आदिवासी इलाकों में जरूरी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध न होने के बावजूद आदिवासी लोग अभाव में भी बड़े-बड़े मुकाम हासिल करने में सफल हो जाते हैं. ऐसे एक दो नहीं बल्की बहुत सारे उदाहरण हमारे सामने हैं. जिन्होंने सुविधाओं का अभाव होने के बाद भी बहुत बड़ा काम कर दिखाया है.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हैं. जो आदिवासी समाज आती हैं. लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत और दृढ़ इरादों के दम पर यह मुकाम हासिल किया. इसके साथ ही वो महिला सशक्तिकरणका भी एक बहुत बड़ा उदाहरण हैं.
जल्द ही कुछ ऐसी ही एक और शख़्सियत हमें देखने को मिल सकती हैं जो आदिवासी समाज की तमाम मुश्किलों को पार कर कुछ बड़ा करने में सफल रही.
सूत्रों के मुताबिक केंद्र सरकार ने मद्रास, कर्नाटक और मणिपुर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए चार नामों पर विचार किया है. जिससे संभावित रूप से उच्च न्यायपालिका में सामाजिक विविधता और हाशिए पर रहने वाले वर्गों के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा मिलेगा
इन नामों की घोषणा बहुत जल्द केंद्रीय कानून मंत्रालय कर सकते है. इसके साथ ही यह दावा किया जा रहा है कि इन नामों में एक आदिवासी महिला हैं. जबकि दो अनुसूचित जाति और ओबीसी (OBC) यानी एक अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित हैं.
ये चार नाम इस साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा की गई नौ सिफारिशों के एक बैच का हिस्सा हैं. लेकिन केंद्र द्वारा अभी तक क्लीयर नहीं किया गया था और यह सबसे पुरानी सिफारिश है जो की जनवरी से लंबित है.
मार्च में लोकसभा में सरकार द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक 2018 से नियुक्त 575 उच्च न्यायालय न्यायाधीशों में से 67 ओबीसी श्रेणी के, 17 एससी श्रेणी के, 9 एसटी श्रेणी के और 18 अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं.
क्या है पूरा मामला
यह घटनाक्रम न्यायमूर्ति संजय किशन कौल वाली बेंच के समक्ष सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख सुनवाई के बाद हुआ है. जो संवैधानिक अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए कॉलेजियम के प्रस्तावों को संसाधित करने में केंद्र द्वारा उठाए गए कदमों की निगरानी कर रहा है.
26 सितंबर को शीर्ष अदालत ने देरी पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि वह समय-समय पर कॉलेजियम की सिफारिशों को संसाधित करने में केंद्र द्वारा उठाए गए कदमों का जायजा लेगी.
उस दिन इस सिलसिले में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए अनुशंसित नौ नामों पर सहमति दी गई थी. जो कई महीनों से सरकार के पास लंबित थे बिना किसी संकेत के कि क्या उन्हें नियुक्त किया जाएगा अगर सरकार को इन नामों के प्रस्तावों पर कोई आपत्ति तो नहीं है.
जिस पर अदालत ने एडवोकेट अमित पई के माध्यम से एडवोकेट एसोसिएशन, बेंगलुरु द्वारा दायर एक अवमानना याचिका को जब्त कर लिया था. जिसमें सरकार द्वारा लंबित नियुक्तियों और अस्पष्टीकृत रोक के कई उदाहरणों को उजागर किया गया था.
जिसके बाद सोमवार को इस मामले पर सुनवाई हुई थी. जिसमें जस्टिस कौल वाली बेंच ने सरकार को आगाह किया था कि कॉलेजियम की सिफारिशें अधर में नहीं रह सकतीं और इस पर अदालत ने कहा कि नामों पर अनिश्चित काल तक बैठने के बजाय सरकार को या तो नियुक्तियों को अधिसूचित करना चाहिए या तो विशिष्ट आपत्तियों का हवाला देते हुए नाम वापस भेजना चाहिए.
इस बात पर बेंच ने कहा है की अदालत के इस फैसले में उल्लिखित प्रक्रियाएं और इसमें निर्धारित समय-सीमा अपने आप काम करनी चाहिए और अदालत द्वारा किसी भी निगरानी की आवश्यकता नहीं है.
बेंच जिसमें न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया भी शामिल थे, ने अपने आदेश में अप्रैल 2021 के फैसले का जिक्र किया, जिसमें सरकार को नामों पर कार्रवाई करने के लिए तीन महीने की समय सीमा निर्धारित की गई थी.
जब पीठ ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए 19 सिफारिशों की स्थिति जाननी चाही, जिसमें पहली बार भेजे गए नौ नाम और 10 अन्य शामिल थे जिन्हें दोहराया गया है लेकिन अभी तक नियुक्त नहीं किया गया है.
इस पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने जवाब दिया कि नौ में से चार नाम पहली बार अनुशंसित को मंजूरी दे दी गई है.