HomeAdivasi Dailyटाइगर रिज़र्व बनने से पहले सुरक्षित हों आदिवासी अधिकार

टाइगर रिज़र्व बनने से पहले सुरक्षित हों आदिवासी अधिकार

आदिवासियों का दावा है कि टाइगर रिजर्व स्थापित होने से उनके पारंपरिक अधिकारों में खलल पड़ेगा.

अंतियूर यूनियन के बरगुर पहाड़ियों में रहने वाले आदिवासी लोगों और दूसरे वनवासियों ने राज्य सरकार से ईरोड वन प्रभाग में एक नया टाइगर रिज़र्व बनाने से पहले अपने पारंपरिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने को कहा है.

तमिलनाडु वन विभाग 82,144 हेक्टेयर में फैले डिवीजन में एक नया टाइगर रिजर्व बनाने के प्रस्ताव का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया में है. यहां 15-20 बाघ, हाथी, तेंदुए और कई दूसरे जंगली जानवर मिलते हैं.

इस प्रस्ताव ने पहाड़ी इलाके के उन लोगों में दहशत पैदा कर दी है जो अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. उनका दावा है कि टाइगर रिजर्व स्थापित होने से उनके पारंपरिक अधिकारों में खलल पड़ेगा.

गुरुवार को, राजनीतिक दलों, सामाजिक कल्याण संगठनों और आदिवासी संघों के प्रतिनिधियों समेत 400 से ज्यादा लोग अपनी अगली कार्रवाई की रूपरेखा तैयार करने के लिए तामरकरई में इकट्ठा हुए.

सभा को संबोधित करते हुए, कई वक्ताओं ने कहा कि टाइगर रिजर्व की घोषणा के बाद, लोग वन क्षेत्र के अंदर बने मंदिरों में पूजा करने का अपना अधिकार खो देंगे, मामूली वन उपज इकट्ठा करने में असमर्थ होंगे और अपने मवेशियों को भी जंगल में नहीं चरा पाएंगे.

उन्होंने कहा कि लोगों को जंगल के अंदर जाने के लिए एक शुल्क देना होगा, और अगर उनके घर कोर टाइगर रिजर्व के अंतर्गत बने हैं, तो उन्हें अपने घर खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.

वक्ताओं ने कहा, “वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006, हमारे सभी अधिकारों को सुनिश्चित करता है, लेकिन पिछले 15 सालों में राज्य में अधिनियम को लागू नहीं किया गया है.”

इसलिए, बैठक के जरिए इस मुद्दे पर राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की गई.

तमिलनाडु ट्राइबल पीपल एसोसिएशन के राज्य समिति सदस्य, वी.पी. गुणसेकरन ने कहा कि वन्य जीवन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 में धारा 38 वी (4) (i) (ii) के तहत राज्य सरकार को किसी इलाके को टाइगर रिजर्व के रूप में अधिसूचित से पहले वहां बसे अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों की सहमति प्राप्त करना जरूरी है. इसके अलावा इलाके से परिचित एक एनवायरनमेंटलिस्ट और सामाजिक वैज्ञानिक से चर्चा भी की जानी चाहिए.

लेकिन न तो कोई परामर्श किया गया है, न ही एफआरए में दिए गए आदिवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम उठाए गए है.

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