HomeAdivasi DailyAssembly Elections 2023: आदिवासी वोट किस ओर जाएगा?

Assembly Elections 2023: आदिवासी वोट किस ओर जाएगा?

देशभर के आदिवासियों को डर है कि अगर यूसीसी लागू हुआ तो उनके राज्यों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी और उनके रीति-रिवाज और संस्कृति ख़तरे में पड़ जाएगी. पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत राज्यों को औपनिवेशिक काल से कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त है. उस समय, उन्हें "बहिष्कृत क्षेत्रों" के रूप में नामित किया गया था.

2019 के आम चुनावों और उसके बाद हुए क्षेत्रीय चुनावों में भाजपा आदिवासी-आरक्षित सीटों पर मजबूत प्रदर्शन करने और आदिवासी मतदाताओं को प्रभावित करने में कामयाब रही.

अब पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, मिज़ोरम और छत्तीसगढ़ में मतदान जारी है, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या 2019 का रुझान जारी रहेगा या आदिवासी समुदाय नवगठित भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (INDIA) की ओर रुख करेगी.

जब से विपक्षी गठबंधन बना है तब से भाजपा नेताओं और मंत्रियों ने बार-बार कहा है कि अब यह इंडिया-कांग्रेस के नेतृत्व वाले 26 क्षेत्रीय दलों के गठबंधन और भारत के बीच की लड़ाई है, जिसका प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) कर रहा है, जिसमें भाजपा और 38 अन्य पार्टियाँ शामिल हैं.

इन पांच राज्यों के चुनावों के नतीजों का 2024 के आम चुनावों पर बड़ा असर पड़ने की संभावना है.

आदिवासी कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग का मानना है कि इंडिया बनाम भारत की चल रही बहस आदिवासियों को विचलित नहीं करेगी और वे जल, जंगल और जमीन से संबंधित अपनी मांगों को आगे बढ़ाते रहेंगे.

डुंगडुंग कहते हैं कि पिछले पांच वर्षों में सरकार ने वन संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2023 के माध्यम से वन अधिकार अधिनियम को कमजोर करके आदिवासी समुदाय को एक बड़ा झटका दिया है.

उन्होंने कहा, “ऐसे मुद्दे समुदाय को इंडिया गठबंधन को मौका देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. उनके लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार का मुद्दा इंडिया बनाम भारत की तुलना में कहीं अधिक बड़ी बहस होगी.”

उनके मुताबिक, झारखंड एक उपयुक्त केस स्टडी है. जब रघुबर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (CNT Act) और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (SPT Act) जैसे कानूनों में संशोधन करने की कोशिश की, जो आदिवासी भूमि को सुरक्षा प्रदान करते हैं. ऐसे में समुदाय ने शासन परिवर्तन का विकल्प चुना.

डुंगडुंग कहते हैं, “आज भारत के संविधान में संशोधन के प्रयास चल रहे हैं. समान नागरिक संहिता (यूसीसी) आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी और पारंपरिक अधिकारों को छीनने का एक प्रयास है. इसलिए समुदाय केंद्र में भी बदलाव सुनिश्चित करेगा.”

झारखंड में 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा 81 सदस्यीय विधानसभा में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 सीटों में से सिर्फ दो ही सीट जीत सकी थी. इसका फायदा झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) द्वारा बने गठबंधन को मिला. बाकी की 26 सीटों में से 19 झामुमो ने जीती थी जबकि कांग्रेस को छह सीटें मिली थी.

हालांकि, ठीक छह महीने पहले भाजपा ने आम चुनावों में राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी. जिसमें एसटी के लिए आरक्षित पांच में से तीन सीटें भी शामिल थी. नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, झारखंड की 3.29 करोड़ की आबादी में से लगभग 87 लाख आदिवासी हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, आदिवासी राष्ट्रीय जनसंख्या का लगभग 8.6 प्रतिशत हैं. जिससे 705 जनजातियों के सदस्यों की संख्या 10 करोड़ से अधिक हो गई है.

इस आबादी का अधिकांश हिस्सा झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में रहता है. शेष जनसंख्या उत्तर-पूर्व और दक्षिणी राज्यों में केंद्रित है.

देश के जिन भी राज्यों में आदिवासी आबादी है सभी को मिलाकर 558 विधानसभा सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं, जबकि लोकसभा में यह संख्या 47 है.

पंद्रह राज्यों में आदिवासियों की अच्छी-खासी आबादी है और पांचवीं और छठी अनुसूची के अनुसार एसटी के लिए विशेष प्रावधान हैं. झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना पांचवीं अनुसूची में शामिल हैं जबकि असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम छठी अनुसूची का हिस्सा हैं. कुछ अन्य राज्यों में भी आदिवासियों की अच्छी-खासी आबादी है.

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इस समय विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो रहा है. क्या इन राज्यों के आदिवासी डुंगडुंग की तरह ही सोचते हैं?

आदिवासी चिंतक और ट्राइबल आर्मी के संस्थापक हंसराज मीना डुंगडुंग से काफी हद तक सहमत हैं.

वो कहते हैं कि तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे अन्य राज्यों में आदिवासियों के लिए भी मूड तय करेंगे. पिछले पांच वर्षों का आकलन करें तो आदिवासियों को बड़े पैमाने पर दमन का सामना करना पड़ा. उनके पक्ष में बने कानूनों को कमजोर कर दिया गया है. मध्य प्रदेश और मणिपुर में समुदाय के खिलाफ सबसे अधिक अत्याचार हुए हैं.

वो आगे कहते हैं, “अपने 15 साल के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि राजस्थान भी कांग्रेस और बीजेपी को बारी-बारी से सत्ता सौंपने की अपनी ऐतिहासिक प्रवृत्ति से भटक सकता है और कांग्रेस फिर से सरकार बना सकती है.”

मध्य प्रदेश में 1.53 करोड़ आदिवासी आबादी है, वहीं राजस्थान में 92.39 लाख और छत्तीसगढ़ में 78.23 लाख है. कुल 520 विधानसभा सीटों में 101 एसटी के लिए आरक्षित हैं, जबकि 65 लोकसभा सीटों में से 13 आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं.

2018 के विधानसभा चुनावों में तीनों राज्यों में आदिवासी सीटों पर भाजपा की संख्या कम हो गई थी. कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की 47 एसटी सीटों में से 30 पर जीत हासिल की थी, जबकि बीजेपी को 16 सीटें मिली थी. इसी तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 29 एसटी सीटों में से 28 पर जीत हासिल की थी. राजस्थान में 25 में से 11 सीटें कांग्रेस के खाते में गईं, जबकि बीजेपी ने नौ सीटें जीती थी.

विधानसभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि इन राज्यों में आदिवासियों ने राज्य चुनावों में कांग्रेस को वोट दिया. लेकिन लोकसभा में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया.

हालांकि, मीना का मानना है कि इस साल इन क्षेत्रों के आदिवासियों द्वारा राज्य और केंद्र दोनों में एक ही पार्टी या गठबंधन का समर्थन करने की संभावना है.

जिस तरह डुंगडुंग और मीना यूसीसी या मणिपुर जैसे मुद्दों पर भाजपा के खिलाफ समुदाय के गुस्से के बारे में बताते हैं. उसी तरह कार्यकर्ता और मध्य प्रदेश के विधायक हीरालाल अलावा भी आदिवासियों के बीच पार्टी के खिलाफ असंतोष व्यक्त करते हैं.

वो कहते हैं, “मणिपुर में आदिवासी महिलाओं के साथ क्या हुआ या मध्य प्रदेश में एक आदिवासी पुरुष पर पेशाब करने की घटना, यूसीसी लाने की कोशिश, ये सभी आदिवासियों के बीच प्रमुख मुद्दे हैं. यह समुदाय बीजेपी से काफी नाराज है. राज्य के हर जिले में प्रदर्शन किया गया है.”

अलावा जय आदिवासी युवा शक्ति (JAYS) के संस्थापक सदस्य हैं. इस संगठन ने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का समर्थन किया था और फिर से ऐसा कर सकता है.

देशभर के आदिवासियों को डर है कि अगर यूसीसी लागू हुआ तो उनके राज्यों की स्वायत्तता खत्म हो जाएगी और उनके रीति-रिवाज और संस्कृति ख़तरे में पड़ जाएगी. पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत राज्यों को औपनिवेशिक काल से कुछ हद तक स्वायत्तता प्राप्त है. उस समय, उन्हें “बहिष्कृत क्षेत्रों” के रूप में नामित किया गया था.

पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले राज्यों को आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्रों के रूप में सूचीबद्ध किया गया था जबकि छठी अनुसूची के प्रांतों को पूरी तरह से बाहर रखा गया था. बाद में आदिवासी गांवों पर स्वशासन की प्रणालियों द्वारा शासन किया गया, जिसे संविधान में मान्यता दी गई है.

हालांकि, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के लिए सामूहिक रूप से मतदान नहीं कर सकते हैं. कुछ स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि इन राज्यों में समुदाय के बीच धर्मांतरण एक बड़ा मुद्दा है और यह इसे धार्मिक आधार पर विभाजित करता है.

ईसाई आदिवासी एक गुट के रूप में कांग्रेस को वोट दे सकते हैं लेकिन गैर-ईसाई आदिवासियों के बीच समर्थन का प्रतिशत आंकना मुश्किल है. पत्रकारों का कहना है कि आरएसएस यहां आदिवासियों के बीच लंबे समय से सक्रिय है, जिसने गैर-ईसाई एसटी के एक बड़े वर्ग को भाजपा का समर्थक बना दिया है.

आरएसएस से जुड़ा संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम देशभर में आदिवासियों के बीच काम करता है. इसकी कई शाखाएं विभिन्न राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सक्रिय हैं.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका मणिमुग्धा शर्मा कहती हैं, ”यह तय करना मुश्किल है कि भारत बनाम इंडिया की बहस ज़मीन पर कैसी दिखेगी लेकिन यह भाषणों पर हावी हो रही है. भाजपा और आरएसएस आदिवासियों को यह समझाने की कोशिश करेंगे कि इंडिया नाम एक विशिष्ट आविष्कार है, जो अंग्रेजों द्वारा दिया गया है, जबकि भारत आपका सच्चा राष्ट्र है.”

वह आगे कहते हैं: “लंबे समय से आरएसएस ने आदिवासियों को हिंदू के रूप में परिभाषित और पहचाना है. इसीलिए वे इस समुदाय को वनवासी कहते हैं. जिस दिन वे आदिवासी शब्द का प्रयोग करेंगे – जिसका अर्थ है मूल निवासी और स्वीकार करेंगे कि वे देश के मूल निवासी हैं. एक प्रश्न उठेगा: हिंदू यहां कब आए? यही कारण है कि वे उन्हें वनवासी कहने और उन्हें एक अलग पहचान देने से इनकार करने पर जोर देते हैं.”

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार का कहना है कि राज्य के आदिवासी कांग्रेस से खुश नहीं हैं और कांग्रेस बस्तर और सरगुजा क्षेत्रों में अपनी वर्तमान एसटी सीटों में से आधी खो सकती है. कुमार के मुताबिक, आम चुनाव इंडिया बनाम भारत नहीं बल्कि इंडिया बनाम एनडीए है.

उनका कहना है, ”बस्तर और सरगुजा क्षेत्र में आदिवासी बंटे हुए हैं. अब तक समुदाय बहुत स्पष्ट था चाहे वे राज्य चुनावों में किसी को भी वोट दें, वे राष्ट्रीय क्षेत्र में पीएम मोदी को वोट देंगे. इसलिए मैं नहीं मानता कि आम चुनाव में आदिवासियों का वोट एक गुट के रूप में किसी एक पक्ष को जाएगा. मुझे यह भी लगता है कि भारत आदिवासी मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे में बदलने का गंभीर प्रयास नहीं कर रहा है, जैसा कि उन्होंने ओबीसी के लिए किया था.”

कुमार इस बात पर भी जोर देते हैं कि प्रत्येक राज्य में आदिवासी मुद्दे अलग-अलग हैं और यह भी कहते हैं कि जो कुछ पूर्वोत्तर में समुदायों के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय है वह हिंदी बेल्ट या दक्षिण में आदिवासियों के लिए महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है.

बेंगलुरु के आरवी विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले सूरज गोगोई इस बात से सहमत हैं कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी अपनी चिंताओं में अन्य राज्यों से बहुत अलग हैं.

वो कहते हैं, “इस क्षेत्र में आदिवासियों के लिए विकास और स्वायत्तता सबसे बड़े मुद्दे हैं. अरुणाचल प्रदेश में 169 बांधों का निर्माण कार्य चल रहा है और लोगों का मानना है कि यह काम भाजपा के शासन में हो रहा है इसलिए वे भाजपा का समर्थन करते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, “असम में झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र से श्रमिक के रूप में आये आदिवासियों को अभी भी एसटी का दर्जा नहीं दिया गया है. इनकी संख्या करीब 70 लाख है. समुदाय के बीच कई भाजपा नेता हैं और वे उन्हें यह समझाने में सफल रहे हैं कि पार्टी उनके लिए आदिवासी दर्जा सुरक्षित करेगी. त्रिपुरा में भी ऐसी ही गतिशीलता है.”

मणिपुर में बीजेपी पहले से ही मजबूत है क्योंकि मैतेई मतदाता उसके साथ हैं. उत्तर-पूर्व में कई आदिवासी समुदाय हैं और वे किसी विचारधारा के तहत या आदिवासी एकता के नाम पर एक साथ नहीं आते हैं.

वास्तव में असम या अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में मणिपुर मुद्दे पर हिंदी आदिवासी बेल्ट राज्यों की तुलना में विरोध प्रदर्शन नहीं देखा गया.

गोगोई का मानना है कि बीजेपी आम चुनाव से पहले क्षेत्र में एनआरसी जैसे मुद्दों का इस्तेमाल कर सकती है और इससे उसे फायदा हो सकता है. उनका कहना है कि पूर्वोत्तर के मौजूदा मूड के मुताबिक आदिवासी मतदाता बीजेपी या भारत का समर्थन कर सकते हैं.

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