HomeColumnsUCC थोपने के आग्रह से पहले विविधता का सम्मान ज़रूरी है

UCC थोपने के आग्रह से पहले विविधता का सम्मान ज़रूरी है

आदिवासियों के संदर्भ में यूसीसी पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को सफ़ाई देनी पड़ी है. ऐसा लगता है कि कई राज्यों के विधान सभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में आदिवासी इलाकों में नुकसान के भय से बीजेपी इस मुद्दे पर सावधानी से पीछे हट रही है.

अप्रैल के महीने में हमारी टीम झारखंड में थी. इस दौरे में हम झारखंड और उसके आस-पास के राज्यों (ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़) में आदिवासी समुदायों में चल रही हल-चल को समझना चाहते थे. ख़ासतौर से आदिवासी समुदायों के परंपरागत या प्रथागत नियमों यानि कस्टमरी लॉ से जुड़ी बहस पर हमारा ध्यान था.

इस सिलसिले में रांची में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ (NUSRL, Ranchi) में प्रोफेसर रामचंद्र उरांव से लंबी बातचीत हुई. वे यूनिवर्सिटी में कस्टमरी लॉ ही पढ़ाते हैं. उनसे बात करने के बाद कई मसलों पर समझ कुछ कुछ साफ़ हुई है.

मसलन उन्होंने कहा कि देश के अलग अलग आदिवासी समुदायों के प्रथागत कानूनों को आप आप्रसांगिक नहीं कर सकते हैं. क्योंकि अंतत: आधुनिक दुनिया के जो ज़्यादातर कानून हैं वे कभी ना कभी कस्टम यानि प्रथा या परंपरा ही थीं. 

प्रोफेसर रामचंद्र उरांव से हुई लंबी बातचीत में उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदायों के कस्टमरी लॉ में बदलाव या सुधार पर बहस तभी सार्थक हो सकती है जब इन प्रथाओं या परंपराओं का कम से कम दस्तावेज़ीकरण हो जाए.

उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी ऐसी प्रथा या परंपरा जो संविधान या नैतिकता के पैमाने पर खरी नहीं उतरती है, उसे लोकतांत्रिक देश में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. उनके अनुसार आदिवासी समुदायों के प्रथागत रूढ़ीगत कानूनों के बारे में जो धारणा बनी है उसकी वजह है कि इन समुदायों में प्रचलित प्रथाओं का दस्तावेज़ीकरण और कोडिफिकेशन का काम नहीं हुआ है.

इस सिलसिले में पश्चिमी सिंहभूम के ज़िला मुख्यालय चाईबासा जाना भी सफल रहा. यहां पर विलकिंसन रूल के तहत एक मानकी मुंडा न्याय पंचायत की स्थापना की गई है. यह न्याय पंचायत एक तरह की अदालत है जो आदिवासियों के प्रथागत कानूनों से चलती है. 

हो आदिवासी समुदाय की मानकी मुंडा पर ग्राउंड रिपोर्ट

दरअसल साल 2022 के दिसंबर महीने में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में सरकार को यह सलाह दी कि आदिवासी समुदायों में बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सा देने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को आदिवासी समुदायों पर लागू करने पर विचार करना चाहिए. 

इसके अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में काम करने वाले कुछ आदिवासी संगठन जिनमें आदिवासी सेंगेल अभियान नाम का संगठन फ्रंट पर है, आदिवासी प्रथागत न्याय व्यवस्था की प्रासिंगकता पर सवाल उठा रहे हैं. 

इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों के बारे में भी यह बहस होती है कि वहां के जनजातीय समुदायों में आज भी समाज के फैसले करने वाली संस्थाओं में महिला भागीदारी शून्य है. मसलन नागालैंड में नगर निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण,  सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद आज तक लागू नहीं हो पाया है. 

इस पृष्ठभूमि में हमारी कोशिश थी कि जब कई आदिवासी बहुल राज्य विधान सभा चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए हैं और देश के आम चुनाव में भी अब एक साल से कम का समय बचा है, क्यों ना आदिवासी समुदायों में चल रहे बहस के मुद्दों को समझा जाए. झारखंड से लाई गई रिपोर्टों का सिलसिला अभी चल ही रहा था कि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक और बहस छेड़ दी. 

उन्होंने बराबरी के सिद्धांत की वकालत करते हुए देश में समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करने की ज़रूरत पर बल दिया. देश में समान नागरिक संहिता की बहस नई नहीं है. संघ परिवार के ऐजेंडे में यह मुद्दा पहले से मौजूद है. 

लेकिन इस बार इस बहस में एक बात अलग हुई है. इस बार इस बहस को सिर्फ हिंदू बनाम मुसलमान के नज़रिये से नहीं देखा गया है. हांलाकि टीवी स्टूडियो में यूसीसी पर बहस का ऐंगल हिन्दू मुसलमान ही रहा है. लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर अख़बारों- पत्रिकाओं और ख़ास तौर से सोशल मीडिया पर देश के आदिवासी समुदायों के नज़रिये से भी बहस हो रही है.

2016 से अभी तक यानि पिछले 5-6 सालों में हमारी टीम को देश के करीब 50 से ज़्यादा आदिवासी समुदायों के लोगों के साथ कुछ ना कुछ समय बिताने का मौका मिला है. इस दौरान हमने आदिवासियों के जीविका, विस्थापन, पलायन और उनके सविंधानिक अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग की है. 

लेकिन हमारे काम का बड़ा हिस्सा उन रिपोर्ट्स का है जिसमें हमने आदिवासी जीवनशैली, समाज की बनावट और सामाजिक-धार्मिक आस्था या व्यवस्था को समझने की कोशिश की है. आदिवासी इलाकों में बिताए गए समय में अपने व्यक्तिगत अनुभव की बात करूं तो आदिवासी समुदायों में जो विविधता देखने को मिली वो अद्भुत है.

मसलन अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में हमें जारवा, ओंग, ग्रेट अंडमानी के साथ साथ निकोबारी समुदाय के लोगों से मिलने का मौक़ा भी मिला. निकोबारी समुदाय आज एक आधुनिक समुदाय बन गया है. कार निकोबार में रहने वाले लगभग सभी निकोबारी तो ईसाई धर्म अपना चुके हैं.

लेकिन इसके बावजूद उनका सामाजिक जीवन आदिवासी प्रथाओं से नियंत्रित होता है. उस समय वहां तैनात ज़िला उपायुक्त (DC) ने हमें बताया कि वहां पर नरेगा जैसी योजनाओं के तहत तालाब खुदवाने का काम करवाना मुश्किल होता है. क्योकि उनकी परंपराओं या प्रथाओं के अनुसार ज़मीन को बहुत गहरा खोदने से उनके पुरखे नाराज़ हो सकते हैं. 

देश के आदिवासियों से मिलने के सिलसिले में हमने उनके ब्याह शादी, तलाक और उत्तराधिकार के नियमों को भी करीब से समझने की कोशिश की है. इस क्रम में हमें कई आदिवासी समुदायों के विवाह समारोहों में शामिल होने का मौका मिला. 

मसलन कोकराझार में एक बोडो परिवार ने हमें अपनी बेटी की शादी में न्यौता दिया. हम इस शादी में शामिल हुए. इस शादी में बेहद स्वादिष्ट खाने के साथ साथ बोडो समुदाय में प्रचलित विवाह प्रथाओं के बारे में भी कई खूबसूरत जानकारी मिलीं.

मसलन जिस लड़की की शादी में हम शामिल हुए थे, उसका दूल्हा कई साल से उनके घर पर ही रह रहा था. दूल्हा लड़की के खेतों पर काम करता था और जब पिता उसकी मेहनत से प्रभावित हो गया तो उसने लड़के को उसकी बेटी से शादी करने की अनुमति दे दी.

ऐसे ही अरूणाचल प्रदेश गए तो सबसे पहले निशी समुदाय के लोगों से मुलाकात हुई. यहां हम जिस परिवार से हम सबसे पहले मिले उन्होंने हमें स्वागत में घर पर ही बनाई गई एक ख़ास देसी शराब पिलाई. जब उन्होंने हमें शराब परोसी तो यह भी बताया कि उनके समाज में शराब सिर्फ़ औरतें ही बनाती हैं.

इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि उनके समाज में पुरूष जितनी चाहे शादी कर सकता है. 

हम ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, असम, नागालैंड और भी कई राज्यों मसलन बिहार और यूपी के थारू जनजातियों की सामाजिक विविधता की चर्चा कर सकते हैं. लेकिन बात को संक्षेप में रखने के लिए यह कहा जा सकता है कि आदिवासी समुदायों में अन्य संगठित धर्मो को मानने वाले समुदायों से ब्याह-शादी या फिर तलाक या संबंध विच्छेद के नियमों में विविधता कहीं अधिक मिलती है.

उसी तरह से उत्तराधिकार या विरासत के मामले में भी यह विविधता मिलती है. इसलिए जब देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर बल दिया जा रहा है तो देश के कई राज्यों के दूर दराज के इलाकों में बसने वाले आदिवासी समुदायों कि प्रथाओं और परंपराओं को भी ध्यान में रखना होगा. 

देश में सभी नागरिकों को बराबरी के हक के सिद्धांत को भला कौन ग़लत बता सकता है. लेकिन जब इस सिद्धांत को देश में मौजूद सामाजिक-धार्मिक विविधता के संदर्भ में देखते हैं तो स्थिति बदल जाती है.

इसके अलावा यह भी ज़रूरी है कि देश में समान नागरिक संहिता पर चर्चा की नीयत सचमुच में क्या एक ज़रूरी मुद्दे पर लोगों की राय जानना है? शायद नहीं. इस पूरी बहस का एक सकारात्कम पहलू ये है कि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस बहस में पहली बार देश की उस 10 प्रतिशत आबादी ने अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है जो अक्सर देश की बहस से बाहर रहती है.

सत्ताधारी दल बीजेपी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के नेता से लेकर संसदीय स्थाई समिति में उनके बड़े नेताओं को यह कहना पड़ा है कि समान नागरिक संहिता पर अभी कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है. इसके अलावा यह भी कहा गया है कि समान नागरिक संहिता पर बहस में आदिवासी समुदायों की विविधता को ध्यान में रखा जाएगा. 

ऐसा लगता है कि आदिवासी विरोध के अंदेशा ही है जो बीजेपी ने कम से कम फिलहाल इस बहस में कदम पीछे खींचने शुरू कर दिये हैं. 

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