कश्मीर में जंगल में रहने वाले समुदाय अपनी ज़मीन और घरों को बचाने के लिए 14 साल पुराने फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट के लागू होने पर अपनी उम्मीदें बांधे हुए हैं. कश्मीर के जंगलों में बसे हज़ारों लोगों पर अपने घरों से बेदख़ल होने का ख़तरा मंडरा रहा है, क्योंकि सरकार ने इन जंगलों को संरक्षित भूमि माना है, और इस कारण यह लोग अब इस भूमि पर ‘अतिक्रमण’ कर रहे हैं.
दिसंबर 2020 में वन विभाग ने लगभग 63,000 लोगों की एक सूची प्रकाशित की, जिसके मुताबिक़ यह सभी 15,000 हेक्टेयर या 37,000 एकड़ वन भूमि पर ‘अवैध’ रूप से रह रहे हैं, और खेती कर रहे हैं. अब इस क्षेत्र के आदिवासी समुदाय 2006 के एफ़आरए के तहत अपनी जीविका और निवास की सुरक्षा चाहते हैं. ग़ौरतलब है कि पूरे देश में लागू होने के एक दशक से भी ज़्यादा समय बाद एफ़आरए जम्मू-कश्मीर में लागू हो रहा है.
2011 की जनगणना के अनुसार कश्मीर में आदिवासी आबादी लगभग 11 लाख है. अगस्त 2019 से पहले तक कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था, जिसकी वजह से एफ़आरए कभी यहां लागू नहीं किया गया. 2019 में विशेष दर्जा हटाने के साथ ही एफ़आरए जम्मू-कश्मीर में लागू हो जाना चाहिए था, लेकिन इसके लागू होने की घोषणा नवंबर 2020 में ही हुई है. अब मार्च तक सभी योग्य दावों को मंज़ूरी देने के उद्देश्य से, आवेदकों की जानकारी इकट्ठा की गई है.
आदिवासी समुदायों की चिंताएं
जम्मू-कश्मीर आरटीआई मूवमेंट का दावा है कि एफ़आरए के तहत वन अधिकार समितियों (एफ़आरसी) का गठन करने के लिए पिछले दिनों में कई नकली ग्राम सभाओं का आयोजन किया गया है. किसी भी ग्राम सभा की बैठक से पहले सरकार को अपने जनजातीय मामलों के विभाग के माध्यम से एक गज़ट अधिसूचना जारी करनी चाहिए, जिसमें उन गांवों का विवरण हो जहां एफ़आरए के तहत दावे पेश किए जा सकते हैं.
एफ़आरए के तहत ऐसे गांववालों का इन ग्राम सभाओं में शामिल होना भी अनिवार्य है, लेकिन आरटीआई मूवमेंट का दावा है कि कश्मीर में पिछले कुछ दिनों से ख़राब मौसम के चलते गांव के लोग ऐसा नहीं कर पाए हैं. यह भी आरोप है कि कई गांवों में निवासियों को सूचित तक नहीं किया गया, और न ही दशकों से वन भूमि पर रहने वाले लोगों को एफ़आरसी में शामिल किया गया है.
जागरुकता की कमी
आदिवासी समुदायों के बीच साक्षरता दर कम होने से भी क़ानून के बारे में जागरुकता कम है. 2011 की जनगणना के हिसाब से कश्मीर की आदिवासी आबादी का आधे से भी कम हिस्सा ही साक्षर है. इसीलिए राइट्स एक्टिविस्ट मानते हैं कि एफ़आरए की आवेदन प्रक्रिया की गति को थोड़ा धीमा करना होगा, और मौसम को भी ध्यान में रखना होगा, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस क़ानून को समझें और फिर इसका इस्तेमाल करें.