राजस्थान का बांसवाड़ा जिला आदिवासी बहुल क्षेत्र है. इस पूरे क्षेत्र में 57 लाख जनसंख्या मौजूद है. जिसमें से 70 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. इसलिए राजनीतिक और चुनावी नज़रीय से बांसवाड़ा राज्य का महत्वपूर्ण ज़िला बन जाता है. ये पूरा ही क्षेत्र टीएसपी (ट्राइबल सब ऐरिया प्लैन ) के अंतर्गत आता है.
टीएसपी उन क्षेत्रों को कहा जाता है. जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी आबादी रहती हो और केंद्र सरकार से इन इलाकों के विकास के लिए वित्तीय प्रावधान किये जाते हैं.
इसके अलावा राज्य के डंगूरपुर, उदयपुर, सिरोही, प्रतापगढ़, राजसमंद, चितौड़ इत्यादि ज़िले भी टीएसपी के अंतर्गत आते हैं.
लेकिन डंगूरपुर के अलावा बांसवाड़ा ही ऐसा ज़िला है जिसे आदिवासियों के लिए ही पहचाना जाता है. इस ज़िले में कुल 5 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है.
पिछले चुनाव में क्रांग्रेस और बीजेपी दोनों के बीच ही बराबरी का मुकाबला रहा था. वहीं इन पांच सीटों में से एक सीट पर इंडिपेंडेंट ने भी बाजी मारी थी. 2018 के इस बांसवाड़ा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच बराबरी का मुकाबला रहा. लेकिन बांसवाड़ा में अब राजनीतिक परिस्थिति बदलती नज़र आ रही है.
दक्षिण राजस्थान के मुख्यत: आदिवासी इलाकों में भारत आदिवासी पार्टी (BAP) अपना दबदबा बना रही है. इस पार्टी का गठन बीजेपी और कांग्रेस पार्टियों के बीच चिंता का कारण होना चाहिए.
इस बार के विधानसभा चुनाव में मुख्यत: कांग्रेस, बीजेपी और भारत आदिवासी पार्टी के बीच ही त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है.
राजस्थान के चुनाव में दक्षिण राजस्थान की आदिवासी बहुल विधानसभा सीटों पर अपना दबदबा कायम रखने के लिए बीजेपी और कांग्रेस पार्टी दोनों ही ज़ोर लगाती रही हैं. मसलन राजस्थान में सरकार चला रही कांग्रेस और केंद्र में सरकार चला रही बीजेपी दोनों ही भील आदिवासियों के शहीद स्थल मानगढ़ धाम के विकास का श्रेय लेना चाहती हैं.
लेकिन भारत आदिवासी पार्टी के गठन के साथ ही इस इलाके में आदिवासी पहचान एक बड़ा मुद्दा बन गया है. इस नई पार्टी ने भी मानगढ़ धाम पर बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया है.
बांसवाड़ा के आदिवासी इलाकों में मूलभूत सुविधाएं जैसे शिक्षा, पेय जल, सड़क इत्यादि के अलावा दो मांगे मुख्य रूप से प्रचलित हो रही हैं.
70 प्रतिशत आरक्षण की मांग
वैसे तो आरक्षण की मांग कई आदिवासी इलाकों में देखने को मिल सकती है. क्योंकि ऐसा माना जाता है की ज्यादातर आदिवासी इलाकों में जनगणना सहीं ढंग से नहीं की गई है. या 2011 के मुकाबले इनकी आबादी अब बढ़ चुकी है.
लेकिन आरक्षण 2011 की जनगणना को ध्यान में रखते हुए दिए गए है. जो आज के समय में संतोषजनक नहीं है.
मौजूदा वक्त में नौकरी और शिक्षा के लिए अनुसूचित जानजातियों को 12 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है. जो पूरे राज्य में लागू होता है.
आदिवासियों की मांग है की इस 12 प्रतिशत में से 6.5 प्रतिशत दक्षिण राजस्थान में रह रहे आदिवासियों को दिया जाना चाहिए. क्योंकि इनका माना है की आरक्षण का ज्यादातर फायदा मीणा समाज के लोगों द्वारा लिया जा रहा है.
वहीं जरूरतमंद आदिवासियों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा. जिसके कारण इनकी मांग है की दक्षिण राजस्थान मुख्यत: टीएसपी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी को 6.5 प्रतिशत का आरक्षण दिया जाए.
भील आदिवासियों की मांग
भील समुदाय और अन्य कई संगठन ये मांग कर रहें है की भील आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य बनाया जाए.
दरअसल भील प्रदेश मुक्ति मोर्चा, भारतीय ट्राइबल पार्टी सहित कई सामाजिक-राजनीतिक संगठन द्वारा लंबे समय से ये मांग की जा रही है की 4 प्रदेशों के 42 जिलों के अनुसूचित क्षेत्रों को मिलाकर अलग भील प्रदेश बनाया जाएं.
महिलाओं का साक्षरता दर बेहद कम
2011 की जनगणना के मुताबिक बांसवाड़ा का साक्षरता दर 66.11 प्रतिशत है. जिसमें पुरूष की साक्षरता दर लगभग 79 प्रतिशत और महिलाओं की लगभग 50 प्रतिशत बताई गई है.
यानि बांसवाड़ा की सिर्फ़ आधी महिलाओं को ही लिखना पढ़ना आता है. इस चुनावी माहौल में शायद ही कोई पार्टी महिलाओं के इस साक्षरता दर को मुद्दा बनाए.
बांसवाड़ा में कुपोषण
बांसवाड़ा में आदिवासी बच्चों के बीच कुपोषण रिपोर्ट होता रहा है. इससे निपटने के लिए सरकार की तरफ से पोषण स्वराज अभियान चलाया गया था.
जिसमें बांसवाड़ा ज़िले के घाटोल, आनंदपुरी, सज्जनगढ़, कुशलगढ़ और गंगाड़तलाई पंचायत समितियों के 67000 बच्चों की जांच की गई थी.
यह दावा किया जाता है कि बांसवाड़ा में बच्चों के कुपोषण में कमी आयी है. लेकिन इस दिशा में लगातार काम करते रहने की ज़रूरत होगी.
आदिवासी पहचान और स्वाभिमान
राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िले में आम आदिवासी के जीवन से जुड़े की मुद्दे नज़र आते हैं. मसलन महिला साक्षरता दर, बच्चों में कुपोषण, रोज़गार के अवसरों की कमी और टीएपी क्षेत्रों का विकास के लिए पर्याप्त ख़र्च ना होना.
लेकिन जब इस क्षेत्र में बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी हों या फिर बीटीप और बीएपी, शायद ही कोई इन मुद्दों पर बात कर रहा है.
सभी राजनीतिक दल आदिवासी स्वाभिमान, पहचान और सम्मान की बात कर रहे हैं. कुल मिलाकर यहां पर आदिवासियों के भावनात्कम मुद्दों पर बहस हो रही है.