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आदिवासियों पर समान नागरिक संहिता थोपना, संविधान में उनसे किये वादे को तोड़ देगा

पिछले कुछ वर्षों में राज्य ने आदिवासी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने में आदिवासी स्वायत्तता को दरकिनार किया जा रहा है. आदिवासी स्वायत्तता सिर्फ पारिवारिक और सामाजिक मामलों तक ही जीवित है. समान नागरिक संहिता उसे भी छीन लेगी.

समान नागरिक संहिता (Uniform civil code) पर जोर देते हुए बीजेपी अचानक सतर्क हो गई है. क्योंकि उसे आदिवासी क्षेत्रों में ख़तरे की घंटी सुनाई दे रही है. भारत के करीब 705 आदिवासी समुदायों में से प्रत्येक के पास विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत पर अपने प्रथागत कानून हैं. वे उन्हें पवित्र और अनुल्लंघनीय (जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता) मानते हैं.

बीजेपी उन्हें अपने आदिवासी कोड को छोड़ने और एक समान कोड को स्वीकार करने के लिए मजबूर करने में बड़ा जोखिम देख रही है. भाजपा अभी दो स्तर का जोखिम देख रही है, पहला राष्ट्रीय स्तर पर जोखिम क्योंकि इससे जातीय हिंसा और राष्ट्रीय एकता को झटका लग सकता है.

समान नगारिक संहिता आदिवासी समुदायों को क्यों स्वीकार नहीं होगी

दूसरा वो अपने लिए राजनीतिक जोखिम देख रहा है यानि की बीजेपी के इस कदम से आदिवासियों के बीच चुनावी आधार सिकुड़ जाएगा. बीजेपी ने आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण और डिलिस्टिंग के मुद्दे पर जो माहौल बनाया था, समान नगारिक संहिता की चर्चा ने उसे धो दिया है.

विपक्ष में एकजुटता

पूर्वोत्तर के कई क्षेत्रीय दल, सामुदायिक संगठन और धार्मिक समूह समान नागरिक संहिता के विरोध में उतर आए हैं. नागालैंड, मिजोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री इसके खिलाफ बोल चुके हैं. जबकि ये मुख्यमंत्री उन पार्टियों का नेतृत्व करते हैं जो भाजपा के सहयोगी हैं. इसके बावजूद उन्होंने इसके खिलाफ बोला है क्योंकि जिन जनजातियों का वे प्रतिनिधित्व करते हैं वे इसके विरोध में हैं.

नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने जुलाई की शुरुआत में अपने मंत्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली जाकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और अनुरोध किया कि समान नागरिक संहिता संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) का उल्लंघन होगा जो नागाओं के प्रथागत कानूनों और परंपराओं की सुरक्षा की गारंटी देता है.

आदिवासी प्रथागत नियमों पर देखिये ख़ास रिपोर्ट

बैठक से कुछ दिन पहले सीएम रियो की पार्टी, नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी ने नागाओं को आश्वासन दिया था कि “हम अपनी पहचान, रीति-रिवाजों, परंपराओं और अद्वितीय इतिहास की रक्षा और सुरक्षा के लिए दृढ़ हैं.”

इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है कि भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी, जो कानून पर संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं, ने सुझाव दिया है कि जनजातियों पर समान नागरिक संहिता लागू नहीं होनी चाहिए.

वहीं आदिवासियों के बीच काम करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन वनवासी कल्याण आश्रम ने भी सुशील मोदी के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि विधि आयोग को सरकार को कोई भी रिपोर्ट सौंपने से पहले “विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार जैसे विषयों पर आदिवासी समुदाय की पारंपरिक प्रणाली को गहराई से समझने के लिए” आदिवासी क्षेत्रों का दौरा करना चाहिए.

नागालैंड सरकार के सूत्रों के हवाले से एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि अमित शाह ने मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया था कि प्रस्तावित समान नागरिक संहिता से आदिवासी प्रभावित नहीं होंगे.

आदिवासी स्वायत्ता पर हमला नहीं होना चाहिए

आज़ाद भारत ने जनजातीय क्षेत्रों को विशेष शासन के क्षेत्रों के रूप में सीमांकित किया जहां भारतीय राज्य जनजातीय परिषदों (tribal councils) की स्वायत्तता का सम्मान करेगा. इसने जनजातियों को अपने जीवन के तरीके को संरक्षित करने और आगे बढ़ाने के लिए विशेषधिकार दिए.

वे पारिवारिक मामलों में अपने पारंपरिक कानूनों का पालन करने, आदिवासी ग्राम परिषदों के माध्यम से पारस्परिक विवादों को हल करने, जंगलों में भूमि का स्वामित्व और उपयोग करने, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और प्रबंधन करने आदि के लिए स्वतंत्र थे.

हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में राज्य ने आदिवासी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने में आदिवासी स्वायत्तता को दरकिनार किया जा रहा है. आदिवासी स्वायत्तता सिर्फ पारिवारिक और सामाजिक मामलों तक ही जीवित है. 

अगर जनजातियों को समान नागरिक संहिता का पालन करने के लिए मजबूर किया गया तो यह आदिवासी स्वायत्तता का जो प्रावधान संविधान में किये गये हैं, वे बेमतलब की कुछ लाइन रह जाएंगी.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी समुदायों में भी उत्तराधिकार और विरासत से जुड़े ऐसे मसले हैं जो सभी नागरिकों को बराबरी के हक़ के सिद्धांत को चुनौती देते हैं. मसलन पिता की संपत्ति में बेटी को अधिकार देने का मसला सुप्रीम कोर्ट को भी चिंतित कर चुका है.

इसके अलावा ज़्यादातर आदिवासी समूहों में चीफ़ या मुखिया की मौत के बाद पुत्र ही उसका वारिस हो सकता है. बेटी या पत्नी को यह अधिकार नहीं मिलता है.

आदिवासी समुदायों में महिलाओं के अधिकार

भारत आदिवासियों के ज़्यादातर कस्टमरी लॉ के मुताबिक बेटियों को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता है. मसलन झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा या फिर मध्य प्रदेश और गुजरात में संथाल, हो, मुंडा या भील आदिवासी समुदायों में बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता है.

उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी ज़्यादातर आदिवासी समुदायों के नियम ऐसे ही हैं. मसलन मिज़ो समुदाय के कस्टमरी लॉ के अनुसार सबसे छोटे बेटे को पिता की संपत्ति विरासत में मिलती है. बेटी को अपने पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मिलता है. अरुणाचल प्रदेश के गिलोंग और वांचो के बीच भी बेटों को पिता की संपत्ति मिलती है, बेटियों को नहीं. नागाओं में सबसे छोटे बेटे को पैतृक घर सहित संपत्ति का बड़ा हिस्सा विरासत में मिलता है.

भूमि जैसी अचल संपत्ति बेटों के बीच समान रूप से विभाजित की जाती है. लेकिन बेटियों को कुछ नहीं मिलता. पुत्र न होने पर भी उन्हें कुछ नहीं मिलता. संपत्ति करीबी पुरुष रिश्तेदारों जैसे पिता के भाई या उसके बेटों को जाती है.

त्रिपुरा के जमातिया और हलाम, ओडिशा के डोंगरिया-कंध और पौडी-भुइयां के बीच भी होता है. जनजातियों में एक पिता अपनी बेटी को उपहार के रूप में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा दे सकता है लेकिन ये भी बहुत मुश्किल होता है. किसी भी मामले में बेटी को यह दया के रूप में मिलता है अधिकार के रूप में नहीं.

शादी और तलाक के मामले में भी आदिवासी समुदायों के नियम पुरुषों के पक्ष में ज़्यादा झुके नज़र आते हैं. देश के ज़्यादातर आदिवासी कस्टमरी लॉ पुरूषों को बहुविवाह का अधिकार देते हैं. वैसे कुछ आदिवासी समुदायों में महिलाओं को भी यह अधिकार है. 

अक्सर जब महिला को तलाक दिया जाता है तो उनके भरण पोषण का इंतज़ाम का ध्यान नहीं रखा जाता है. 

पत्नियों को घर और ज़मीन दोनों जगह काम करना पड़ता है. लेकिन उन्हें न केवल संपत्ति के स्वामित्व और प्रबंधन से बल्कि परिवार, गांव और समुदाय में महत्वपूर्ण निर्णय लेने से भी बाहर रखा गया है. इसलिए इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है कि नागालैंड, मिजोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश की विधानसभाओं में एक महिला सदस्य मुश्किल ही है.

संक्षेप में अगर कहे तो जनजातियों पर समान नागरिक संहिता थोपना सनकपूर्ण और अत्याचारपूर्ण होगा. आदिवासियों को कम से कम अपने कस्टमरी लॉ के तहत न्युनतम स्वायत्तता बनाए रखने का अधिकार तो होना ही चाहिए. 

लेकिन आदिवासी समुदायों को महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए अपने प्रथागत कानूनों में सुधार के लिए उनके साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. कुछ राज्यों में आदिवासी समुदायों ने अपने कस्टमरी लॉ को कोडिफ़ाई करना शुरु किया है. 

कस्टमरी लॉ को कोडिफाई करने की प्रक्रिया में इन प्रथागत कानूनों में सुधार की गुंजाईश भी बन सकती है. 

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