HomeAdivasi Dailyआदिवासी बनाम वनवासी: राहुल गांधी की रणनीति गेम चेंजर हो सकती है

आदिवासी बनाम वनवासी: राहुल गांधी की रणनीति गेम चेंजर हो सकती है

राहुल गांधी ने जो आदिवासी बनाम वनवासी की जो बहस छेड़ी है उसमें आदिवासी भारत को जोड़ने की क्षमता है. यह बहस आदिवासी भारत में अलग अलग मुद्दों पर पैदा हुए विभाजन से ध्यान हटा कर बहस को आदिवासी पहचान और अधिकार पर लाने की क्षमता रखती है.

कांग्रेस के नेता और सांसद राहुल गांधी ने एक बार फिर से आदिवासी बनाम वनवासी का मुद्दा उठाया है. शनिवार को राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित किया.

इस सभा में उन्होंने कहा कि भाजपा चाहती है कि आदिवासी जंगलों में रहें लेकिन हम कहते हैं कि आपको जल-जंगल-जमीन का अधिकारी होना चाहिए और अपने सपनों को पूरा करने का भी अधिकार होना चाहिए.

उन्होंने कहा कि बीजेपी और कांग्रेस के बीच यही बुनियादी अंतर है.

राहुल गांधी ने कहा, ”आदिवासी का सही अर्थ इस देश के मूल निवासी हैं, जो मूल रूप से देश की भूमि, जल और जंगलों के मालिक हैं और उन पर पहला अधिकार रखते हैं. हालांकि, भारतीय जनता पार्टी ने आदिवासियों के लिए एक नया शब्द गढ़ा है – ‘वनवासी’. जिसका अर्थ है कि आदिवासियों को केवल जंगलों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए.”

पिछले महीने भी अपने निर्वाचन क्षेत्र वायनाड के दौरे के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा था कि आदिवासी लोगों को ‘वनवासी’ बताने में एक विकृत मानसिकता दिखती है. राहुल के मुताबिक यह शब्द आदिवासियों को जंगलों तक सीमित करता है.

राहुल गांधी ने केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर जनजातीय समुदायों को जंगलों तक सीमित करने की कोशिश करने और ‘आदिवासी’ की जगह ‘वनवासी’ कहकर उन्हें जमीन के मूल स्वामित्व के दर्जे से वंचित करने का आरोप लगाया.

14 अगस्त को वायनाड में आदिवासी लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने अपनी रैली में कहा, “वनवासी’ के पीछे का विचार यह है कि आप जंगल से हैं और आपको कभी जंगल नहीं छोड़ना चाहिए.”

गांधी ने कुछ दिन पहले राजस्थान में पार्टी की एक रैली को संबोधित करते हुए भी यही मामला उठाया था. उन्होंने राजस्थान में कहा था कि भाजपा जनजातीय समुदायों को आदिवासी की जगह ‘वनवासी’ कहकर उनका ‘अपमान’ करती है और उनकी वन भूमि छीनकर उद्योगपतियों को देती है.

राहुल गांधी ने कहा कि यह हमें स्वीकार्य नहीं है और हम इस शब्द को स्वीकार नहीं करते हैं. यह आपके इतिहास और आपकी परंपरा को ग़लत तरीके से पेश करता है. यह इस देश के साथ आपके रिश्ते पर हमला है.

गांधी ने कहा कि आदिवासी शब्द का अर्थ ‘‘एक विशेष ज्ञान, जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके पर्यावरण की समझ और ग्रह के साथ संबंध से’’ है.

राहुल ने कहा कि हम आपको आदिवासी कहते हैं और बीजेपी आपको वनवासी कहती है. बीजेपी आपको जंगल में रखना चाहती है. हम आपको देश का मालिक समझते हैं.

ज़ाहिर है राहुल गांधी के शब्द राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RRS) और बीजेपी को निशाना बना रहे थे. क्योंकि यही संगठन आदिवासियों के लिए ‘वनवासी’ शब्द का उपयोग करते हैं. लेकिन यह एक सालों पुरानी बहस को भी फिर से जन्म देता है कि कौन सा शब्द, ‘आदिवासी’ या ‘वनवासी’, भारत के आदिवासी लोगों का सबसे अच्छा वर्णन करता है?

‘आदिवासी’ का शाब्दिक अनुवाद ‘मूल निवासी’ है. यह शब्द संस्कृत के शब्द ‘आदि’ से आया है, जिसका अर्थ है प्रारंभिक काल या शुरुआत और ‘वासी’, जिसका अर्थ निवासी है.

लेकिन आरएसएस और उसकी शाखाएं, जैसे- वनवासी कल्याण आश्रम (Vanvasi Kalyan Ashram) ‘आदिवासी’ और ‘ट्राइबल’ शब्दों को अस्वीकार करते हैं.

वनवासी कल्याण आश्रम एक आरएसएस समर्थित आदिवासी कल्याण संगठन है जिसकी स्थापना 1952 में आरएसएस स्वयंसेवक रमाकांत केशव ने की थी. वीकेए के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख महेश काले के मुताबिक, ‘आदिवासी’ शब्द विभाजनकारी है.

महेश काले ने मीडिया को बताया, “आदिवासी शब्द का इस्तेमाल विभाजनकारी है क्योंकि इससे पता चलता है कि जो लोग ‘आदिवासी’ नहीं हैं यानी 12 करोड़ आदिवासियों को छोड़कर बाकी आबादी बाहर से आई है. यह आर्य आक्रमण सिद्धांत को मान्यता देता है.”

यह दिलचस्प है कि संविधान सभा में चर्चा के दौरान आदिवासियों के प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान में आदिवासी शब्द के प्रयोग की मांग की थी. वे उनके लिए ‘वनजाति’ (जंगल के निवासी) शब्द के प्रयोग के आलोचक थे.

जबकि संघ परिवार शुरू से ही आदिवासियों को वनवासी कहता रहा है. यहां तक कि सन् 1952 में उसने आदिवासियों के हिन्दूकरण के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की. सच यह है कि आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक हैं.

वनवासी कल्याण आश्रम अपने मूल संगठन, आरएसएस की तरह ‘आदिवासियों’ को एक औपनिवेशिक संरचना के रूप में और ‘आदिवासी’ को एक ऐसी अवधारणा के रूप में देखता है जो एकजुट भारत के उसके विचार के खिलाफ है.

आर्य आक्रमण सिद्धांत और ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग

आर्यन आक्रमण सिद्धांत, जो 19वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ था. इस सिद्धांत को स्थापित करने वाले इतिहासकार मानते हैं कि 3,000 से 4,000 साल पहले इंडो-यूरोपीय भाषी, जो खुद को आर्य कहते थे कई चरणों में भारत उपमहाद्वीप में आ गए और मूल निवासियों को विस्थापित करते हुए इसमें फैल गए.

अपनी किताब बंच ऑफ थॉट्स में, आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक (प्रमुख) एम.एस. गोलवलकर लिखते हैं: “हमारे लोगों की उत्पत्ति, वह तारीख जब से हम यहां एक सभ्य इकाई के रूप में रह रहे हैं, इतिहास के विद्वानों के लिए अज्ञात है. एक तरह से हम ‘अनादी’ हैं, जिसका कोई आरंभ नहीं है.”

यानि वे आर्यों के बाहर से आकर इस उपमहाद्वीप में बसने के तर्क को सिरे से ख़ारिज करते हैं.

वनवासी कल्याण आश्रम इस सिद्धांत का उपयोग ‘आदिवासी’ या यहां तक कि मूल निवासी शब्द के उपयोग के खिलाफ वकालत करने के लिए करता है. उनके मुताबिक, भारत के मूल निवासी वे सभी लोग हैं जो अपनी जड़ें भारत में खोज सकते हैं.

वीकेए के प्रचार प्रमुख काले ने कहते हैं, “यह आसान है. वनवासी कल्याण आश्रम का मानना है कि जो कोई भी भारत में रहता है वह इस भूमि का मूल निवासी या ‘आदिवासी’ है और वो कहीं और से नहीं आया है.”

उन्होंने कहा, “संयुक्त राष्ट्र विश्व के मूल निवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाता है लेकिन यह मूल रूप से उन लोगों के लिए है जो बाहरी लोगों द्वारा उपनिवेशित थे, जैसा कि अफ्रीका और अन्य स्थानों में हुआ था.”

उन्होंने दावा किया कि ऐसा भारत में नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि ‘वनवासी’ शब्द के बारे में गलत धारणाएं पैदा की गई हैं.

मध्य प्रदेश के दामोह के पूर्व जिला न्यायाधीश प्रकाश उइके ने भी वनवासी शब्द का बचाव किया है. वे वनवासी कल्याण आश्रम के सदस्य हैं. उनका कहना कि राहुल गांधी को “इन मामलों पर कोई समझ नहीं है.”

उइके ने कहा, “हमारी भारतीय परंपरा में लोगों की पहचान करने के लिए तीन प्रणालियाँ मौजूद हैं – नगरवासी (जो शहरों में रहते हैं), ग्रामवासी (जो गाँवों में रहते हैं) और वनवासी (वे जो जंगलों में रहते हैं). यहां तक कि जो लोग अनुसूचित जनजाति से नहीं हैं वे भी जंगलों में रहते हैं.”

शिक्षाविद बंटे हुए हैं

शिक्षाविद् इस विषय पर विभाजित दिखाई देते हैं. आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता और भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर (BRPC) बड़ौदा के संस्थापक जी.एन. डेवी कहते हैं कि आरएसएस द्वारा ‘वनवासी’ शब्द का इस्तेमाल उसके संस्कृत झुकाव को झुठलाता है.

2010 में डेवी के बीआरपीसी ने पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (PLSI) लॉन्च किया, जिसका उद्देश्य आज भारत में बोली जाने वाली भाषाओं का “दस्तावेजीकरण और संरक्षण” करना है.

बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर डेवी ने कहा, “आरएसएस की भाषा शुद्धतावाद की ओर झुकती है, जिसमें अधिक संस्कृत-आधारित शब्द शामिल हैं. जब आरएसएस ने आदिवासी कल्याण पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया तो उनका लक्ष्य खुद को पारंपरिक आदिवासी संगठनों से अलग करना था. इसलिए ‘वनवासी’ शब्द को अपनाया गया.”

उन्होंने कहा कि जब आरएसएस ने पहली बार इस शब्द का उपयोग करना शुरू किया तो यह “किसी विशिष्ट इरादे” के साथ नहीं था और “बिना किसी व्यापक विचार-विमर्श के” किया गया था.

डेवी ने कहा कि इसके बाद इसे उस अर्थ से भर दिया गया जिसे वे बताना चाहते थे. उन्होंने आगे कहा कि आदिवासी लोग खुद को ‘आदिवासी’ कहते हैं.

वो कहते हैं, “मेरे नजरिए से उनकी आवाज को सुनने और सम्मान देने के लिए समुदाय द्वारा पसंद की जाने वाली शब्दावली का उपयोग करना महत्वपूर्ण है.”

समाजशास्त्री और दिल्ली के इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (IHD) में विजिटिंग प्रोफेसर वर्जिनियस खाखा ने कहा कि ‘आदिवासी’ शब्द ने 1920 के दशक में ही प्रचलन में आना शुरू कर दिया था.

उन्होंने कहा कि ‘आदिवासी’ शब्द का इस्तेमाल 1920 के दशक के आसपास शुरू हुआ. जब वर्तमान झारखंड और उसके पड़ोसी क्षेत्रों के मूल निवासियों के बीच “नवोदित, छोटा और शिक्षित वर्ग” उभरना शुरू हुआ.

इस समूह ने बंगाल, मध्य प्रदेश और ओडिशा के निकटवर्ती आदिवासी इलाकों को मिलाकर एक अलग झारखंड राज्य की मांग करने के लिए खुद को आदिवासी महासभा नामक एक संगठन के रूप में संगठित किया.

लेकिन वे ‘वनवासी’ शब्द का उपयोग करने पर आपत्ति जताते हैं. एक ऐसा शब्द, जो उनके मुताबिक “जंगली और असभ्य” लोगों को दर्शाता है.

“यह एक सशक्त शब्द नहीं है. यह सिर्फ उनके वनवासी होने को संदर्भित करता है और इसलिए इससे जुड़ी सभी विशेषताएं जैसे कि जंगली, असभ्य आदि आती है.”

उन्होंने कहा कि ‘आदिवासी’ भूमि, क्षेत्र और जंगल पर उनके अधिकारों के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक बयान की एक अवधारणा है. अपनी विशिष्ट भाषाओं और संस्कृतियों वाले विभिन्न लोगों को किसी दी गई राजनीतिक व्यवस्था के भीतर जीवन का निर्धारण करने का अधिकार है.

लेकिन मानवविज्ञानी गीतिका रंजन का मानना है कि ‘वनवासी’ बनाम ‘आदिवासी’ का पूरा तर्क फर्जी है. उनके लिए यह सब शब्दार्थ है.

उन्होंने कहा कि मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से दोनों केवल ऐसे शब्द हैं जो एक विशिष्ट समूह को इंगित करते हैं. उनके साथ राजनीतिक अर्थ जोड़े गए हैं.

उन्होंने कहा कि जनजातियों पर चर्चा करते समय समूहों का उल्लेख उनके निवास स्थान और जीवन के पारंपरिक तरीकों के आधार पर किया जाता है. “आदिवासी” किसी स्थान के पुराने या मूल निवासियों को इंगित करता है, जो पीढ़ियों से उस भूमि से गहराई से जुड़े हुए हैं. यह शब्द उसी अवधारणा से उभरा है.

गीतिका रंजन ने कहा कि ये तटस्थ विवरण हैं जो इन समूहों को वैसे ही पहचानते हैं जैसे वे हैं. चाहे हम उन्हें ‘वनवासी’ कहें, जिसका अर्थ जंगलवासी है, या ‘आदिवासी’, यह वक्ता की मंशा पर निर्भर करता है.

RSS भी अब ‘वनवासी’ शब्द से दूरी बना रहा है

लेकिन जैसे-जैसे बहस बढ़ती जा रही है, ‘वनवासी’ शब्द की बढ़ती आलोचना ने आरएसएस के एक वर्ग और उसकी शाखाओं को इससे पूरी तरह दूर कर दिया है. वीकेए के प्रचार अधिकारी काले स्वीकार करते हैं कि संगठन ‘जनजाति’ शब्द का उपयोग करना पसंद करता है.

उन्होंने कहा, “यह सच है कि इस शब्द को लेकर विवाद रहे हैं और हम समुदायों के लिए किसी भी शब्द के इस्तेमाल के मामले में उदार हैं. हालांकि, इसके पीछे (जनजाति का उपयोग करके) कोई रणनीति नहीं है. यह एक छोटा और सुविधाजनक रूप है जिसका हम उपयोग करते हैं. इस पर कोई नीति नहीं है कि किस शब्द का उपयोग किया जाना है या किसका नहीं.”

उन्होंने इसके खिलाफ अपनी पिछली दलीलों के बावजूद यह भी कहा कि ‘आदिवासी’ शब्द का इस्तेमाल करने में कुछ भी गलत नहीं है. हालांकि, उन्होंने कहा कि हम मानते हैं कि इन शब्दों के अलग-अलग अर्थ हैं.

भाजपा के एसटी मोर्चा प्रमुख और राज्यसभा सांसद समीर ओरांव ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि हालांकि ‘आदिवासी’ ‘वनवासी’ की तुलना में एक नया शब्द है लेकिन दोनों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

उन्होंने कहा कि यह आदिवासी शब्द है जिसके औपनिवेशिक अर्थ हैं. यह समुदायों को ‘गैर-सांस्कृतिक’ के रूप में परिभाषित करता है. ‘वनवासी’ केवल एक शब्द है जिसका अर्थ है ‘वे लोग जो जंगलों में रहते थे’. यह कैसे विभाजनकारी है? राहुल गांधी को हमारी सभ्यता की संस्कृति और परंपरा की कोई समझ नहीं है.

राहुल गांधी की रणनीति में दम

राहुल गांधी ने आदिवासी बनाम वनवासी की जो बहस छेड़ी है वह एक तीर से कई शिकार करने की क्षमता रखती है. यह बहस आदिवासी इलाकों में विभाजनकारी मुद्दों से ध्यान हटा कर आदिवासियों को जोड़ने की क्षमता रखती है.

आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण और डिलिस्टिंग (धर्मांतिरत आदिवासियों के आरक्षण ख़त्म करने की मांग) जैसे मुद्दों को लगातार हवा दी गई है. इसके अलावा जिस तर्ज़ पर मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज में लव जिहाद जैसे मुद्दों को उछाल कर ध्रुवीकरण पैदा किया जा रहा है, उसी तरह से अब आदिवासी भारत में भी इस तरह के मुद्दे उछाले जा रहे हैं.

इन हालातों में आदिवासी बनाम वनवासी की बहस उन संगठनों को बैकफुट पर धकलती है जो भावनात्कम मुद्दों पर आदिवासी समुदायों में गोलबंदी की कोशिश कर रहे हैं. ‘आदिवासी’ शब्द आज जनजातीय समुदायों में गर्व का प्रतीक बन गया है.

ख़ासतौर से जनजातीय समुदायों के नौजवान इस शब्द में अपनी पहचान और इतिहास के साथ साथ अधिकार देखते हैं.

2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव हारने के बाद बीजेपी को आदिवासी भारत में खिसकती अपनी ज़मीन का अहसास हो गया था. इसलिए उसने आदिवासी भारत को फोकस कर एक विस्तृत योजना के तहत प्रचार किया है.

लेकिन राहुल गांधी की यह बहस कांग्रेस पार्टी के लिए यह अवसर पैदा करती है कि वह 2018 में बीजेपी से छीनी अपनी परंपरागत ज़मीन को बचा कर रख सके, बशर्ते उनकी राज्य इकाई उनकी इस कोशिश पर अमल करें.

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