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तेलंगाना: बीजेपी के लिए दलित और आदिवासी विरोधी छवि मिटाना बड़ी चुनौती है

पार्टी के एक राज्य नेता के मुताबिक, भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को लगता है कि क्योंकि देशभर में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल 84 लोकसभा सीटों में से पिछले चुनाव के दौरान उसने 40 सीटें जीती थीं इसलिए पार्टी तेलंगाना में भी ऐसा ही कर सकती है. हालांकि, राज्य के नेता इससे बिल्कुल सहमत नहीं हैं.

भारतीय जनता पार्टी की दलित विरोधी और आदिवासी विरोधी छवि तेलंगाना विधानसभा चुनाव से पहले इन समुदायों को लुभाने में राज्य भाजपा इकाई के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है.

भाजपा दलित और आदिवासी वोटों को अपनी ओर करने और पार्टी को राज्य में पैर जमाने में मदद करने के लिए कई आउटरीच कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है. लेकिन ये एक मुश्किल काम साबित हो रहा है क्योंकि सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को तेलंगाना में मजबूत दलित और आदिवासी समर्थन प्राप्त है.

राज्य में 19 अनुसूचित जाति और 12 अनुसूचित जनजाति निर्वाचन क्षेत्र हैं और उनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटें, सत्तारूढ़ बीआरएस के पास हैं. वर्तमान में 17 अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटें बीआरएस के पास हैं और दो कांग्रेस के पास हैं. वहीं 12 अनुसूचित जनजाति की आरक्षित सीटों में से 7 बीआरएस के पास और पांच कांग्रेस के पास हैं.

पिछले चुनावों यानि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 6.98 प्रतिशत वोट शेयर के साथ सिर्फ एक विधानसभा सीट जीती थी. जबकि सत्तारूढ़ बीआरएस (तत्कालीन टीआरएस) ने 46.87 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 88 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को 28.43 प्रतिशत वोट शेयर मिला था.

ऐसे में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य इकाई को इन दोनों समुदायों यानि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया है. लेकिन पार्टी के स्थानीय नेता जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं वो इस बात से चिंतित हैं क्योंकि पार्टी का इन आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में कोई आधार नहीं है.

दरअसल, 2018 के विधानसभा चुनावों के दौरान सभी आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी.

पार्टी नेताओं का कहना है कि दलितों और आदिवासियों के समर्थन की कमी उन कारणों में से एक थी जिसके कारण भाजपा तेलंगाना में चुनाव नहीं जीत पाई. पार्टी की दलित और आदिवासी विरोधी छवि भी स्थानीय नेतृत्व के लिए इन दोनों समुदायों का समर्थन हासिल करने में दिक्कतें पैदा कर रही है.

इसके अलावा राज्य नेतृत्व को चिंतित कर रहा है वह यह है कि राज्य इकाई में मजबूत दलित और आदिवासी नेताओं की कमी है.

पार्टी के एक राज्य नेता के मुताबिक, भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को लगता है कि क्योंकि देशभर में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल 84 लोकसभा सीटों में से पिछले चुनाव के दौरान उसने 40 सीटें जीती थीं इसलिए पार्टी तेलंगाना में भी ऐसा ही कर सकती है. हालांकि, राज्य के नेता इससे बिल्कुल सहमत नहीं हैं.

वरिष्ठ नेता ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि पार्टी हिंदी पट्टी में दलितों का समर्थन पाने में सफल रही तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह तेलंगाना में भी ऐसा कर सकती है.”

प्रकाश जावड़ेकर को बनाया गया चुनाव प्रभारी

दक्षिण भारत में कर्नाटक की हार के बाद बीजेपी तेलंगाना को किसी भी कीमत पर हाथ से नहीं निकलने देना चाहती है. यहां पार्टी ने पूरा जोर लगा दिया है और यही वजह है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को चुनाव प्रभारी बनाया गया है.

महाराष्ट्र से ताल्लुक रखने वाले जावड़ेकर के पास सरकार चलाने से लेकर संगठन संभालने तक का अच्छा खासा अनुभव है. जावड़ेकर को जब 2019 में जब राजस्थान का चुनाव प्रभारी बनाया गया तो उस वक्त माना जा रहा था कि पार्टी 40 सीटों का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी. हालांकि बीजेपी सरकार बनाने लायक सीटें नहीं जीत पाईं लेकिन जितनी सीटें पार्टी ने जीतीं, उसकी उम्मीद पार्टी नेताओं ने भी नहीं की थी. इसके बाद लोकसभा चुनाव में भी राजस्थान के चुनाव प्रभारी बने तो 25 में से 25 सीटें पार्टी जीत गई.

इससे पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी चुनाव प्रभारी के रूप में काम करते हुए पार्टी महज 7 सीटों से ही सत्ता से दूर रही. इसके अलावा उन्हें आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जैसे राज्यों में जिम्मेदारी दी गई, जहां पार्टी ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया.

किशन रेड्डी हैं प्रदेश अध्यक्ष

तेलंगाना में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जीत दिलाना नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष जी किशन रेड्डी के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. लंबे समय से तेलंगाना में पांव पसारने के प्रयासों में जुटी बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी पर भरोसा जताया है और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी है.

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