जहां एक तरफ शहरों में छात्र धीरे-धीरे स्कूलों के फिर से खुलने के बाद अपनी नॉर्मल दिनचर्या में वापस आ रहे हैं, तमिल नाडु के नीलगिरी ज़िले के अंदरूनी और दुर्गम इलाकों में आदिवासी बच्चों की लिए यह काम चुनौतियों से लैस है. यहां के आदिवासी छात्रों में शिक्षा के प्रति एक उदासीनता देखी जा सकती है.
नीलगिरी जिला आदिवासी विकास परिषद की सदस्य शोभा मदन के मुताबिक, “कक्षा 1 से 10 तक पढ़ने वाले 15 आदिवासी छात्रों में से, गुडलूर के पंडालूर तालुक के तेनमबाड़ी गांव से पिछले तीन दिनों में सिर्फ एक या दो स्कूल गए हैं. बाकी की ज्यादातर या तो खेलने में या अपने माता-पिता के साथ काम करने में अपना समय बर्बाद करते हैं. गुडलूर क्षेत्र के लगभग 15 आदिवासी गांवों में हालात यही हैं.”
आदिवासी परिवारों के छात्रों के बीच शिक्षा के प्रति इस उदासीनता ने सामाजिक कार्यकर्ताओं में दर पैदा कर दिया है, क्योंकि इससे इन बच्चों को स्कूल तक लाने की उनकी सालों की मेहनत नाकाम होती नजर आ रही है.
“ऐसे दूर-दराज के गांवों के माता-पिता शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देते हैं. वो चाहते हैं कि उनके बच्चे परिवार के कमाऊ सदस्य बनें. मैंने पिछले कुछ दिनों में इन आदिवासी गांवों में माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाने के लिए किसी भी शिक्षक को नहीं देखा है. हालांकि कोई विशिष्ट डेटा नहीं है, लेकिन महामारी के बाद आदिवासी छात्रों के बीच ड्रॉप-आउट दर में काफी बढ़ोतरी हुई है,” मदन ने बताया.
हालांकि, अधिकारियों का यह दावा है कि आदिवासी छात्रों के न तो ड्रॉपआउट में कोई बढ़ोतरी हुई है, और न ही उनके सीखने में कोई गैप पाया गया है.
समग्र शिक्षा के ब्लॉक संसाधन शिक्षक, टी विजयराज का मानना है कि दूरदराज के इलाकों के छात्रों और नीलगिरी के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को लॉकडाउन के दौरान कनेक्टिविटी के मुद्दों का सामना करना पड़ा था, और सिर्फ 50 प्रतिशत छात्र ही ऑनलाइन शिक्षा का खर्च उठा पा रहे थे.
वो दावा करते हैं कि शिक्षा में आए उस अंतर को ‘इल्लम तेदी कलवी’ योजना के माध्यम से ठीक कर लिया गया है.
इसके अलावा 5,000 से ज्यादा छात्रों के लिए आरक्षित वनों और दूरदराज के स्थानों से स्कूल आने के लिए समग्र शिक्षा द्वारा परिवहन और एस्कॉर्ट की व्यवस्था भी को गई है. अधिकारी दावा करते हैं कि इससे पिछले कुछ सालों में ज़िले में ड्रॉपआउट रेट में काफी कमी आई है.