HomeIdentity & Lifeबाली पर्व या जगार: भीमा देव से जुड़ा बस्तर का आदिवासी त्योहार 

बाली पर्व या जगार: भीमा देव से जुड़ा बस्तर का आदिवासी त्योहार 

यह त्योहार तीन महीने तक लगातर चलता रहता है. त्योहार के दौरान हर दिन गाना-बजाना होता है और इसमें किसी भी प्रकार की रूकावट नहीं होती.

बस्तर का बाली परब छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के प्रमुख त्योहारों में से एक है. इस त्योहार को मुख्य रूप से बस्तर संभाग के उतर और पूर्वी भाग में मनाया जाता है. 

बाली परब को जगार भी कहते है. इस त्योहार को मनाने का कोई विशेष दिन या महीना नहीं होता. आदिवासी मिलकर अपनी सुविधा अनुसार त्योहार की तारीख तय करते हैं. क्योंकि यह त्योहार एक या दो दिन तक नहीं बल्कि महीनों तक चलता है.

महीनों तक चलने वाले बाली परब का एक दिन भी ऐसा नहीं होता, जिसमें गाना-बजाना, नाच-गाना या मनोरंजन ना हो. 

खाने-पीने से लेकर त्योहार से संबंधित संचालन के सभी कार्य आदिवासी खुद ही करते है.

तारीख तय करना

त्योहार को मनाने के लिए गाँव में सबसे पहले सभी आदिवासी मिलकर बैठक रखते है. बैठक के दौरान तारीख के साथ यह भी तय किया जाता है की गाँव के किस समुदाय से कितनी आर्थिक मदद ली जाए.

क्योंकि त्योहार में खाने-पीने से लेकर गाना-बज़ाने वाले तक को पैसे देने पड़ते है. जिसमें काफी ज्यादा खर्चा हो जाता है. इसलिए त्योहार को मनाने के लिए गाँव के सभी परिवार आर्थिक मदद करते है.

किस परिवार के सदस्य को कितने पैसे देने है. वो उनके पास मौजूद भूमि के हिसाब से तय किया जाता है.

बैठक में जो भी मूल्य तय होता है. उसके अनुसार ही गाँव का प्रत्येक आदिवासी अपने तरफ से आर्थिक सहायता देता है. 

त्योहार स्थल

बालीपरब भीमादेव से जुड़ा हुआ है. इसलिए त्योहार का आयोजन भीमादेव के स्थल पर ही किया जाता है. भीमादेव के इस स्थान से एक बड़ा हिस्सा चुना जाता है और उसमें फिर साफ-सफाई का काम होता है.  

फिर त्योहार को मनाने के लिए एक बड़ा माटी का छापर बनाया जाता है. इस छापर में बैठक कक्ष, नृत्य कक्ष, रसोई और शयन कक्ष का निमार्ण किया जाता है. ताकि त्योहार से संबंधित कार्यो का परिचालन करने में कोई दिक्कत ना हो.

त्योहार की शुरूआत

सबसे पहले त्योहार स्थल को गोबर से लीप कर पवित्र किया जाता है. लीपने के बाद आयोजन स्थल के मण्डप के बीचों-बीच सेमल के वृक्ष को खंभे की तरह स्थापित किया जाता है. 

इसके बाद खंभे के चारों ओर मिट्टी का चबूतरा तैयार किया जाता है और चबूतरे के ऊपर एक कलश पर दीपक रखा जाता है. ये दीपक निरंतर जलता रहता है.

वहीं चबूतरे के पास धान, गेहूं, माड़िया आदि अनाज बोये जाते है. यह धीरे-धीरे सुंदर पौधे बन जाते है, जो आयोजन स्थल की शोभा को और भी बढा देते हैं.

त्योहार के दौरान अलग अलग गाँव से वो युवा-युवती आते है. जिन पर देवी-देवता आरूढ़ हो.

अलग-अलग गाँव से युवा-युवतियां, देवी-देवता के रूप में आते है. उसी दौरान गाँव के प्रमुख देवी सिरहा पर आरूढ़ होती है. 

फिर आदिवासियों के आग्रह के बाद सिरहा सच्चे देवी-देवता का चयन करता है और उन नकली देवी-देवता को देव स्थल से भागा दिया जाता है.

15 दिन बाद, इन सभी देवी-देवता को आसपास के गाँव घूमाएं जाते है. गाँव घूमते वक्त इन्हें भेंट में लोग अनाज और अन्य चीज़े चढ़ाते है. 

भेंट में दिए गए इस अनाज में से कुछ अनाज लेकर ज़मीन पर बो दिए जाते है और उसमें हल्दी के पानी का छिड़काव किया जाता है.

हल्दी के इस पानी से पेड़ों का रंग और भी सुंदर हो जाता है. भेंट में दिए अनाज को बोने से जो पौधे उगते हैं, उन्हें ही आदिवासी बाली कहते है.

त्योहार के दौरान प्रतिदिन नियमित रूप से पूजा होती है और सभी देवी-देवता आपपास में नाच-गाना करते है.

इस त्योहार का सबसे आकर्षण भाग रैला और कोदानी नामक देवियों से भीमा देव का विवाह है.

बाली परब में जो भी युवक-युवतिओं पर देवी-देवता आरूढ़ होते है, उन्हें प्रतिदिन सुबह 8 बजे से 12 बजे तक और दोपहर 4 बजे से 6 बजे तक मण्डप पर बने चबुतरे के ऊपर चढ़कर नाचना होता है.

त्योहार का समापन बाली मेला से किया जाता है. मेले का आयोजन गाँव के बाहर किया जाता है. सभी आदिवासी खाने-पीने की सामाग्री लेकर मेला स्थल पर पहुंचते है और रात वहीं बिताते है.

त्योहार की शुरूआत में जो मण्डप पर पौधे उगाए गए थे. उन्हें उखाड़ कर मेला स्थल पर बिखेर दिया जाता है. जिसे आदिवासी देवी-देवता का प्रसाद मानकर अपने पास रखते हैं.

दो माह में उपयोग हुए पूजा सामाग्री को नदी में विसर्जित किया जाता है. इसके अलावा अंत देवी-देवताओं को जानवरों की बलि और शराब चढ़ाई जाती है.

गाँव के मुख्य लोग लड़के-लड़कियों (जिन पर देवी आरूढ़ थे), पुजारी, पटेल और गायक को उनके घर छोड़ने आते है.

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