HomeAdivasi Dailyपहाड़ी कोरवा: अवसाद, निराशा और कुपोषण से घिरा नौजवान

पहाड़ी कोरवा: अवसाद, निराशा और कुपोषण से घिरा नौजवान

मैंने जब उससे पूछा कि क्या उसे बुरा लगता है कि उसके माँ बाप अलग हो गए और परिवार को छोड़ कर चले गए, तब उर्मिला का कहना था “नहीं बुरा क्यों लगेगा?”. वो कहती है माँ को कोई और अच्छा लगा तो वो उसके साथ चली गई.

ठिर्रीआमा पहाड़ी कोरवा आदिवासियों का गांव है. गाँव के उस घर के आंगन में तीन-चार लड़कियां थीं. इनमें से एक लड़की ने सलवार कमीज़ पहनी थी, तो बाक़ी चमकीली साड़ी में नज़र आ रही थीं.

साड़ी को सँभालने के लिए इन लड़कियों ने गुलाबी, नीली और हरी पिन लगा कर ब्लाउज़ से अटकाया हुआ था. इन लड़कियों ने अपने बालों को भी अलग-अलग स्टाइल में संवारा था.

बालों में भी इन लड़कियों ने रंग बिरंगी पिन लगा रखी थीं. हम बराबर वाले घर में लोगों से बातचीत कर रहे थे, तब ये लड़कियाँ पहले हमें अपने आँगन के दूर वाले छोर पर खड़ी देख रही थीं. कुछ देर बाद ये लड़कियाँ आँगन के नज़दीक वाले छोर पर लगी बाड़ के पास आ गईं और बाड़ पर ठोडी टिका कर हमें देखने लगती हैं.

इन सभी लड़कियों की उम्र 12-14 साल के बीच रही होगी. जब हम बातचीत ख़त्म कर इन लड़कियों की तरफ़ बढ़े तो वो दौड़ कर घर के अंदर चली गईं. 

पत्तों के दोने और पत्तल बनाती पहाड़ी कोरवा लड़कियां

हम उनके आँगन में पहुँचे, और घर के बाहर से ही उन्हें बाहर आने को कहा. लेकिन ये लड़कियाँ आपस में खुसर-पुसर करती रहीं. बीच-बीच में उनकी दबी हंसी की आवाज़ भी आ रही थी.

हमने उनसे पूछा कि क्या हम अंदर आ सकते हैं, और उनसे बातचीत कर सकते हैं, तो उन्होंने हाँ कह दिया. ये लड़कियाँ इस कच्चे मकान के बाहर वाले हिस्से में ही बैठी पत्तों के दोने बना रही थीं. हम वहीं उनके साथ बैठ गए और उनसे पत्तों के इन दोनों के बारे में ही बातचीत शुरू की.

उन्होंने बताया कि जिन पत्तों से वो ये दोने बना रही हैं वो सरई पेड़ के पत्ते हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वो ये दोने बेचने के लिए बना रही हैं, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, “नहीं”. उन्होंने बताया कि आज इस घर में एक बच्चे की छठी मनाई जानी है. इसके लिए शाम को गाँव के सभी लोग जमा होंगे और इस दावत के लिए ही ये दोने बनाए जा रहे हैं.

आमतौर पर आदिवासी सरई के पत्तों से पत्तल और दोने बना कर साप्ताहिक हाट में बेचते हैं. लेकिन पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के इस गाँव के लोग ऐसा नहीं करते. 

इन लड़कियों में से एक, जिसका नाम उर्मिला था, वही ज़्यादा बात कर रही थी. उसने नीला कमीज़ और सफ़ेद सलवार पहनी थी. मुझे लगा कि वो स्कूल की ड्रेस है.  मैंने उर्मिला से पूछ लिया कि क्या वो स्कूल जाती है? उसने हाँ में जवाब दिया.

लेकिन जब मैंने उससे उसके स्कूल का नाम पूछा और पूछा कि वो कौन-कौन से सब्जेक्ट पढ़ती है, तो उसने कहा कि अब वो स्कूल नहीं जाती, उसने स्कूल जाना छोड़ दिया है. वजह पूछने पर कहा कि स्कूल काफ़ी दूर है और रोज़ आने जाने में कम से कम 15 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. 

पहाड़ी कोरवा बच्चे दिनभर बेमकसद घूमते मिलते हैं

जब मैंने उससे पूछा कि क्या उसे जंगल के रास्ते अकेले स्कूल जाते हुए डर लगता था कि कहीं कोई जानवर हमला कर दे तो? उसने कहा कि पहली बात तो जंगल में जानवर अब हैं नहीं, कोई-कोई भालू है, पर जानवर से डर नहीं लगता है. “जानवर से डर नहीं लगता है?” “जानवर से तो डर नहीं लगता है, हाँ आदमी से डर लगता है.” 

दरअसल उर्मिला ने शायद पीछा छुड़ाने के इरादे से कह दिया था कि हाँ वो स्कूल जाती है. लेकिन जब मैं लगातार स्कूल और पढ़ाई के बारे में बात करता रहा तो उसने बता दिया कि उसने हाई स्कूल में दाख़िला लिया तो था, पर एक साल बाद ही स्कूल छोड़ दिया.

मैंने इस बात को और ना खींचने का फ़ैसला किया. अब मैंने उसके परिवार के बारे में बातचीत शुरू की. मैंने उर्मिला से उसके माँ बाप के बारे में पूछा. उसने कहा माँ बाप नहीं हैं. वो बहुत छोटे-छोटे वाक्यों में बात कर रही थी. आमतौर पर आदिवासी बहुत कम बोलते हैं, कई बार तो हाँ या ना में भी जवाब नहीं मिलता.

उसके माँ बाप से जुड़े मैंने कई सवाल किये. इन सवालों के जवाब में उसने बताया कि उसके माँ बाप दोनों ही जीवित हैं, लेकिन उसके साथ नहीं रहते हैं. मुझे लगा कि वो मज़दूरी के सिलसिले में कहीं बाहर गए होंगे. लेकिन उसने बताया कि उसके माँ बाप अब अलग हो चुके हैं. उसकी माँ किसी और पुरूष के साथ चली गई है.

पिता, माँ के जाने के बाद जंगल में चला गया है, और वहीं रहता है. मैंने उससे पूछा कि क्या कभी उन्होंने अपने पिता को वापस नहीं बुलाया. इसके जवाब में उसका कहना था कि कई बार कोशिश की थी लेकिन उसके पिता जंगल में ही रहना चाहते हैं, घर नहीं आना चाहते. 

उर्मिला के मां बाप अलग हो चुके हैं

उर्मिला ने बताया कि वो और उसका एक भाई अपने दादा-दादी के साथ रह रहे हैं. बातचीत में उसने यह भी बताया कि उसकी माँ जब उसके पिता से अलग हुई तो वो बहुत छोटी थी.

मैंने जब उससे पूछा कि क्या उसे बुरा लगता है कि उसके माँ बाप अलग हो गए और परिवार को छोड़ कर चले गए, तब उर्मिला का कहना था “नहीं बुरा क्यों लगेगा?”.

वो कहती है माँ को कोई और अच्छा लगा तो वो उसके साथ चली गई. उर्मिला ने बताया कि उसके गाँव में पाँचवीं-छठी क्लास तक आते-आते लड़के लड़कियों की शादी हो जाती है. अगर कोई लड़का और लड़की बिना शादी के भी साथ रहना चाहे तो वो रह सकते हैं. 

पहाड़ी कोरवा में अगर लड़का और लड़की बिना शादी के साथ रह रहे हैं तो भी वो बच्चे पैदा कर सकते हैं. लेकिन बच्चे पैदा होने के बाद भी दोनों को अलग होने की छूट होती है. इस सूरत में बच्चे लड़के या लड़की के माँ बाप के पास रहते हैं. 

उर्मिला के घर से निकलकर हम दिन भर उसके गाँव के लोगों से मिलते रहे. गाँव में कई ऐसे परिवार मिले जहां माँ बाप अलग हो चुके हैं. कुछ परिवार ऐसे भी थे जिसमें पिता की मृत्यु हो जाने के बाद, माँ अपने बच्चों को छोड़ कर किसी दूसरे पुरुष के साथ रहने लगी है.

लेकिन किसी भी परिवार के बच्चों या बुज़ुर्गों से इस तरह की घटनाओं पर किसी तरह के अफ़सोस या नाराज़गी की बात सुनने को नहीं मिली. इस बस्ती में दिनभर बच्चे इधर-उधर बेमक़सद घूमते नज़र आए. 

छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के ठिर्रीआमा में कुल 31 पहाड़ी कोरवा परिवार हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार इस गाँव की आबादी 149 बताई गई है. इनमें से 70 पुरुष और 79 महिलाएँ हैं.

हमने कई लोगों से गाँव की आबादी पता करने की कोशिश की, लेकिन किसी से भी सही-सही जानकारी नहीं मिली. हम पूरा दिन इस गांव में थे, इस दौरान हमें नहीं लगा कि इस गाँव में इतनी आबादी है. हालाँकि यह भी हो सकता है कि जब तक हम इस गाँव में पहुँचे, तब तक कुछ लोग जंगल के लिए निकल गए हों.

वैसे भी पहाड़ी कोरवा बाहरी लोगों से मिलने में कतराते हैं. जैसे ही कोई बाहरी लोग इनकी बस्तियों में पहुँचते हैं, ये घर के पीछे की तरफ़ से चुपचाप जंगल के लिए निकल जाते हैं. इसलिए हो सकता है कि हमारे पहुँचने पर भी यही हुआ हो. पहाड़ी कोरवा को छत्तीसगढ़ में पीवीटीजी यानि आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है.

2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या लगभग 30 हज़ार बताई गई है. इन आदिवासियों में महिलाओं की तादाद ज़्यादा दर्ज की गई है.

उर्मिला और उनकी सहेलियों के अलावा इस गाँव में छोटे बच्चों और कुछ जवान लड़कों से हमारी मुलाक़ात हुई. लेकिन इन लड़के लड़कियों में ज़िंदगी के प्रति कोई ललक नज़र नहीं आई.

वो अपनी ज़िंदगी को लेकर किसी से बात करने में कोई रुचि नहीं लेते हैं. पूरा समाज एक अवसाद में घिरा नज़र आता है. ऐसा नहीं है कि प्रशासन को इस बात का एहसास नहीं है.

उसे इस बात का अहसास है कि इस समाज में जनसंख्या वृद्धि दर नेगेटिव है. प्रशासन ने इस समाज के लिए कई कोशिशें की हैं. इस गाँव में एक प्राइमरी स्कूल खोला है.

स्कूल फ़िलहाल कोविड की वजह से बंद हैं, लेकिन जब खुलता है तो बच्चों को दोपहर का खाना मिलता है. गाँव के लगभग हर घर में रात को रोशनी के लिए सोलर पैनल का एक छोटा सा प्लांट लगा है.

सभी परिवारों को राशन भी मिलता है. लेकिन इसके बावजूद इस समाज में एक शिथिलता नज़र आती है. प्रशासन के सारे प्रयास बेकार साबित होते दिखाई देते हैं. 

पहाड़ी कोरवा बच्चा ऐसे बैठा है मानो तप कर रहा है

इस समाज के नौजवानों में ज़िंदगी के प्रति कोई मोह अगर नज़र नहीं आता है तो उसकी कोई एक वजह ढूँढना संभव नहीं है.

मामला पेचीदा है, और वो केन्द्र या राज्य की राजधानी में बनी योजनाओं या नीतियों से नहीं सुलझ सकता. क्योंकि ये नीतियाँ आमतौर पर किसी एक ख़ास इलाक़े या समूह पर फ़ोकस ना होकर पूरे देश या राज्य के लिए बनाई जाती हैं.

इस गाँव के लड़के-लड़कियों के साथ बिताए समय के बाद मुझे जो समझ में आया कि इन आदिवासी लड़के लड़कियों को जीने के लिए मोटिवेट करने की ज़रूरत है.

यह मोटिवेशन दो-चार दिन में नहीं हो सकता, क्योंकि प्रशासन हो चाहे कोई संस्था एक लंबा समय तो इन आदिवासियों का भरोसा जीतने में ही लग जाएगा. लेकिन मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि अगर कोई ऐसी कोशिश करता है तो यह काम किया जा सकता है. 

मसलन इन आदिवासियों के हर घर में तीर कमान मौजूद है, जो कभी शिकार के लिए इस्तेमाल होता था. लेकिन अब शिकार ना के बराबर होता है.

ये आदिवासी कभी कभार गुलेल से कोई चिड़िया या गिलहरी मार लेते हैं. जब हमने उन्हें तीर से निशाना लगाने के लिए कहा तो वो बहुत उत्साहित नहीं दिखाई दिए. लेकिन हमारे एक दो बार कहने पर वो तीर कमान ले आए. उसके बाद जब हमने उनके निशाने की तारीफ़ की तो उन्हें मज़ा आने लगा.

गाँव के कई लड़कों के अलावा बुज़ुर्गों ने भी निशाना लगाया. इसके बाद उन्होंने बताया कि एक बार उनको कोरबा ले जाया गया था, जहां तीरंदाज़ी कराई गई थी. लेकिन यह एक बार का आयोजन बन कर रह गया.

इस खेल में मुझे जो समझ में आया कि इन आदिवासियों के साथ अगर समय बिताया जाए तो इनका भरोसा जीता भी जा सकता है और इनमें भरोसा पैदा भी किया जा सकता है.

लेकिन उतने ही यक़ीन के साथ मैं यह भी कह सकता हूँ कि अगर यह काम नहीं किया गया तो इस आदिवासी समूह के वजूद को ख़त्म होने से नहीं रोका जा सकेगा.

सरकार ने इन आदिवासियों को एक अच्छी मंशा के साथ एक जगह पर बसा दिया था, लेकिन मंशा अच्छी होने मात्र से किसी समाज या देश का भला तो नहीं होता है. 

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