केरल में जंगल में मौजूद बस्तियों में गैर-आदिवासी किसानों के लिए वन विभाग द्वारा कार्यान्वित एक स्वैच्छिक पुनर्वास योजना ‘नवकिरणम’ ने बस्तियों में आदिवासी परिवारों के जीवन पर संकट पर संकट ला दिया है.
हालांकि यह योजना कई बसे हुए किसानों को लाभ प्रदान करती है. लेकिन इसने आदिवासी परिवारों को मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि उन्हें योजना में शामिल नहीं किया गया है.
क्या है नवकिरणम
सरकार की रीबिल्ड केरल पहल (Rebuild Kerala Initiative) के तहत कार्यान्वित की जा रही यह योजना, वन बाड़ों के भीतर घिरी बस्तियों में गैर-आदिवासी किसानों के स्वैच्छिक पुनर्वास के लिए है.
नवकिरणम के इस पुनर्वास योजना में एक परिवार को जिसके पास दो हेक्टेयर तक की जमीन होगी उसे 15 लाख रुपय मिलेंगे.
इसके अलावा 18 वर्ष से अधिक वर्ष के हर अविवाहित युवा को 15 लाख रुपये दिए जाएंगे. जबकि परिवार के हर विकलांग सदस्य को अतिरिक्त 15 लाख रुपये मिलेंगे, चाहे उसकी उम्र जो भी हो.
योजना में समस्याएं
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह योजना कुछ लोगों के भले के लिए हैं और लोगों पर थोपी नहीं जा रही है. लेकिन इस योजना से इन आदिवासी इलाकों का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है.
इन आदिवासी इलाकों में अलग अलग समुदाय एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं. मसलन आदिवासी अक्सर ग़ैर आदिवासी किसानों के खेत में काम करते हैं.
इसके अलावा जंगल से जमा किये गए उत्पाद भी आदिवासी ग़ैर आदिवासी किसान परिवारों को बेचते हैं. लेकिन आदिवासी इलाकों से ग़ैर आदिवासी परिवारों के पलायन से आदिवासियों पर भी पलायन का दबाव बढ़ रहा है.
कुंदूर-कप्पड़ जो केरल-तमिलनाडु सीमा पर सुल्तान बाथरी-ऊटी राज्य राजमार्ग से लगभग दो किमी दूर एक बस्ती है वहां से कम से कम 44 परिवार पलायन कर रहे हैं.
यहां पर रहने वाले करीब 40 पनिया आदिवासी परिवार इन किसान परिवारों पर निर्भर थे. उन्हें अब नहीं पता है कि आगे क्या करना है क्योंकि वह सब पुनर्वास योजना का हिस्सा नहीं है.
यह परियोजना राज्य के 34 वन प्रभागों में से 26 में लागू की गई है, जिसमें जिले के तीन वन प्रभाग भी शामिल हैं.
वायनाड प्रकृति संरक्षण समिति (Wayanad Prakruthi Samrakshana Samithi) के अध्यक्ष एन बदुशा (N. Badusha) ने कहा है कि क्योंकि अधिकांश आदिवासी परिवार अपनी आजीविका के लिए बसे हुए परिवारों पर निर्भर हैं इसलिए पुनर्वास परियोजना ने उन्हें बेरोजगार बना दिया है.
कला नाम के एक आदिवासी युवा ने कहा कि पहले उनकी बस्ती के पास धान के खेतों और कॉफी के बागानों में रोजगार के पर्याप्त अवसर थे. लेकिन योजना शुरू होने के बाद हमें काम की तलाश में घने जंगल के रास्ते से गांव के बाहर लंबी दूरी तय करनी पड़ती है.
उन्होंने बताय कि ज़िले की अन्य बस्तियों में भी आदिवासियों की स्थिति अलग नहीं है. यह योजना ज़िले के तीन वन मंडलों की 12 बस्तियों में लागू की जा रही है.
हालांकि वन विभाग के सूत्रों ने कहा कि आदिवासियों को भी जल्दी ही पर्यावरण और वन मंत्रालय की वन्यजीव आवास योजना (Integrated Development of Wildlife Habitat Scheme – IDWHS) के तहत स्थानांतरित किया जाएगा.
उन्होंने यह भी बताया है कि यह परियोजना 2011 में वायनाड वन्यजीव अभयारण्य में 110 बस्तियों को स्थानांतरित करने के लिए शुरू की गई थी. पहले चरण में 110 बस्तियों में से 14 को स्थानांतरित करने की योजना बनाई गई थी. लेकिन 12 साल बाद भी यह पूरा नहीं हो सका है.
आदिवासी अपने जीवन यापन के लिए कई बार गैर-आदिवासियों पर र्निभर होते हैं. इसके पीछे का कारण आदिवासियों को जमीन पर अपना अधिकार न मिला पाना है. जिससे आदिवासियों को दूसरों की जमीनों पर खेती-किसानी करके अपना जीवन यापन करना पड़ता है.