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जंगल, जैव विविधता और पर्यावरण के साथ आदिवासी की चिंता भी शामिल होनी चाहिए

अक्सर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जैव विविधता तक सीमित रहती है. बल्कि कई ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं जब जंगलों और जैव विविधता को बचाने के लिए आदिवासियों को जंगल से बाहर बसाने पर ज़ोर दिया जाता रहा है.

आदिवासी के वजूद के लिए जंगल बेहद ज़रूरी है. जंगल उतने ही ज़रूरी धरती के वजूद के लिए भी हैं. अगर जंगल और जंगल की जैव विविधता ख़तरे में पड़ती है तो फिर धरती का अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ जाएगा.

इस मसले पर दुनिया भर में चर्चा होती रही है. भारत भी इन चर्चाओं का हिस्सा रहा है. लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि जब व्यवसायिक गतिविधियों के लिए जंगल काटने हों तो अक्सर सरकारें हिचकती नहीं हैं. इस क्रम में ना सिर्फ़ जंगल काटे जाते हैं और आदिवासी विस्थापित होते हैं, बल्कि कई और कारणों से भी प्रदूषण फैलता है.

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाओं पर ग़ैर सरकारी संगठन, मीडिया या फिर समाज चिंता प्रकट नहीं करता है. ये सभी तबके चिंता प्रकट करते हैं. लेकिन इस चिंता में शायद ही कभी आदिवासी मौजूद होता है.

यह चिंता अक्सर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जैव विविधता तक सीमित रहती है. बल्कि कई ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं जब जंगलों और जैव विविधता को बचाने के लिए आदिवासियों को जंगल से बाहर बसाने पर ज़ोर दिया जाता रहा है.

देश के सभी बायोस्फीयर रिज़र्व या फिर नेशनल पार्क घोषित किये गए जंगलों में इस तरह की कोशिशों की ख़बर आती रही हैं. 

लेकिन MBB की टीम ने मयूरभंज के सिमलिपाल टाइगर रिज़र्व, बिहार के पश्चिमी चंपारण के वाल्मिकी नगर टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में इस तरह की कोशिशों में विस्थापित आदिवासियों या फिर विस्थापन की कोशिशों से लड़ने वाले आदिवासियों पर ग्राउंड रिपोर्ट की हैं. 

इस तरह की चिंताएँ और कोशिशें नीलगिरी के जंगलों में भी दिखाई और सुनाई देती है. यह लगातार कहा जा रहा है कि घटते जंगल, कॉमर्शियल प्लांटेशन और अनिश्चित मौसम की स्थिति के कारण दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाट के ऊंचे इलाकों में बसे नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व को ख़तरा है. 

इसके एक उपाय के तौर पर यहाँ के आदिवासियों को कहीं और बसा देने की सलाह दी जाती रही है. बल्कि यहाँ पर तो बाक़ायदा एक ग़ैर सरकारी संस्थाओं ने प्रशासन को आदिवासी विस्थापित करने में मदद भी की है. 

वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन सोसाइटी- इंडिया नाम का संगठन है जो वन संरक्षण और जैव विविधता पर काम करता है. इस संगठन ने आदिवासियों को जंगल से निकाल कर कहीं और बसाने में प्रशासन की मदद की है. 

हालांकि यहाँ के आदिवासी समुदाय पीढ़ियों से इस जंगल में रहते आए हैं. ये समुदाय बहुत अच्छी तरह से यह जानते हैं कि जंगल की जैव विविधता का संरक्षण कैसे किया जाए.

कर्नाटक के कोडागु (पहले कूर्ग) ज़िले में पश्चिमी घाट की तलहटी में बसे जेनु कुरुबा लोगों की बस्ती सज्जेहल्ली हादी के रहने वाले लोगों से जब इस बारे में बात की गई तो उनका कहना था कि जंगल की जैव विविधता की रक्षा और संरक्षण का काम आदिवासियों पर छोड़ दिया जाना चाहिए. 

सज्जेहल्ली हादी में लोग बांस की झाड़ियों के बीच पत्तों से ढकी छोटी-छोटी झोपड़ियों में रहा करते थे. हालाँकि अब इस बस्ती में अब किसी किसी घर पर टिन की छत भी नज़र आती है.

यहाँ के एक लड़के शेषा का कहना है कि हमारे परदादा यहीं बड़े हुए थे और हम जंगल को अच्छी तरह से जानते हैं. शेषा एक आदिवासी समूह से संबंधित हैं जो मधुमक्खियों के संरक्षण के लिए जाने जाते हैं. साथ ही ये न सिर्फ उनकी आजीविका बल्कि जंगलों और खेतों के विकास के लिए भी आवश्यक हैं.

जेनु कुरुबा समुदाय के लोगों का कहना है कि जंगल, जंगली जानवर और आदिवासी सभी को बचना ज़रूरी है. इनके बीच में आदिवासी पीढ़ियों से संतुलन बनाता रहा है. उनका कहना है कि इस जंगल में मधु मक्खियों को बचाने के लिए सबसे ज़रूरी है कि जंगल के नज़दीक के खेतों में रसायन का प्रयोग ना किया जाये. 

अगर आदिवासी धार्मिक आस्थाओं को देखेंगे तो पता चलेगा कि उनके धार्मिक स्थलों पर उनके पूरखों के साथ साथ जंगली जानवरों की मूर्तियाँ भी शामिल होती हैं. वे इन मूर्तियों की पूजा भी करते हैं. बस्तियों के किनारों पर बाघ, भालू और मानव आकृतियों की मूर्तियां मिल जाती हैं. 

दक्षिण के नीलगिरी के जंगल ही नहीं बल्कि MBB की टीम जब गुजरात के डांग ज़िले के जंगल में रहने वाले आदिवासियों से मिली थी तो हमें वहाँ भी यह देखने को मिला था.

हाल ही में एक गैर-लाभकारी संस्था की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1,353 परिवार नागरहोल रिजर्व के भीतर 45 गांवों में रहते थे और इससे ज्यादा इसकी परिधि में रहते थे. 

लेकिन कई परिवारों को यहाँ से स्थानांतरित कर दिया गया था. ये गांव मुख्य रूप से जेनु कुरुबा लोगों के थ. लेकिन बेट्टा कुरुबा, येरवास और बेदुगा जैसे अन्य समुदाय भी इन गाँवों में रहते थे.

जेनु कुरुबा के लोग दशकों पहले उनके विरोध के बाद छोड़े गए रिज़ॉर्ट प्रोजेक्ट के अवशेषों की ओर इशारा करते हैं. नीलगिरी के जंगलों में जबरन बेदखली हिंसा और प्रतिरोध का रिकॉर्ड है. पिछले साल भी इसी समुदाय द्वारा टाइगर रिजर्व से जबरन बेदखली के खिलाफ प्रदर्शन किया गया था.

हालांकि, वन अधिकारी इस बात पर जोर देते हैं कि आदिवासियों को बाहर करने वाली औपनिवेशिक संरक्षण प्रथाएं एक पुरानी कहानी हैं. यानि अब आदिवासियों को जंगल से निकाल कर बसाने की कोशिशें नहीं हो रही हैं. 

नागरहोल टाइगर रिजर्व के उप वन संरक्षक और निदेशक, हर्षकुमार चिक्कानारागुंड ने कहा, “जंगल छोड़ने के लिए [आदिवासियों पर] कोई दबाव नहीं है. वे अनादि काल से इन जंगलों में रह रहे हैं. हम उनसे सीखते हैं और उनके साथ काम करते हैं.”

वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था, वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन सोसाइटी- इंडिया ने का कहना है कि वो अब किसी भी स्थानांतरण जैसे काम में भाग नहीं लेता है जिसमें लोगों को जंगल में बसे अपने घरों को छोड़ना पड़े.  

डब्ल्यूसीएस-इंडिया में विज्ञान और संरक्षण की नई निदेशक और प्रमुख विद्या अत्रेय ने कहा कि  हम समय के साथ आगे बढ़ रहे हैं. पुरानी पीढ़ी की अपनी शैली थी.

गैर-लाभकारी संस्था का उद्देश्य आदिवासियों को पुनर्वास के बाद कागजी कार्रवाई में मदद करना है और उन लोगों की भी मदद करना है जो नए स्थानों पर जाना चाहते हैं. मानव-पशु संघर्ष की विशेषज्ञ अत्रेय कहती हैं कि वे लोगों को बीच में नहीं छोड़ सकते. उन्होंने कहा कि हमें लंबे समय तक संरक्षण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समुदायों के साथ काम करने की आवश्यकता है.

पॉलीनेटरएकचिंता

खाद्य और कृषि संगठन लोगों और ग्रह को स्वस्थ रखने और आज उनके सामने आने वाली कई चुनौतियों पर मधुमक्खियों और अन्य पराग यानि पॉलीनेटर की आवश्यक भूमिका के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 20 मई को विश्व मधुमक्खी दिवस मनाता है.

खाद्य और कृषि संगठन ने अपनी चिंता व्यक्त की है कि कैसे मधुमक्खियों और अन्य पॉलीनेटर की बहुत ज्यादा संख्या में कमी हो रही है, जिससे खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो रही है. जेनु कुरुबा लोगों द्वारा मधुमक्खियों के संरक्षण को दुनिया भर के वैज्ञानिकों द्वारा सराहा जाता है.

पिछली शताब्दी में पश्चिमी घाटों पर फैले चाय और कॉफी के बागानों के कारण नीलगिरी के जंगलों और घास के मैदान कम हुए हैं. वैज्ञानिक बताते हैं कि मधुमक्खियां तब मर जाती हैं जब बहुत अधिक परजीवी और कीट, रोगजनक, खराब पोषण और कीटनाशकों के संपर्क में आती है. 

नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व के 2020 की स्टडी से पता चला है कि जंगल के किनारे से इसकी दूरी बढ़ने के साथ ही प्रत्येक खेत में पॉलीनेटर प्रजातियों की संख्या में गिरावट आई है.

यहाँ के आदिवासियों का कहना है कि मधुमक्खियां हमारे जंगलों से गायब हो जाती हैं और इसके लिए उसने वृक्षारोपण में रसायनों का उपयोग जिम्मेदार है.

जंगलों में बदलती जलवायु परिस्थितियों में अक्सर बेमौसम बारिश और लंबे शुष्क मौसम के साथ जंगल में आग लगने का ख़तरा बढ़ जाता है. तमिलनाडु के कोटागिरी में दशकों से नीलगिरी पर स्टडी कर रहे एक संरक्षण समूह, किस्टोन फाउंडेशन के सलाहकार रॉबर्ट लियो ने कहा कि पिछले दस वर्षों में बड़े बदलाव हुए हैं.

लियो ने कहा, “मधुमक्खियों को अपने बच्चों को खिलाने के लिए पराग की जरूरत होती है. लेकिन जब जमीन में नमी नहीं होगी तो पौधों में फूल नहीं आएंगे और परागकण भी नहीं होंगे. ऐसे में वे (मधुमक्खी) सिर्फ छत्ते को छोड़ देते हैं. आप कई जगहों पर खाली छत्ते देख सकते हैं.”

हालांकि, आदिवासी मधुमक्खियों और उनके आवासों को अच्छी तरह से जानते हैं और अपनी मेहनत से उनका संरक्षण करते हैं ताकि मधुमक्खियों की संख्या बढ़ सके. लियो ने कहा, “वे पूरे छत्ते को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते. इसे एक पेड़, गुफा या चट्टान होने देते हैं, वे सुनिश्चित करते हैं कि मधुमक्खियों के निवास स्थान को कभी नष्ट न करें.”

जेनु कुरुबा के बीच पारंपरिक ज्ञान पर इवोल्यूशन एंड ह्यूमन बिहेवियर जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता कि जेनु कुरुबा समुदाय में बचपन में ही यह सिखा दिया जाता है कि शहद कैसे जमा किया जाता है.

अध्ययन के अनुसार आदिवासी समुदाय सबसे पहले कोलजेनु या छोटी मधुमक्खी (Apis florea) और नसरजेनु या डैमर मधुमक्खी (Trigona species) से शहद लेता है जो उनके गांवों के किनारों पर छत्ता बनाती हैं. कभी-कभी वे छोटी मधुमक्खियों को बांस के छत्ते में पैदा होने देते हैं.

जब तक बच्चे 10-12 वर्ष की आयु तक पहुंचते हैं, तब तक विशेष रूप से लड़के जंगल में थुडुवेजेनु या विशाल चट्टान मधुमक्खी (Apis dorsata) के छत्ते से शहद लेने के लिए एक बुजुर्ग रिश्तेदार के साथ जुड़ जाते हैं.

फिर जब वे 18 वर्ष की आयु तक पहुंचते हैं तो वे एशियाई मधुमक्खी (Apis cerana) के छत्तों को पेड़ की गुहाओं या 40 मीटर तक ऊँची चट्टानों में देखते हैं. तीन से आठ लोगों के समूह में से कुछ मधुमक्खियों के काटने से बचाव के लिए हल्की धुएँ वाली मशालें पकड़ते हैं और शहद इकट्ठा करने के लिए एक टोकरी पकड़ते है.

अन्य आदिवासी समूहों जैसे कट्टुनायकन, कुरुंबा, शोलीगा और इरुला के बीच अलग-अलग ऊंचाई पर नीलगिरि के जंगलों में शहद संचयन की प्रथा प्रचलित है.

इस इलाक़े के आदिवासी आसपास के चाय बाग़ानों में मेहनत मज़दूरी करते हैं. कभी कभी इन आदिवासियों को सरकार की तरफ़ से वृक्षारोपण के काम में भी शामिल कर लिया जाता है. ये आदिवासी वन अधिकार क़ानून के तहत मिली जंगल की ज़मीन पर कॉफी, रतालू, चावल, मक्का और अदरक की खेती भी करते हैं.

वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत मिले पट्टों के बाद अब आदिवासियों की ज़िंदगी कुछ आसान ज़रूर हुई है. यहाँ के कुछ आदिवासियों का कहना था कि पहले हमें कुछ भी कहने का साहस नहीं था. अब वे इन खेतों पर बेफिक्र हो कर खेती करते हैं. 

इन लोगों की फसल प्रणालियां पारंपरिक हैं, कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना. वे चुनिंदा कीटों को भगाने के लिए गाय के गोबर, गोमूत्र और जड़ी-बूटियों के मिश्रण का उपयोग करते हैं.

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