कोविड-19 महामारी के दौरान जुलाई और सितंबर 2020 के बीच वेतन, सुरक्षा, और अन्य संदर्भों में डीनोटिफ़ाइड जनजातियों के श्रमिकों की स्थिति और भी बिगड़ गई. नेशनल एलायंस ग्रुप फ़ॉर डीनोटिफ़ाइड, सेमी-नोमैडिक एंड नोमैडिक ट्राइब्स (National Alliance Group for Denotified, Semi-Nomadic and Nomadic tribes), और PRAXIS द्वारा जुटाए गए डाटा से यह पता चला है.
इन संस्थाओं ने 471 श्रमिकों से बात की. इनमें से 32 प्रतिशत ने कहा कि महामारी के दौरान उनके वेतन में कटौती हुई है, जबकि 29 प्रतिशत ने कहा कि उनकी नौकरियों की सुरक्षा कम हुई है, और 30 प्रतिशत ने बताया कि उनके काम करने की परिस्थितियां बिगड़ी हैं. इन 471 मज़दूरों में से 96 में मध्य प्रदेश से थे, और 85 तमिलनाडु से. इसके अलावा बिहार, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मणिपुर, ओडिशा, और उत्तराखंड के मज़दूरों से भी बात की गई थी.
डीनोटिफ़ाइड जनजातियों के बच्चों की शिक्षा पर भी महामारी का बुरा असर पड़ा. कोविड के चलते जुलाई से सितंबर के बीच इन बच्चों की शिक्षा तक पहुंच काफ़ी कम हो गई. तमिलनाडु, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, और तेलंगाना के 217 स्थानों में किए गए सर्वेक्षण में सामने आया है कि इन जनजातियों के 69 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चों की ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच नहीं थी, और 61 प्रतिशत स्थानों पर बच्चों को ऑफ़लाइन शिक्षा भी नसीब नहीं हुई.
राशन की बात करें तो 20 से अधिक स्थानों पर लोगों को जुलाई से सितंबर के बीच कोई अतिरिक्त राशन नहीं मिला.
2008 में प्रस्तुत रेनके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 23 प्रतिशत डीनोटिफ़ाइड समुदायों के परिवार कर्ज में डूबे थे, जबकि 23 प्रतिशत के पास बीपीएल राशन कार्ड था. इस रिपोर्ट में दोहराया गया था कि डीनोटिफ़ाइड जनजातियों के लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे ज़्यादा पिछड़े हैं.
डीनोटिफ़ाइड ट्राइब क्यों कहा जाता है और ये कौन हैं
ब्रिटिश ज़माने में कई समुदायों को अपराधी प्रवृति के लोगों के तौर पर चिन्हित किया जाता था. इतना ही नहीं बल्कि इन समुदायों को बाक़यादा क़ानूनी नोटिफिकेशन के तहत अपराधी समुदाय के तौर पर क्लासिफ़ाई किया गया था. 1871 में बने इस क़ानून के तहत जिस समुदाय को नोटिफ़ाइड ट्राइब की श्रेणी में रखा जाता था, उस समुदाय के हर व्यक्ति को स्थानीय मजिस्ट्रेट के कार्यालय में अपना नाम और पूरी जानकारी दर्ज करानी पड़ती थी. 1952 में भारत सरकार ने इस क़ानून को ख़त्म कर दिया. उसके बाद से इन समुदायों को डीनोटिफ़ाइड ट्राइब्स कहा जाने लगा है.
अफ़सोस की बात यह है कि ये समुदाय बेशक क़ानूनी तौर पर इस दाग़ से मुक्त हो गए हैं, लेकिन समाज में अभी भी उनकी छवि और उनके बारे में समाज की धारणा बदली नहीं है.