मुरिया आदिवासी (Muria Tribe) सालों से दाल के बीजों के सरंक्षण के लिए डेडा तकनीक (Deda Method) का इस्तेमाल कर रहे हैं.
मुरिया आदिवासियों को यह तकनीक अपने पूर्वजों से मिली है. इस तकनीक के तहत सियाली पत्तियों में बीजों को सरंक्षित (Seeds Preserve) किया जाता है.
यह दूर से दिखने में पत्तों से बनी बड़ी गेंद की तरह लगता है. पत्तों के अंदर बीजों को इस तरीके से बांधा जाता है कि बीज तक हवा अंदर ना जा पाए. यह एक तरह से एयर टाईट कंटेनर (Air tight container) की तरह काम करता है.
डेडा तकनीक
डेडा में तीन परते होती हैं. पहली परत में सियाली पत्तों के अंदर लकड़ी की राख फैलाई जाती है.
इसके बाद इस राख को नींबू की पत्तियों से ढक दिया जाता है.
फिर इसमें बीज रखे जाते है और पत्तों को बीजों के ऊपर लपेट कर बांध दिया जाता है. पत्तों को इस तरह से बांधने की तकनीक को स्थानीय भाषा में अड्डाकुलु कहा जाता है. पत्तों से बना प्रत्येक डेडा 5 किलों बीज का वजन उठा सकता हैं.
क्या है फायदे
डेडा तकनीक के अंतर्गत बीजों को पत्तों में बांधने से यह कीड़ों से बचे रहते हैं. इन बीजों का उपयोग अगले 5 साल तक खेती में किया जा सकता है. हालांकि कहीं-कहीं इसे तीन साल के लिए ही संरक्षित रखा जाता है.
इसके अलावा कुछ मुरिया आदिवासी दालों को स्टोर करने के लिए भी इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं.
मुरिया आदिवासी एक ही खेत में अलग-अलग फसलों की खेती करते हैं. फसलों से मिलने वाले उपज का इस्तेमाल यह ज्यादातर अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए ही करते हैं.
कौन है मुरिया आदिवासी
मुरिया या मुड़िया आदिवासी ज्यादातर छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सीमा क्षेत्रों में रहते हैं. इन्हें गोंड जनजाति की उपजनजाति माना जाता है.
छत्तीसगढ़ में मुरिया आदिवासी बस्तर क्षेत्र में रहते हैं. इनकी कुल जनसंख्या करीब 8 लाख बताई जाती है. बस्तर से सटे हुए तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के भी कई इलाकों में मुरिया आदिवासी रहते हैं.
ये आदिवासी बस्तर से माओवादी हिंसा की वजह से बस्तर से पलायन करने के बाद इन इलाकों में पहुंचे हैं.
आंध प्रदेश में इन्हें गुट्टी कोया कहा जाता हैं. मुरिया आदिवासी छत्तीसगढ़ के बस्तर के मूल निवासी माने जाते है.