HomeColumnsआदिवासी भाषाओं में राम लीला कीजिए, लेकिन नीयत साफ़ रखिए

आदिवासी भाषाओं में राम लीला कीजिए, लेकिन नीयत साफ़ रखिए

संपूर्ण रामायण या रामायण के कुछ अंशों को आदिवासी बोलियों और भाषाओं में पेश किया जाए तो यह स्वागत योग्य कदम है. रामायण के अलावा और भी उपन्यास या कहानियाँ आदिवासी बोलियों में तैयार की जानी चाहिएँ. इससे ना सिर्फ़ आदिवासियों का ज्ञान बढ़ेगा, बल्कि आदिवासी बोलियों और भाषाओं का विकास भी होगा. लेकिन आदिवासी बोलियों में रामायण को अलग नियत और संदर्भों में पेश करने की कोशिश शक के दायरे में आती है.

मध्य प्रदेश सरकार ने हिन्दुओं के भगवान राम और आदिवासियों के रिश्ते को प्रचारित करने के लिए 70 लाख रूपये का बजट मंज़ूर किया है. इस योजना के तहत राज्य के 89 आदिवासी आबादी वाले ब्लॉक में आदिवासी रामायण का प्रचार करेगी. 

इस रामायण को रामलीला के रूप में पेश किया जाएगा. आदिवासी रामलीला में सबरी और निषाद राज केवट के संदर्भों पर फ़ोकस होगा.  

यह काम राज्य सरकार का संस्कृति विभाग कर रहा है. इस विभाग के तहत काम करने वाला मध्य प्रदेश आदिवासी बोली एवं विकास संस्थान ने इस नई आदिवासी रामलीला की स्क्रिप्ट तैयार की है. 

मीडिया में छपे बयानों के अनुसार संस्थान ने 5 महीने के शोध के बाद इस रामायण की स्क्रिप्ट को लिखा गया है. इस प्रोजेक्ट के कॉर्डिनेटर अशोक मिश्रा हैं और स्क्रिप्ट राइटर योगेश त्रिपाठी हैं. 

मध्य प्रदेश सरकार के इस कदम का कई आदिवासी संगठनों ने विरोध किया है. इन संगठनों का कहना है कि आदिवासी परंपराएँ किसी धर्म के वजूद में आने के पहले से मौजूद रही हैं. इस तरह का कदम आदिवासी सभ्यता और संस्कृति को भ्रष्ट करने का प्रयास है. 

मध्य प्रदेश सरकार का यह कदम उस समय आया है जब कई राज्यों के आदिवासी संगठन अपनी अलग धार्मिक पहचान को स्थापित करने की माँग कर रहे हैं. ये आदिवासी संगठन चाहते हैं कि इस साल शुरू होने वाली जनगणना में आदिवासियों की धार्मिक पहचान अलग से दर्ज की जानी चाहिए. 

रामायण को अलग अलग भाषाओं और इलाक़ों में ना जाने कितने अलग अलग संदर्भों के साथ लिखा गया है. लेकिन इस रामायण में सबरी और निषाद राज केवट को आदिवासी के तौर पर पेश करने की तैयारी है. 

देश के कई राज्यों में आदिवासी अलग धार्मिक पहचान के लिए लड़ रहे हैं.

भारत में अलग अलग आदिवासी समूहों को क़ानूनी और संवैधानिक भाषा में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है. मज़े की बात ये है कि केवट, मल्लाह या निषाद को ज़्यादातर राज्यों में अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं रखा जाता है. 

8 फ़रवरी को लोकसभा में सरकार ने एक सवाल के जवाब में कहा है कि बिहार सरकार ने 5 सितंबर 2015 को केन्द्र सरकार को पत्र लिख कर यह माँग की थी कि केवट या मल्लाह जाति को आदिवासी माना जाए. 

इस सिलसिले में बिहार सरकार ने 23 जून 2020 को एक और पत्र लिख कर केन्द्र सरकार के सामने यह माँग दोहराई है. लेकिन अभी तक केन्द्र सरकार ने इस पर कोई भी फ़ैसला नहीं लिया है. 

अगर केवट जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल जाता है तो उसे कई क़ानूनी और संवैधानिक अधिकार मिल जाते हैं. जो इस समाज को बराबरी के साथ तरक़्क़ी करने का अवसर दे सकते हैं. 

लेकिन मध्य प्रदेश सरकार का केवट और सबरी की कहानियों को आदिवासियों में प्रचारित करने का मक़सद शायद उन्हें मज़बूत करने का तो नहीं है. इसका जो फ़ौरी कारण नज़र आता है वह तो आदिवासियों की अपनी पहचान को दर्ज करने की माँग है. 

संपूर्ण रामायण या रामायण के कुछ अंशों को आदिवासी बोलियों और भाषाओं में पेश किया जाए तो यह स्वागत योग्य कदम है. रामायण के अलावा और भी उपन्यास या कहानियाँ आदिवासी बोलियों में तैयार की जानी चाहिएँ. 

इससे ना सिर्फ़ आदिवासियों का ज्ञान बढ़ेगा, बल्कि आदिवासी बोलियों और भाषाओं का विकास भी होगा. 

लेकिन आदिवासी बोलियों में रामायण को अलग नियत और संदर्भों में पेश करने की कोशिश शक के दायरे में आती है.

देश के क़ानून के हिसाब से भारत में किसी भी धर्म को अपने प्रचार-प्रसार का हक़ है. 

इस लिहाज़ से अगर हिन्दू धर्म के संगठन आदिवासी इलाक़ों में धर्म प्रचार के लिए जाते हैं तो उसे ग़लत नहीं कहा जा सकता है. लेकिन सरकार के पैसे से धर्म का प्रचार करना दुखद है. 

सबसे अधिक अफ़सोस की बात है कि इस काम के लिए आदिवासी भाषा और बोली बचाने के काम में लगाए जाना वाले पैसे का दुरूपयोग हो रहा है. 

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