HomeAdivasi Dailyज़ोरमथांगा निर्विवाद रूप से मिज़ोरम के चुनाव में फेवरेट क्यों हैं

ज़ोरमथांगा निर्विवाद रूप से मिज़ोरम के चुनाव में फेवरेट क्यों हैं

पिछले 2018 चुनाव में एमएनएफ ने कुल 40 में से 28 सीटें हासिल कीं. कांग्रेस सिर्फ पांच सीटें अपने नाम कर सकी. वहीं भाजपा और जेडपीएम जैसी अन्य पार्टियों को एक-एक सीट मिली, जबकि पांच स्वतंत्र विधायक हैं.

मिज़ोरम (Mizoram) राज्य के बाहर के ज्यादातर राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में ज़ोरमथांगा (Zoramthanga ) सत्ता में वापस आएंगे. विशेषज्ञों का यह मानने के एक से ज़्यादा कारण हैं.

मिज़ोरम के मुख्यमंत्री ज़ोरमथांगा के नाम की चर्चा हाल ही में देश के मुख्यधारा के मीडिया में काफी हुई है. उन्होंने हाल के वर्षों में अपनी बुद्धिमत्ता, स्पष्ट टिप्पणियों और दिल्ली के प्रति “अवज्ञा” के कारण अक्सर सुर्खियां बटोरी हैं.

ख़ासकर के हाल के वर्षों में उन्होंने केंद्र के आदेशों या निर्देशों की एक से अधिक बार अवहेलना की है. भले ही उनकी पार्टी, मिज़ो नेशनल फ्रंट (MNF), सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सहयोगी है. बावजूद इसके ज़ोरमथांगा ने साहसपूर्वक अवज्ञा की है और कई मौकों पर बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ अपनी बात रखी है.

इसके अलावा ज़ोरमथांगा ने 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद अपने देश से भाग रहे हजारों म्यांमार नागरिकों को आश्रय और राहत दी. जबकि दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने उत्तर-पूर्व के राज्यों को “म्यांमार शरणार्थियों का स्वागत न करने और उन्हें विनम्रतापूर्वक वापस भेजने” का आदेश जारी किया था.

लेकिन ज़ोरमथांगा सरकार ने म्यांमार के शरणार्थियों का बायोमेट्रिक डेटा नहीं लेने का फैसला किया. उन्होंने यह कहते हुए इस आदेश का नहीं माना कि यह शरणार्थियों के खिलाफ भेदभाव होगा, जो मिज़ो के जातीय भाई कुकी-चिन-ज़ो समूह हैं.

इसके साथ ही पड़ोसी राज्य मणिपुर संकट पर भी ज़ोरमथांगा मुखर रहे. उन्होंने इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर जमकर हमला बोला था. उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार ने अब तक साफ नहीं किया है कि पूरे मुद्दे में वह किस तरफ है. केंद्र को राजनीतिक समाधान निकालना चाहिए. अस्थाई पेन किलर से काम नहीं चलेगा.

जोरमथांगा ने दावा किया कि अब तक मणिपुर में जो स्थिति बिगड़ी है उसके लिए राज्य की सरकार ही जिम्मेदार है.

मणिपुर हिंसा पर बोलने के लिए उन्हें सोशल मीडिया पर ट्रोल किया गया, मीम्स बनाए गए, उनका पुतला जलाया गया. यहां तक की सीएसओ (CSOs) और लोगों द्वारा मिजोरम के सीएम को मणिपुर के (आंतरिक) मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए कहा गया था.

इस साल मई में कुकी-ज़ो और मैतेई समुदायों के बीच बड़े पैमाने पर जारी जातीय हिंसा के कारण पड़ोसी राज्य से बड़ी संख्या में विस्थापित लोगों को सीएम ज़ोरमथांगा ने मिज़ोरम में शरण दी.

मिजोरम सक्रिय रूप से दान प्रदान कर रहा है और कुकी-ज़ो समुदायों को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाला एकमात्र लिंक है. हालांकि, मणिपुर में पांच महीने बाद भी स्थिति सामान्य होने का कोई संकेत नहीं है.

ज़ोरमथांगा एक सीधे-सादे व्यक्ति हैं और उन्हें अपने मन की बात कहने में कोई झिझक नहीं होती है और अक्सर अपनी बात ऊंची आवाज़ में रखते हैं.

ज़ोरमथांगा को अस्पताल में अपनी बारी का इंतज़ार करने या आम जनता के साथ रैली में चलने में कोई दिक्कत नहीं है. एक ज़मीन से जुड़ा लेकिन विद्रोही चरित्र और एक पूर्व विद्रोही के रूप में व्यक्तित्व – वह आज भी इसे अपने साथ रखते हैं.

पूर्वोत्तर या भारत के अन्य हिस्सों के किसी भी अन्य राज्य के विपरीत मिजोरम को न्यूनतम वीवीआईपी सुरक्षा कवर प्राप्त है.

मुख्यमंत्री का ऑफिस बिल्कुल भी डराने वाला नहीं है. सिर्फ बेसिक प्रोटोकॉल और सुरक्षा जांच है. जो कि बहुत मुश्किल है वो भी पूर्वोत्तर राज्यों में जो “सुरक्षा कवर” या कानून और व्यवस्था की स्थिति के लिए जाना जाता है जहां एक ब्यूरोक्रेट के पास भी एक गार्ड होता है. लेकिन आइजोल में आपको आम नागरिक सीएम से मिलने का इंतजार करते मिल जाएंगे.

चुनाव आते हैं और चले जाते हैं. एक राजनीतिक दल सत्ता में आता है और चला जाता है और ऐसा ही एक मुख्यमंत्री भी करता है. हर पांच साल में राजनेताओं और राजनीतिक दलों को अपनी योग्यता साबित करनी होती है और इसे वापस पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.

मिजोरम में अब तक जितने भी मुख्यमंत्री हुए हैं वे सभी एक से अधिक कार्यकाल तक सत्ता में रहे थे. सत्ता दो या तीन प्रमुख हस्तियों के बीच हस्तांतरित की गई है जो कम से कम लगातार दो कार्यकाल तक शासन करते हैं.

यहां तक कि ज़ोरमथांगा खुद भी 1998 और 2003 में सत्ता में आए थे. अगर अगामी चुनाव में जीत हासिल करते हैं तो यह उनका चौथा कार्यकाल होगा. जिससे वह ललथनहवला के बाद दूसरे स्थान पर होंगे, जो पांच बार सीएम रहे हैं.

एमएनएफ ने मिजोरम को राज्य का दर्जा दिलाया. 1986 में नए राज्य के गठन के साथ इसने सरकार बनाई. लेकिन यह कार्यकाल शॉर्ट-टाइम था. शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि एमएनएफ, जो एक विद्रोही आंदोलन है, उनके पास उस समय सरकार चलाने के लिए पर्याप्त अनुभव नहीं था.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC), जो उस समय सत्ता में थी. उसने मिजोरम को राज्य का दर्जा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इसलिए नए राज्य पर इसका दबदबा और प्रभाव रहा. इस तरह उन्होंने बढ़त हासिल कर ली और दो साल के भीतर तुरंत एमएनएफ से सरकार अपने हाथ में ले ली.

हालांकि, एमएनएफ चौथी विधान सभा में ज़ोरमथांगा के साथ लगातार दो बार वापसी करने में कामयाब रही. 2008 में छठी विधान सभा में ललथनहवला के नेतृत्व में कांग्रेस फिर से सत्ता में वापस आई.

एक दशक बाद देश भर में भाजपा के उदय में इनकंबेंसी फैक्टर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के साथ, इसने मिजोरम में कांग्रेस के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया.

अब तक भाजपा मिजोरम में ज्यादा बढ़त नहीं बना पाई है. जबकि अन्य सभी पूर्वोत्तर राज्यों पर पार्टी ने जीत हासिल करना शुरू कर दिया है.

देश में भाजपा का उदय एमएनएफ के लिए प्रतिकूल था. मिजोरम में बीजेपी की विचारधारा रास नहीं आई. भाजपा, जिसे आम जनता बड़े पैमाने पर ईसाई विरोधी मानती है, उसने एमएनएफ के लिए अवसर का लाभ उठाने का मार्ग प्रशस्त किया है. सत्ता विरोधी लहर के साथ एमएनएफ ने अपना खोया हुआ प्रभाव फिर से हासिल कर लिया.

मिजोरम राज्य विधानसभा के रुझान से पता चलता है कि सत्तारूढ़ दल के पास कुल सीटों में से आधे से अधिक सीटें हैं. विपक्षी दल न्यूनतम एक अंक पर आ गए. लगातार सभी विधानसभाओं में राज्य सरकार कमोबेश विपक्ष विहीन है.

पिछले 2018 चुनाव में एमएनएफ ने कुल 40 में से 28 सीटें हासिल कीं. कांग्रेस सिर्फ पांच सीटें अपने नाम कर सकी. वहीं भाजपा और जेडपीएम जैसी अन्य पार्टियों को एक-एक सीट मिली, जबकि पांच स्वतंत्र विधायक हैं.

2018 चुनाव में ज़ोरमथांगा ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी,जेडपीएम समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार के. सपडांगा को 2,504 मतों के अंतर से हराकर आइजोल पूर्वी-1 सीट पर जीत दर्ज की थी.

5वीं मिजोरम राज्य विधानसभा में कांग्रेस के 34 विधायक थे, जबकि एमएनएफ के केवल 5 सदस्य थे.

इसे देखते हुए एमएनएफ, अगर वे अपनी 28 सीटें बरकरार रखने में सफल रहे तो निश्चित रूप से सत्ता में वापस आ रहे हैं. इसके अलावा, यह देखते हुए कि मिजोरम ने कभी भी पार्टियों का गठबंधन या गठबंधन वाली राज्य सरकार नहीं देखी है, इससे सत्तारूढ़ एमएनएफ को बढ़त मिल सकती है.

79 साल के और देश के सबसे उम्रदराज सीएम ज़ोरमथांगा को या तो आसानी से जीत मिल सकती है या बहुत कड़ी टक्कर मिल सकती है. भले ही भाजपा के खिलाफ राष्ट्रवाद या अपने आदर्शों के लिए खड़े होने के मामले में उनकी पॉपुलैरिटी रेटिंग हाई है. लेकिन ज़ोरमथांगा और उनकी पार्टी की आलोचना का अपना हिस्सा है और ये गंभीर हैं.

भाई-भतीजावाद ज़ोरमथांगा के लिए आरोपों और असफलताओं में से एक रहा है. वह कथित तौर पर अपने रिश्तेदारों और करीबी सहयोगियों का पक्ष लेने वालों में से हैं. उन पर भ्रष्टाचार के आरोप और सत्ता के दुरुपयोग का भी आरोप लगा.

इसके अलावा विपक्ष, विशेष रूप से ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट (ZPM) वित्तीय संकट और राज्य ऋण को अपने प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में ले रहा है. अगस्त में न्यू इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया कि debt-GDP में मिजोरम राज्यों में शीर्ष पर है, जो वित्त वर्ष 2023 के अनुसार 53.1 प्रतिशत है.

कथित तौर पर ZPM एक विपक्ष के रूप में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. भले ही भाजपा को आम जनता ने बड़े पैमाने पर खारिज कर दिया है लेकिन उसके पास एक मौजूदा विधायक है और अब आगामी राज्य चुनावों के लिए एमएनएफ के दो विधायक भी शामिल हो गए हैं. वहीं मिजोरम में कांग्रेस को भी खारिज करना गलत हो सकता है.

उन पर लगे इन दागों के कारण ज़ोरमथांगा और उनकी पार्टी को सत्ता हासिल करने की लड़ाई में बड़ी बाधाएं आएंगी. राज्य की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल होने के कारण मतदाता मामलों में बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं.

इसके अलावा सत्तारूढ़ दल के लिए एक चिंताजनक कारक विपक्षी दलों द्वारा गठबंधन के लिए एकजुट होने की संभावना है. अगर ऐसा हुआ तो यह ज़ोरमथांगा और एमएनएफ के लिए घातक होगा.

मिज़ोरम की 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए 7 नवंबर को एक ही चरण में चुनाव होगा और मतगणना तीन दिसंबर को होगी.

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