मध्य प्रदश के बालाघाट में कल यानी 4 सितंबर को गोवारी समाज की तरफ से अनुसूचित जनजाति अधिकार की मांग के लिए रैली निकाली गई. गोवारी समाज ने बड़ी संख्या में रैली निकाली. रैली में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र एवं छत्तीसगढ़ के लोग भी शामिल हुए थे.
रैली में हजारों की संख्या में गोवारी समाज के आदिवासी थे. इन्होंने रैली में अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र के लिए बालाघाट मुख्यालय में प्रदर्शन किया. आदिवासी गोवारी समाज की यह रैली उत्कृष्ट विद्यालय से शुरु होकर महारैली नगर के आंबेडकर चौक, हनुमान चौक, मेनरोड, काली पुतली चौक और अंबेडकर चौक के बाद कलेक्ट्रेट तक गई.
रैली का नेतृत्व प्रदेश अध्यक्ष महेश सहारे एवं जिलाध्यक्ष कन्हैया राऊत ने संयुक्त रूप से किया. इस रैली में गोवारी समुदाय के ले अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र देने की मांग की गई. उनका यह भी कहना की शासन के आदेश के बाद भी प्रशासन उन्हें अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र नहीं दे रहे हैं.
इसके साथ-साथ उन्होंने कहा कि बहुत लंबे समय से गोवारी समाज के आदिवासी अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं. लेकिन जिला प्रशासन एवं जिले के जनप्रतिनिधियो ने गरीब आदिवासी गोवारी समाज का मज़ाक बना दिया है.
रैली में मध्यप्रदेश आदिवासी विकास परिषद, सर्व आदिवासी समाज संगठन, गढ़वाल समाज संगठन, कोहरी समाज संगठन, ढीमर समाज संगठन, दी बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया, नगारची समाज संगठन, हल्बा समाज संगठन, आदिवासी बिंझवार समाज संगठन, बिरसा बिग्रेड भरवेली, भीम आर्मी भारत एकता मिशन, आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने भी अपना समर्थन दिया. चुनाव से पहले हुई इस रैली ने यह बात साफ कर दी है की इस अधिकार की मांग का असर आने वाले चुनाव पर भी पड़ सकता हैं.
गोवारी
गोवारी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहने वाली चरवाहों या पशुपालकों की एक भारतीय जाति हैं. इस जाती को राज्य सरकार ने 15 जून 1995 में जीआर के तहत विशेष पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा था.
15 जून 2011 में केंद्र सरकार ने भी इन्हें पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा था. जिसे इन्हें पिछड़ा वर्ग की प्रवर्ग के सारे लाभ मिल रहे थे. लेकिन 24 अगस्त 1985 की याचिका में नागपुर खंडपीठ ने यह बात कही की गोवारी वर्ग को “गोंड-गोवारी” के तहत जाति प्रमाण-पत्र दिया जाता था. लेकिन इसके बाद सरकार ने परिपत्रक जारी किया. जिसमें इन दोनों वर्गों को अलग-अलग कर दिया गया. आखिर में यह याचिका सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच गई.
अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की क्या शर्ते हैं?
किसी आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. लेकिन लोकुर कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के कुछ आधार तय किये गए हैं.
फिलहाल किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए सबसे पहले ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट को उस समुदाय के बारे में शोध करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है.
उसके बाद शोध में पाए गए तथ्यों के आधार पर राज्य सरकार किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश भेजती है. उसके बाद यह सिफ़ारिश राष्ट्रीय जनजाति आयोग को भेजी जाती है.
आयोग अगर सिफ़ारिशों से संतुष्ट होता है तो फिर यह सिफ़ारिश भारत के महारजिस्ट्रार को भेजी जाती है. वहां से फिर प्रस्ताव कैबिनेट में पेश किया जाता है.
कैबिनेट की मंजूरी के बाद इस प्रस्ताव को संसद में पेश किया जाता है. संसद की अनुमति के बाद ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश राष्ट्रपति को भेजी जाती है.
मोटेतौर पर यह कहा जा सकता है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का अंतिम फैसला केंद्र सरकार के हाथ में ही है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का फैसला एक राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है. लेकिन इस मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए विपक्ष को दोष नहीं दिया जा सकता है. इस मुद्दे को चुनाव में फायदा पाने की मंशा से बीजेपी की केंद्र सरकार ने ही राजनीतिक मुद्दा बनाया है.