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डॉक्टर जानुम सिंह सोय: आदिवासी गीतों के लिए गांव गांव घूमने वाले प्रोफेसर को पद्म श्री सम्मान

जानुम का मतलब हो भाषा में कांटा होता है..यह कहते हुए डॉक्टर जानुम सिंह सोय हंस दिये थे. उन्हें हो भाषा में उल्लेखनीय काम के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया है.

दुनिया भर में हज़ारों ऐसी भाषाएं है जो ख़तरे में बताई जाती हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भारत में कम से कम 42 ऐसी भाषाएं हैं जिनके असतित्व पर ख़तरा मंडरा रहा है.

संयुक्त राष्ट्र संघ के मापदंड के अनुसार जिस भाषा को बोलने वाले 10 हज़ार से भी कम रह जाते हैं उनका वजूद ख़तरे में माना जा सकता है.

भारत में जिन भाषाओं को ख़तरे में बताया जा रहा है उनमें से अधिकतर आदिवासी भाषाएं हैं. इसलिए आदिवासी भाषाओं को बचाना एक ज़रूरी काम है.

इस क्षेत्र में कई लोग काम कर रहे हैं. लेकिन यह काम आसान नहीं है. क्योंकि आदिवासी भाषाओं में बहुत कम सामग्री उपलब्ध मिलती है.

यही चुनौती हो भाषा के क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टर जानुम सिंह सोय भी झेलनी पड़ी. लेकिन वे बरसों तक हो आदिवासियों के गांव गांव भटकते रहे और वहां से लोक गीतों को जमा किया.

उन्होंने लोकगीतों को लिखा और उनको प्रकाशित भी करवाया. आदिवासी समुदायों में पारंपरिक ज्ञान, समाज को चलाने के नियम और ज़मीन के प्रबंधन की व्यवस्था एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मौखिक तौर पर ही मिलती रही है.

इसलिए आदिवासी लोकगीतों और कहानियों में आदिवासी भाषा बसती है. प्रोफेसर जानुम सिंह सोय इस बात को समझते थे क्योंकि वे खुद हो आदिवासी समुदाय से हैं.

डॉक्टर जानुम सिंह सोय

पद्म श्री से सम्मानित डॉकटर जानुम सिंह सोय झारखंड के सिंहभूम ज़िले के रहने वाले है. जहां हो सुमदाय रहता है. वह हो समुदाय के होने के साथ ही आदिवासी हो भाषा के विद्वान भी है.

इन्हें जनजाति भाषा के पंडित कहते है और इन्होंने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

प्रोफेसर सोय 2009 से 2010 तक कोल्हान विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पहले प्रमुख और इस विभाग के प्रोफेसर रहे. फिर 2013 से 2014 के बाद वह कोल्हन विश्वविद्यालय से रिटायर हो गए.

इसके अलावा जब वह घाटशिला के रहते थे, तब उन्होंने अपने शिक्षण के प्रारंभिक वर्षों में घाटशिला सरकारी कॉलेज में भी पढ़ाया था.

डॉकटर जानुम सिंह सोय हो संस्कृति, पंरपंरा पर अब तक 6 किताबें लिख चुके हैं.

MBB से बातचीत में उन्होंने कहा कि हो आदिवासियों के जीवन के बारे में लिखने के लिए उन्हें काफी घूमना पड़ा था. गांव-गांव जाकर वहां के पर्व त्योहार के बार में जानना पड़ा.

इस दौरान उन्होंने यह अनुभव किया कि हो समुदाय में ऐसी किताबें नहीं है. जो आसानी से पढ़ी जा सके. हो सुमदाय में अब तक किताबों की बहुत कमियां है.

डॉकटर सोय ने कहा है कि इन्हीं कमियों को दूर करने के लिए उन्होंने अपनी कलम उठाई.

इसके अलावा उन्होंने कहा है कि यह भी कहा है कि वह पढ़ते भी रहे है एंव पढ़ाते भी रहे है.

आदिवासी हो भाषा को भूल गए थे. तो उन्होंने एक तरह से हो समुदाय को जगाने का मंत्र फूंक दिया है.

हो भाषा

हो भाषा सबसे पुरानी ऑस्ट्रो-एशियाई पारिवारिक भाषाओं में से एक है. जिसे बोलने वाले पूरे देश में लगभग 40 लाख से अधिक लोग हैं. इस भाषा को हो के अलावा अक्सर हो-काजी कहा जाता है. इस भाषा का प्रयोग हो आदिवासी करते है.

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