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गुजरात: 2017 से राज्य में वन अधिकारों के निपटान के लिए कोई नया दावा प्राप्त नहीं

मई 2013 में गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को राज्य के 13 जिलों के अस्वीकृत वन अधिकारों के दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिया था. लेकिन संबंधित ग्राम सभाओं द्वारा अनुमोदन के लिए स्वीकृत किए जाने के बावजूद इन दावों को खारिज कर दिया गया था.

भारतीय जनता पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में गुजरात के आदिवासी बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन किया. लेकिन बावजूद इसके पार्टी ने पिछले पांच सालों में आदिवासियों के अधिकारों के समाधान के मामले में सबक नहीं सीखा है.

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा संकलित आंकड़ों के मुताबिक, 2017 से 2022 के बीच गुजरात में बीजेपी के शासन के दौरान वन अधिकार अधिनियम 2006 (Forest Rights Act 2006) के तहत अधिकारों के निपटान के लिए कोई नया दावा प्राप्त नहीं हुआ है.

अधिनियम के लागू होने की तारीख से जून 2017 तक व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों अधिकारों के निपटारे के लिए गुजरात सरकार को प्राप्त कुल दावों की संख्या 1 लाख 90 हज़ार 56 थी. वहीं जून 2022 तक उपलब्ध नवीनतम रिपोर्ट से पता चलता है कि यह आंकड़ा अभी भी 1 लाख 90 हज़ार 56 ही है. जबकि इस विशेष अवधि के दौरान अन्य सभी राज्यों में 2.75 लाख से अधिक नए आवेदन प्राप्त हुए.

इसी तरह, 2017-2022 की अवधि के दौरान व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों वन अधिकारों के संदर्भ में गुजरात सरकार द्वारा दिए गए दावों की कुल संख्या 11 हज़ार 624 थी. इसके उलट इस अवधि के दौरान अन्य सभी राज्यों में 4.30 लाख से अधिक दावे वितरित किए गए.

जुलाई 2022 तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, लगभग 34 हज़ार 500 दावे (या प्राप्त दावों का 18 प्रतिशत) राज्य सरकार के विभिन्न स्तरों पर गुजरात में निपटान के लिए लंबित हैं. गुजरात में प्राप्त दावों में से 31 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया गया है.

दिल्ली स्थित स्वतंत्र शोधकर्ता आजम दानिश ने कहा, “अस्वीकृति की उच्च दर और लंबित पड़े दावों का आजीविका के लिए वनों और वन संसाधनों पर निर्भर समुदायों पर कई तरह का प्रभाव पड़ता है. इसमें लघु वन उपज के संग्रह और विपणन पर प्रतिकूल प्रभाव, चरागाह भूमि का नुकसान और वन विभाग द्वारा गतिविधियों का अपराधीकरण, अन्य मुद्दों के साथ शामिल हैं.”

दानिश ने कहा, जिन्होंने शोधकर्ताओं के एक समूह के साथ हाल ही में गुजरात में वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन की स्थिति पर एक स्टडी तैयार की है, “भारत के सुप्रीम कोर्ट सहित देश की विभिन्न अदालतों ने आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा के लिए गुजरात सरकार की पहल और ड्राइव की कमी पर नाराजगी व्यक्त की है. अतीत में खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने के लिए गुजरात सरकार जिस तरह से न्यायपालिका के निर्देशों को लागू कर रही है उसमें पारदर्शिता की कमी है.”

अधिनियम – जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम के रूप में जाना जाता है. 2006 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन केंद्र सरकार द्वारा वन भूमि पर रहने वाले और अपनी आजीविका के लिए इसके संसाधनों पर निर्भर आदिवासियों और अन्य पारंपरिक समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने के लिए अधिनियमित किया गया था.

मई 2013 में गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को राज्य के 13 जिलों के अस्वीकृत वन अधिकारों के दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिया था. लेकिन संबंधित ग्राम सभाओं द्वारा अनुमोदन के लिए स्वीकृत किए जाने के बावजूद इन दावों को खारिज कर दिया गया था.

यह निर्देश हाई कोर्ट द्वारा कुछ जनहित याचिकाओं के आधार पर जारी किया गया था जिसमें आरोप लगाया गया था कि गुजरात सरकार वन अधिकार अधिनियम, 2006 के प्रावधानों को लागू करने में ढिलाई बरत रही है. और ऐसा तब हो रहा है जब राज्य की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों की संख्या लगभग 14.75 प्रतिशत है.

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, गुजरात सरकार ने अब तक प्राप्त 1.82 लाख दावों में से 1.13 लाख दावों को खारिज कर दिया था. इनमें से लगभग 45 हज़ार दावों को खारिज कर दिया गया क्योंकि गुजरात में कानून के तहत आवश्यक न्यूनतम दो साक्ष्य दावेदारों द्वारा प्रस्तुत नहीं किए गए थे. हालांकि, गुजरात सरकार ने उचित ठहराया कि ये दावे सैटेलाइट इमेजरी द्वारा समर्थित नहीं थे.

सैटेलाइट इमेजरी स्टडी गुजरात सरकार द्वारा गांधीनगर स्थित भास्कराचार्य इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस एप्लीकेशन एंड जियो-इंफॉर्मेटिक्स (BISAG) से प्राप्त किया गया था. जो एक राज्य स्तरीय एजेंसी है जो जियोस्पतियल टेक्नोलॉजी में सेवाएं और समाधान प्रदान करती है. हाई कोर्ट ने अन्य निर्देशों के साथ-साथ राज्य सरकार को बीआईएसएजी के अलावा अन्य स्रोतों से प्राप्त नक्शों और छवियों के आधार पर खारिज किए गए दावों की जांच करने के लिए कहा था.

इस सबके बाद नवंबर 2020 में गुजरात स्थित एक एनजीओ, एक्शन रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ एंड डेवलपमेंट ने एक जनहित याचिका दायर की. जिसमें आरोप लगाया गया कि हाई कोर्ट द्वारा राज्य सरकार पर अपना आदेश जारी करने के लगभग सात साल बाद वन अधिकारों के 1.28 लाख दावों का निपटारा होना बाकी है.

इसी तरह, जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा (अब सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की खंडपीठ ने फरवरी 2019 में एक आदेश जारी किया था. जिसमें सभी राज्य सरकारों को विभिन्न आधारों पर खारिज किए गए वन अधिकारों के दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिया गया था.

इन सभी आदेशों के बावजूद गुजरात सरकार राज्य में वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों के कार्यान्वयन की स्थिति में पूरी तरह से पारदर्शी नहीं रही है. अस्वीकृत दावों की समीक्षा में पारदर्शिता की कमी ने देहाती समुदायों को भी प्रभावित किया है. जबकि गुजरात ने औद्योगिक उपयोग के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी भूमि को निजी कॉर्पोरेट संस्थाओं को हस्तांतरित होते देखा है.

स्टडी रिपोर्ट बताती है, “देहाती समुदायों ने अपनी सामान्य चरागाह भूमि के निजीकरण और अपनी आजीविका के अवसरों के नुकसान का अनुभव किया है. गुजरात बन्नी का घर है, जो एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक है और इसे पारंपरिक रूप से इसके देहाती समुदायों द्वारा पोषित और संरक्षित किया जाता है. बन्नी में समुदायों के लिए सीएफआर [community forest rights] अधिकार अस्पष्ट रहे हैं. क्योंकि सीएफआर दावों पर अधिकार नहीं दिए गए हैं. महत्वपूर्ण चरागाह पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण पर इसका प्रतिकूल लंबे समय तक प्रभाव पड़ता है.”

गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र क्षेत्रों में स्थानीय कार्यकर्ताओं का दावा है कि राज्य सरकार ने बन्नी क्षेत्र में रहने वाले समुदायों द्वारा 2014 से दर्ज किए गए 47 दावों को अभी तक अधिकार नहीं दिया है. लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी द्वारा संसद में रखे गए एक प्रश्न के जवाब में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 25 जुलाई, 2022 को एक लिखित उत्तर के माध्यम से निम्नलिखित को सूचित किया था:

“गुजरात की राज्य सरकार ने सूचित किया है कि कच्छ जिले के भुज तालुका के बन्नी क्षेत्र के 55 गांवों में, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति का गठन किया गया है. इन गांवों में अब तक कोई एफआरए समुदाय का दावा निहित नहीं किया गया है। 47 सामुदायिक दावों को उप-मंडल स्तर की समिति के स्तर पर स्वीकृत किया गया है और आगे की मंजूरी के लिए जिला स्तरीय समिति के पास रखा गया है.”

गुजरात में कार्यकर्ताओं और सामाजिक संगठनों का आरोप है कि अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य पारंपरिक वनवासियों के दावों को निपटाने में राज्य सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड कहीं अधिक निराशाजनक है. 2017-2022 के बीच मात्र 1 हज़ार 81 सामुदायिक अधिकार टाइटल दिए गए.

गुजरात में पिछले कुछ दशकों में बीजेपी के शासन में यहां तक ​​कि पारंपरिक रूप से गुजरात के तट पर प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय वन अधिकार अधिनियम के तहत अपने दावों के निपटारे का इंतजार कर रहे हैं. विशेष रूप से कच्छ की खाड़ी और कैम्बे की खाड़ी के साथ भूमि के बड़े हिस्से को औद्योगिक विकास के लिए मोड़ दिया गया है.

फिर भी चुनावी राज्य के हाल के चुनाव प्रचार दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचमहल जिले के जम्बुघोड़ा में कहा कि कांग्रेस सहित पिछली सरकारों ने आदिवासी क्षेत्रों के “सर्वांगीण विकास” की उपेक्षा की थी.

उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदायों के कल्याण के लिए विशेष रूप से समर्पित एक मंत्रालय का गठन पहली बार तब किया गया था जब दिवंगत भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे. अपने अभियान के दौरान पीएम मोदी ने राज्य में आदिवासी समुदायों के लाभ के लिए शुरू की गई कई विकास परियोजनाओं के नाम भी गिनवाएं.

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