आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे अपराध बढ़े हैं. 2019 में आदिवासी महिलाओं के बलात्कार के कम से कम 1110 मामले रिपोर्ट हुए थे.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार आदिवासी महिलाओं के अलावा अनुसूचित जाति की महिलाओं के ख़िलाफ़ भी कम से कम 3486 मामले दर्ज किए गए थे.
इस सिलसिले में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री जी कृष्णा रेड्डी ने यह जानकारी दी है. अपने जवाब में रेड्डी ने कहा कि क़ानून व्यवस्था राज्यों का मामला है.
लेकिन केन्द्र सरकार ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों से निपटने के लिए कई क़ानूनों में बदलाव किया है.
इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए क्रिमिनल लॉ (संशोधन) एक्ट 2018 लागू किया गया है.
इस क़ानून में 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के बलात्कार के दोषी को मौत की सज़ा तक का प्रावधान किया गया है.
इस क़ानून में यह प्रावधान भी किया गया है कि 2 महीने के भीतर इस तरह के मामलों में चार्जशीट फ़ाइल की ही जानी चाहिए.
इसके साथ साथ इस तरह के मामलों में अदालत को 2 महीने में मुक़दमे की सुनवाई पूरी करनी होगी.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में आमतौर पर सभी मामले रिपोर्ट नहीं होते हैं. वैसे तो यह बात सभी वर्गों की महिलाओं के बारे में सही है.
लेकिन कमज़ोर तबकों के मामले में यह ज़्यादा देखा जाता है कि यौन उत्पीड़न या बलात्कार के मामले दबा दिए जाते हैं.
आदिवासी महिलाओं के बारे में मामला और भी गंभीर है. आदिवासी समुदाय में शिक्षा और जागरूकता की कमी की वजह से इस तरह के मामले बहुत मुश्किल से रिपोर्ट होते हैं.
इसके अलावा आदिवासी समाज के कस्टमरी लॉ यानि परंपरागत क़ानून बलात्कार को बहुत गंभीर मामले के तौर पर नहीं देखते हैं.
इस तरह के मामलों में अगर आदिवासी पुरूष शामिल पाया जाता है तो उसे बहुत हल्की सज़ा या जुर्माना करने के बाद छोड़ दिया जाता है.
जब ग़ैर आदिवासी पुरूष आदिवासी लड़कियों के यौन शोषण के दोषी होते हैं तो वो आमतौर पर आदिवासी समाज के मुखिया या पटेल को लालच दे कर या दूसरे तरीक़ों से उन पर दबाव बना कर मामले को सामाजिक स्तर पर ही दबा देते हैं.