मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) की राजधानी भोपाल से 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित दामोह (Damoh) में 20 गोंड आदिवासियों द्वारा एक बैठक रखी गई. ये आदिवासी सादियों से यहां रहते आए हैं.
खानपान से लेकर रहन-सहन तक गोंड आदिवासियों का जीवन जंगलों पर निर्भर है. लेकिन अब आलाम ये है की इन्हें अपनी ज़मीन छीन जाने का डर सता रहा है
दरअसल चार साल पहले ही एक सरकारी वेबसाइट वनमित्र में ये आदिवासी अस्वीकृत वन भूमि का दावा कर चुके है. लेकिन अभी तक कोई भी अपडेट इन्हें नहीं मिली है.
राज्य के मुख्यमंत्री रहे और कांग्रेस के नेता कमल नाथ द्वारा अक्टूबर 2019 को वनमित्र मोबाइल ऐप ओर वेब पोर्टल को लॉन्च किया गया था. इसका उद्देश्य था की आदिवासियों की अस्वीकृत भूमि दावें की कानूनी स्तर पर फिर से समीक्षा करें.
इस पोर्टल के लॉन्च से पहले राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह सूचना दी थी की 5 लाख 79 हज़ार 411 भूमि दावों में से लगभग 60 प्रतिशत दावों को अस्वीकृति मिली है. जिसके बाद कोर्ट ने यह आदेश दिया की इन दावों की पुन: समीक्षा की जाए.
वन अधिकार अधिनियम
यह दावे वन अधिकार अधिनियम के तहत किए जाते है. वन अधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजाति और अन्य पांरपरिक वन निवासियों (ओटीएफडी) को ज़मीनी अधिकार देने की बात करता है.
इस अधिनियम के अंतर्गत आदिवासियों को व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का प्रावधान है. बस शर्त ये है की 13 दिसंबर 2005 से पहले वन भूमि पर खेती या अन्य तरह से काबिज होना चाहिए.
हालांकि ये अधिनियम आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर मालिकाना अधिकार नहीं देता है.
वनमित्र के आने के बाद से ये अनुमान लगाया जा रहा था की भूमि दावे के इस प्रोसेस पर पारदर्शीता आएगी. लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरित.
मध्य प्रदेश वन अधिकार अस्वीकृति रिपोर्ट के अंतर्गत की गई स्टडी ये बताती है की वनमित्र आने के बाद जुलाई 2021 में अस्वीकृति रेट 74 प्रतिशत तक बढ़ा है.
इस रिपोर्ट में ये भी पाया गया की वनमित्र पोर्टल आने के बाद मध्य प्रदेश के 30 ज़िलों में रहने वाले आदिवासियों द्वारा किए गए भूमि दावे में अस्वीकृती दर 70.3 प्रतिशत से बढ़कर 98.86 प्रतिशत हो गई है. इन सभी ज़िलों में 20 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी रहते है.
वहीं दामोह (जहां 13 प्रतिशत आदिवासी रहते है) वहां अस्वीकृती दर 92.73 प्रतिशत है. स्वप्निल शुक्ला और शिवांक झांजी द्वारा किए गए इस रिपोर्ट में जो आंकड़े दिए गए है. वो सीधे सीधे सरकारी वनमित्र पोर्टल की असफलता की ओर संदेह करते हैं.
वनमित्र वेबसाइट की असफलता के कई कारण है.
जानकारी की कमी
वनमित्र को वेब पोर्टल और ऐप दोनों में लॉन्च किया गया था. लेकिन इसके ऐप को किसी भी एंड्रॉइड मोबाइल में डाउनलोड नहीं किया जा सकता.
इसका एक कारण ये भी हो सकता है की आदिवासियों के पास एंड्रॉइड मोबाइल और इंटरनेट दोनों की उपलब्धा बेहद कम मौजूद है.
राज्य के बॉडर पर उपस्थित कोसमाडा गांव में घने जंगल मौजूद है. यहां लगभग 31 आदिवासियों ने भूमि दावा किया है. लेकिन 2020 में इसमें से केवल एक को ही भूमि दावे पर स्वीकृति मिली है. बाकी आदिवासियों को अपने दावे के बारे में कोई भी अपडेट नहीं मिला है और न ही इनके पास अपने वनमित्र अकाउंट की कोई जानकारी मौजूद है.
ये आदिवासियों द्वारा खुद से दावे नहीं किए गए थे. दरअसल 2019 में राज्य सरकार द्वारा कीओस्क (kiosks) स्थापित किया गया था. ये एक तरह का साइबर कैफे है. जिसके द्वारा ही सभी आदिवासियों ने दावे किए.
कोसमाडा के 48 वर्षीय ज्ञानी सिंह गोंड बताते है की गाँव के दो व्यक्तियों द्वारा ग्रामीणों के लिए फॉर्म भरे गए थे. हम में से किसी को इस प्रक्रिया के बारे में ज्यादा कोई जानकारी नहीं है. फॉर्म भरने के लिए भी हमें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.
ऐसी कई कहानियां राज्य के अन्य ज़िलों की भी है.
ज्ञानी सिंह द्वारा ये भी बताया गया की काफी समय से यह पोर्टल काम नहीं कर रहा है. वेबसाइट को खोलने पर यहीं सामने आता है “पोर्टल पर अभी काम किया जा रहा है. बाद में चेक करे ”
सरकार द्वारा कीओस्क (साइबर कैफे) के मालिक बताते है की 2020 से ही उनके पास कोई भी व्यक्ति वेबसाइट से संबंधित कार्य के लिए नहीं आया है.
वहीं सरकारी कर्मचारी मीना बताती है की यह पोर्टल अस्वीकृत दावों पर सक्षीमा के लिए बनाया गया था. और जो भी असवीकृत सक्षीमा के दावे ऑफलाइन किए गए. उन्हें फिर से ऑनलाइन भी किया. जिसकी वजह से काफी गड़बड़ी हुई.
इसके अलावा एक अन्य सरकारी कर्मचारी दूबे ने बताया की वनमित्र की स्थापना के वक्त काफी गलत जानकारियां देकर आदिवासियों को गुमराह किया गया था.
इतना ही नहीं गाँव के ग्राम पंचायत वन गार्ड सहित इस वेबसाइट पर नियंत्रित करते हैं. जबकि उन्हें सिर्फ देखने के लिए निर्देश दिए गए थे.
दावे की समीक्षा वन अधिकार अधिनियम के अतंर्गत की जाती है. जिसके अंतर्गत ही एफआरसी संगठन की स्थापना की गई है.
इसमें 10 से 15 लोगों को शामिल किया जाता है. इनमें से ग्राम सभा और कुछ अन्य महिलाएं भी जुड़ी हुई होती है.
एफआरसी लेवल पर वही फैसला कर पाता है जिसके पास लॉगिन क्रेडेंशियल मौजूद हो. ये ज्यादातर ग्राम पंचायत के पास ही होते है.
अस्वीकृत दावे की समीक्षा के लिए पहले उसे एफआरसी लेवल पर भेजा जाता है. उसके बाद इसकी समीक्षा एसडीएलसी और फिर डीएलसी लेवल पर होती है.
लेकिन शुरूआती लेवल पर ग्राम पंचायत को अधिकार देने से इसमे काफी दिक्कतें आती है. जिसकी वज़ह से ही एफआरसी लेवल पर ही अस्वीकृत रेट 70 प्रतिशत तक है.
वन अधिकार अधिनियम की शुरूआत इसलिए की गई थी ताकि आदिवासियों को उनका अधिकार मिल सके. लेकिन अब इसी अधिनियम के अतंर्गत तकनीकि और अन्य कारणों से उन्हें हक नहीं मिल रहा है.