

जिला पंचायत झाबुआ की सीईओ रेखा राठौड़ ने बताया कि झाबुआ जिले में 60 हजार स्थाई और 40 हजार स्थाई श्रमिक हैं. जो अभी पलायन पर हैं. हम स्वीप गतिविधियों के तहत इन्हें श्रम विभाग की मदद से मतदान के लिए आमंत्रित कर रहे हैं.

भले ही पश्चिम मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ और अलीराजपुर से पलायन कर गए मतदाताओं को वापस बुलाने की कोशिश जारी है. लेकिन कॉल सेंटर बनाने के बावजूद इन दोनों‌ जिलों से दर्जनों बसें प्रतिदिन टूरिस्ट परमिट पर आदिवासी मजदूरों को गुजरात ले जा रही हैं.

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