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आदिवासी सबसे अधिक सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं – नैशनल फ़ैमली हैल्थ सर्वे

विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आदिवासी लोगों को बीमारियों की तिगुनी मार झेलनी पड़ती है. साथ ही आदिवासियों के स्वास्थ्य के बारे में विश्वसनीय आंकड़ों का न होना मुश्किल को और बढ़ा देता है. समिति ने यह भी पाया कि आदिवासी समुदाय संचारी रोगों से ज़्यादा ग्रस्त होते हैं – इनमें टीबी और मलेरिया शामिल हैं.

जब अधिकार, मान्यता और राज्य के समर्थन की बात आती है तो आदिवासी सबसे उपेक्षित समुदायों में से हैं. नैशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 भारत में आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य को लेकर कुछ गंभीर आंकड़े सामने लाता है. इस रिपोर्ट के अनुसार:

• आदिवासियों में मृत्यु दर (प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 57 मौतें) अन्य पिछड़े वर्गों (प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 39 मौतें) की तुलना में काफी ज़्यादा है

• आदिवासी महिलाओं की किसी कुशल स्वास्थ्यकर्मी से प्रसवपूर्व देखभाल प्राप्त करने की संभावना कम है (ऊपरी जातियों के 86% की तुलना में 73%)

• आदिवासी महिलाओं के प्रसव के लिए स्वास्थ्य केंद्र में जाने की संभावना भी कम है (ऊंची जातियों के 83% की तुलना में सिर्फ़ 68%)

आदिवासियों तक स्वास्थ्य सेवाओं के पहुंचने में सबसे बड़ी अड़चन है दवाओं और स्वास्थ्य कर्मियों की अनुपलब्धता, महिला स्वास्थ्य कर्मियों की अनुपस्थिति, स्वास्थ्य सुविधाओं की दूरी और परिवहन की कमी. 76.7% आदिवासियों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँचने में कम से कम इनमें से एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता है. नीति निर्माताओं ने यह मानने के बावजूद कि आदिवासी स्वास्थ्य सेवा के लिए कोई व्यापक नीति नहीं बनी है, कोई समाधान अभी भी नहीं निकाला गया है.

2018 में चार साल के शोध के बाद दो मंत्रालयों – स्वास्थ्य मंत्रालय और जनजातीय मामलों का मंत्रालय – द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आदिवासी लोगों को बीमारियों की तिगुनी मार झेलनी पड़ती है. साथ ही आदिवासियों के स्वास्थ्य के बारे में विश्वसनीय आंकड़ों का न होना मुश्किल को और बढ़ा देता है. समिति ने यह भी पाया कि आदिवासी समुदाय संचारी रोगों से ज़्यादा ग्रस्त होते हैं – इनमें टीबी और मलेरिया शामिल हैं.

आदिवासियों में कुपोषण सबसे अधिक पाया गया है

देश में होने वाले मलेरिया के कुल मामलों में 30 प्रतिशत आदिवासियों के बीच होते हैं, और उन्हीं के खाते में मलेरिया की वजह से होने वाली 50 प्रतिशत मौतें भी हैं. चिंताजनक बात यह भी है कि आदिवासी समुदायों में मलेरिया से मृत्यु दर प्रति एक लाख में 703 है, जबकि राष्ट्रीय औसत 256 है.

आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्वास्थ्य कर्मियों की कमी को दूर करने के लिए, रिपोर्ट ने सुझाया है कि स्थानीय लोगों, विशेष रूप से आदिवासी युवाओं को इस काम के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि उन इलाक़ो में जहां स्वास्थ्य प्रणालियों पर भरोसा कम किया जाता है, यह आदिवासी युवा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें.

आधुनिक स्वास्थ्य प्रणालियों पर भरोसे की कमी आदिवासी समुदायों के लिए एक बड़ी समस्या है. मिसाल के तौर पर 2013 में केरल के पलक्काड ज़िले के अट्टपाड़ी क्षेत्र में 50 से अधिक शिशुओं की मौत हो गई. इस घटना ने यहां रहने वाली आदिवासी आबादी के स्वास्थ्य पर रोशनी डाली. कुपोषण से लेकर शिशु मृत्यु दर तक कई स्वास्थ्य मुद्दों की पहचान की गई, और केंद्र और राज्य सरकारों ने इन समुदायों को स्वास्थ्य और संबंधित सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय पैकेज घोषित किए.

सात साल बाद, 2020 में, एक नए अध्ययन ने पाया कि मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं का आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा है. स्वास्थ्य सेवा की पहुंच ख़राब है, और शिशु मृत्यु दर अभी भी ज़्यादा.

दुनिया भर में आदिवासी समुदायों की लाइफ़ एक्स्पेक्टेंसी, शिशु मृत्यु दर और पोषण के मायने काफ़ी ख़राब हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता स्थिति को और ख़राब करती है. संयुक्त राष्ट्र ने यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (यूएचसी) को सतत विकास लक्ष्यों में से एक माना है. इसके लिए नि: शुल्क स्वास्थ्य कवरेज को एक बड़ा पैमाना माना गया है. लेकिन सच्चाई यह है कि आदिवासियों की संस्कृति और मान्यताएं इस लक्ष्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

अट्टपाड़ी के 192 गांवों में किए गए शोध से पता चला है कि आदिवासी समुदाय स्वास्थ्य को अपने पर्यावरण, सांस्कृतिक मान्यताओं और पारंपरिक खाद्य पदार्थों से जोड़कर देखते हैं. लेकिन इनमें से कई प्रथाओं को आधुनिक स्वास्थ्य प्रणाली नहीं मानती है, मसलन रोग को ठीक करने में औषधीय पौधों का उपयोग.

विशिष्ट स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अनुपालन के लिए मजबूर किया जाना भी इन आदिवासियों को नहीं भाता. आमतौर पर इन कार्यक्रमों के लिए आदिवासियों को शहरों तक जाना पड़ता है, जो कि उनके लिए हमेशा संभव नहीं है.

इन वजहों से आदिवासियों का डॉक्टरों और आधुनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली दोनों पर विश्वास कम हो जाता है. यही कारण है कि आदिवासी मुफ्त स्वास्थ्य योजनाओं के बारे में जानते तो हैं, लेकिन हाशिए पर होने की वजह से और अपनी संस्कृति के साथ एकीकरण की कमी से उन तक पहुंचने में संकोच करते हैं. 

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