पिछले बुधवार को मुंबई हाईकोर्ट ने आदिवासियों को मिलने वाले मुआवज़े में 10 प्रतिशत कटौती के एक सरकारी आदेश को निरस्त कर दिया. यह आदेश जुलाई 2010 में जारी किया गया था. इस आदेश के अनुसार सरकार ने जो ज़मीन आदिवासियों को अलॉट की थी उसके अधिग्रहण के मुआवज़े के संबंध में जारी किया गया था.
क़रीब 12 साल पहले जारी किये गए इस आदेश को निरस्त करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि सरकार के पास इस आदेश को जारी करने का अधिकार किसी भी क़ानून के तहत नहीं है. हाईकोर्ट ने कहा कि जब किसी आदिवासी की ज़मीन अनिवार्य रूप से अधिग्रहित की जाती है तो उसके पास ज़मीन देने के अलावा कोई चारा नहीं होता है.
हाईकोर्ट में कई आदिवासियों की याचिका पर सुनवाई हो रही थी. इन आदिवासियों ने अदालत को बताया कि उनकी ज़मीन अधिग्रहित कर ली गई. उसके बाद मुआवज़ा देते समय सरकार ने कुल रक़म का 10 प्रतिशत काट कर पैसा चुकाया.
सरकार की तरफ़ से कोर्ट को बताया गया कि जिस ज़मीन पर आदिवासियों को क़ब्ज़ा दिया गया वो श्रेणी – 2 की ज़मीन है. इस मामले में सरकार ने यह शर्त रखी थी कि अगर आदिवासी किसान खेती की इस ज़मीन को बेचते हैं तो आधा हिस्सा सरकार को देना होगा.
सरकार की तरफ़ दलील दी गई कि क्योंकि आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान में विशेष प्रावधान हैं, इसलिए सरकार ने इस मामले में सोच समझ कर सिर्फ़ 10 प्रतिशत पैसा ही काटा है. सरकार ने यह फ़ैसला लेते समय आदिवासियों की आर्थिक स्थिति का भी ध्यान रखा था.
हालाँकि कोर्ट सरकार की इस दलील से प्रभावित नहीं था. कोर्ट ने कहा कि सरकार ने जब आदिवासियों की ज़मीन ज़रूरी सरकारी काम के लिए अधिग्रहित की थी, उस समय आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन नहीं देने का विकल्प तो था ही नहीं.
इसलिए सरकार का यह तर्क टिकता नहीं है. कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 या फिर किसी और क़ानून के तहत महाराष्ट्र सरकार को यह हक़ नहीं है कि वो मुआवज़े की राशी में कोई कटौती करे.
अदालत ने कहा कि आदिवासियों को जो ज़मीन दी गई थी उसकी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी. इसलिए आदिवासियों की ज़मीन के अधिग्रहण के मामले में सरकार बिना किसी क़ानूनी प्रावधान के पैसा नहीं काट सकती है.
कोर्ट ने कहा कि जब सरकार ने आदिवासियों की ज़मीन अधिग्रहित करने का फ़ैसला किया तो आदिवासियों को ज़मीन पर अपने सारे अधिकार छोड़ने पड़े.