HomeAdivasi Dailyसिक्किम में आदिवासी संगठन ने तबाही की जवाबदेही तय करने की मांग...

सिक्किम में आदिवासी संगठन ने तबाही की जवाबदेही तय करने की मांग रखी

सिक्किम में पहले बादल फटा, इसका पानी चुंगतांग के करीब लेचन वैली में साउथ लहोनल झील में गिरा. पहले से खतरनाक मानी जाने वाली ये ग्लेशियल झील इस कदर ओवरफ्लो हुई कि इसका पानी सारे बांध तोड़ते हुए तीस्ता नदी में पहुंचा. फिर तो तबाही ही आ गई. बहुत कुछ तहस-नहस हो गया.

सिक्किम (Sikkim) की शीर्ष आदिवासी संस्था, सिक्किम भूटिया लेप्चा एपेक्स कमेटी (Sikkim Bhutia Lepcha Apex Committee – SIBLAC), विवादास्पद तीस्ता बांध परियोजना (Teesta Dam project) की सीबीआई (CBI) से व्यापक जांच कराने की मांग कर रही है.

जांच का यह आह्वान हाल ही में आई विनाशकारी ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) के बाद किया गया है. इस बाढ ने उत्तरी सिक्किम, पूर्वी सिक्किम और दक्षिण सिक्किम के कुछ हिस्सों को तबाह कर दिया था. जिसने अपने पीछे तबाही, पीड़ा और अनिश्चितता का निशान छोड़ दिया है.

SIBLAC के संयोजक ने कहा है कि उनकी यह मांग पूरी तरह से ग़ैर राजनीतिक है. यह आपदा प्राकृतिक और मानव भूल दोनों कारणों से आई थी.

आपदा के प्राकृतिक कारणों में ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता प्रभाव और अन्य जलवायु परिवर्तन शामिल हैं जिन्होंने क्षेत्र के नाजुक पर्यावरण के क्षरण को तेज़ कर दिया है. इसके अलावा यह आपदा ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) के कारण हुई थी, जो अपने आप में ग्लेशियरों के पिघलने का परिणाम है, जो बदलती जलवायु का प्रत्यक्ष परिणाम है.

वहीं मानव निर्मित कारण भी उतने ही परेशान करने वाले हैं. जिसमें स्वाभाविक रूप से नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र वाले क्षेत्रों में बांधों का निर्माण शामिल है. इन परियोजनाओं के विशाल पैमाने और उनके संभावित पर्यावरणीय नुकसान से सरकारी हलकों, पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों में चिंता बढ़ गई होगी.

सरकार की लापरवाही का नतीजा

SIBLAC का दावा है कि इस आपदा का परेशान करने वाला पहलू ये है कि इसे रोकने और कम करने में वर्तमान और पिछली सरकारों ने लापरवाही दिखाई. दोनों प्रशासनों ने इस संकट को टालने में रुचि की कमी दिखाई.

तीस्ता बांध परियोजना को आगे बढ़ाने के पिछली सरकार के फैसले ने वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा जारी की गई गंभीर चेतावनियों की अनदेखी की. वैज्ञानिकों ने इस तरह की परियोजना में निहित खतरों पर प्रकाश डाला था लेकिन सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया. स्थानीय समुदायों के विरोध के बावजूद, सरकार आगे बढ़ी और एक संदिग्ध आधार वाली परियोजना शुरू की.

दरअसल, कई सरकारी एजेंसियों और वैज्ञानिक अभियानों ने इस विनाशकारी घटना से कम से कम एक दशक पहले उत्तरी सिक्किम में लहनोक झील और GLOF की संवेदनशीलता के बारे में बताया था.

2019 में सिक्किम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SSDMA) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हैदराबाद में राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर के वैज्ञानिकों ने 2013 की शुरुआत में बताया था कि समुद्र तल से 5,245 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लहोनक झील ग्लेशियल आउटबर्स्ट के लिए “अत्यधिक संवेदनशील” है.

इस घटना में निचले इलाकों में जीवन और संपत्ति को व्यापक तौरपर नुकसान पहुंचाने की क्षमता थी. साथ ही बांधों और बिजलीघरों जैसे बेहद अहम इंफ्रास्ट्रक्चर को ख़तरे में डालने वाली “फ्लैश फ्लड” की आशंका भी थी.

इस समस्या का आकलन करने के लिए विभिन्न क्षेत्रीय अभियान भी चलाए गए. पहला अभियान अगस्त 2014 में हुआ था. जिसका नेतृत्व हिमपात और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान (SASE) और सिक्किम विज्ञान और प्रौद्योगिकी और जलवायु परिवर्तन विभाग के साथ-साथ अन्य हितधारकों की एक टीम ने किया था.

टीम ने शॉर्ट-टर्म समाधान के रूप में “साइफ़िनिंग” का भी सुझाव दिया था. सितंबर 2016 में दक्षिण लहोनक झील पर दूसरा अभियान हुआ. जिसका नेतृत्व सिक्किम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, भारत-तिब्बत पुलिस बल और लद्दाख के छात्र शिक्षा और सांस्कृतिक आंदोलन की एक टीम ने किया, जिसमें सोनम वांगचुक प्रमुख थे.

इस टीम ने निष्कर्ष निकाला कि मृत बर्फ के पिघलने के खतरे के कारण “इंजीनियरिंग हस्तक्षेप संभव नहीं था.” इस त्रासदी से जुड़ी चेतावनियों और विशेषज्ञों की सिफारिशों को अनसुना किया गया. स्थिति का आकलन करने और उस पर कार्रवाई करने वाले अधिकारियों के कई दौरों के बावजूद वर्तमान सरकार ने आपदा को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

SIBLAC के मुताबिक इस दुखद घटना के सामने आने के बाद विभिन्न एजेंसियों द्वारा बताई गई चेतावनियों और एसओपी के प्रति सिक्किम सरकार की संवेदनहीन उपेक्षा सामने आ चुकी है. हालांकि सरकारी अधिकारियों ने स्थिति का आकलन करने के लिए छिटपुट दौरे किए. लेकिन उन्होंने भी आपदा से निपटने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की.

ग्लेशियल झील और तबाही

तीस्ता बांध आपदा की ओर ले जाने वाली घटनाओं की श्रृंखला जान-माल के नुकसान को रोकने में सरकार की विफलता और उदासीनता को दिखाता है. जैसा कि बताया गया है कि झील के पास तैनात एक आईटीबीपी जवान ने रात 10:30 बजे गंगटोक में कमांडेंट को तेजी से बढ़ते जल स्तर के बारे में सचेत किया था.

इसके साथ ही रात 10:40 बजे तक यह जानकारी स्थानीय सरकार को दे दी गई. मुख्यमंत्री, जो उस दिन मंगन में थे, उनको एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान यह संदेश मिला. लेकिन जनता को आने वाली आपदा से बचाने के लिए त्वरित कार्रवाई करने के लिए जिला अधिकारियों को तत्काल निर्देश जारी करने के बजाय, वह बिना कोई आदेश दिए रात 11 बजे गंगटोक के लिए रवाना हो गए.

यह एक दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता है कि अगर समय पर निर्देश दिए गए होते तो संभवतः कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी. ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए किसी बेहतर कार्य योजना के अभाव ने त्रासदी को और बढ़ा दिया. नदी तटीय क्षेत्रों में बाढ़ आने के काफी समय बाद भी बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए कोई समन्वित प्रतिक्रिया नहीं हुई थी.

राज्य आपदा प्रबंधन तंत्र ने अपनी तैयारियों की कमी और अपर्याप्त संसाधनों को देखते हुए तुरंत प्रतिक्रिया नहीं दी. सरकार की आपदा प्रबंधन टीम द्वारा खराब मैनपावर मैनेजमेंट के चलते समय पर टीमें जमीन पर अनुपस्थित थीं.

राज्य ने बाद में केंद्र से राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) की टीम के आने का इंतजार किया. अफसोस की बात है कि ये काफी देर से हुआ. वहीं सुरंग में फंसे श्रमिकों के लिए कोई ठोस बचाव योजना नहीं थी जिसके चलते लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी.

पीड़ितों के लिए राहत प्रयासों का नेतृत्व बड़े पैमाने पर पुलिस, गैर-सरकारी संगठनों, विभिन्न संघों और जनता के निस्वार्थ स्वयंसेवकों ने किया. इतना ही नहीं सरकार के पास विस्थापित पीड़ितों की राहत और पुनर्वास और उसके बाद तबाह हुए क्षेत्रों के विकास के लिए कोई व्यापक लॉन्ग-टर्म योजना नहीं थी.

विफलताओं का यह सिलसिला सरकार की ओर से लापरवाही और अपने कर्तव्य की भावना की कमी के एक बड़े मुद्दे की ओर इशारा करता है. बाढ़ और उसके बाद उत्पन्न हुई समस्याओं से निपटने में सरकारी प्रशासन स्पष्ट रूप से विफल रहा है.

ऐसे में सरकार को अपनी लापरवाही के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए. क्योंकि इसके चलते कई लोगों की जान चली गई. वहीं तीस्ता ऊर्जा लिमिटेड ने यह आरोप लगाकर दोष से बचने की कोशिश की है कि बांध पर काम घटिया था. जबकि ये पहले से पता है कि पिछली सरकार ने निर्माण मानदंडों से संबंधित कई नियमों की अनदेखी करते हुए परियोजना शुरू की थी.

तीस्ता-III परियोजना को कई मोर्चों पर एक असफल प्रयास माना गया है. जिसमें ट्रांसमिशन लाइनों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव, बड़े पैमाने पर लागत वृद्धि सहित महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं. परियोजना से जुड़ी कई वित्तीय अनियमितताएं भी हुई हैं.

SIBLAC ने कहा कि सिक्किम की वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इन अनियमितताओं की जांच करने का वादा किया था. लेकिन एक बार सत्ता में आने के बाद वे अपने वादे भूल गए. जब उन्होंने पदभार संभाला था तब घटिया काम और वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों की जांच की जा सकती थी.

लंबे वक्त से दी जा रही थी चेतावनी

सिक्किम में पहले बादल फटा, इसका पानी चुंगतांग के करीब लेचन वैली में साउथ लहोनल झील में गिरा. पहले से खतरनाक मानी जाने वाली ये ग्लेशियल झील इस कदर ओवरफ्लो हुई कि इसका पानी सारे बांध तोड़ते हुए तीस्ता नदी में पहुंचा. फिर तो तबाही ही आ गई. बहुत कुछ तहस-नहस हो गया.

इस लंबी चौड़ी झील को लेकर ख़तरे की चेतावनी कई सालों से दी जा रही थी. इस झील को लेकर जो भी चेतावनी जारी की गई वो कुछ बरसों से नहीं बल्कि कई दशकों से है. क्योंकि पहली बार इसके चित्र सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी और संयुक्त राज्य वायु सेना द्वारा 1960 और 1972 के बीच इकट्ठे किए गए. तभी उन्हें ये झील ग्लेशियर के मुहाने पर सुपरग्लेशियल झील के रूप में नजर आई.

मोटे तौर पर संवेदनशील झील के रूप में इसकी पहचान 1977 लैंडसैट कार्यक्रम के मल्टीस्पेक्ट्रल स्कैनर में की गई.

1977 में इस झील का क्षेत्रफल 17.54 हेक्टेयर था. लेकिन इसके बाद 2008 में जब आंकलन हुआ तो इसका एरिया 81.1 हेक्टेयर बढ़ चुका था, जो चौंकाने वाला था. हाल के बरसों में इसमें बढोतरी देखी जाती रही.

क्योंकि ये झील सिक्किम की अशांत पहाड़ी घाटियों में है, लिहाजा इसका खतरा और बढ़ जाता है. क्योंकि यहां से पानी बहुत तेजी से नीचे की ओर बढ़ने की आशंका जाहिर की जाती रही थी.

(Image credit: PTI)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments