HomeAdivasi Dailyविधान सभा चुनाव: आदिवासियों के लिए बीजेपी की घोषणाएं प्रतीकात्मक ज़्यादा हैं

विधान सभा चुनाव: आदिवासियों के लिए बीजेपी की घोषणाएं प्रतीकात्मक ज़्यादा हैं

इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि मोदी सरकार ने आदिवासियों को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ला दिया है. राष्ट्रपति के पद पर द्रोपदी मुर्मू का चुनाव भी बेशक एक बड़ा राजनीतिक फैसला था. लेकिन जब आदिवासी समुदायों के आर्थिक और सामाजिक विकास के ठोस कामों की बात आती है तो इस सरकार का रिकॉर्ड और दावों में तालमेल नहीं है.

इस चुनावी मौसम में आदिवासियों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विशेष फोकस को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और यहां तक कि तेलंगाना में अपने ज़्यादातर चुनावी अभियान के भाषणों में प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि उनकी सरकार आदिवासी समाज के विकास के लिए प्रतिबद्ध है.

यहां तक ​​कि उन्होंने यह भी घोषणा की कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कड़ी मेहनत की है, जबकि कांग्रेस ने इन सभी वर्षों में उन्हें केवल वोट बैंक के रूप में माना है.

15 नवंबर को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव से दो दिन पहले पीएम मोदी ने आदिवासी कल्याण के लिए 24,000 करोड़ रुपये की योजनाओं की घोषणा की.

यह घोषणा उस दिन हुई जिस दिन मोदी सरकार ने पहले आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जयंती को चिह्नित करने के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ घोषित किया था. एक हफ्ते पहले मोदी ने यह भी कहा था कि केंद्र सरकार ने आदिवासी कल्याण के लिए बजट में पांच गुना वृद्धि की है हालांकि यह वृद्धि पिछले कुछ वर्षों में बजटीय आवंटन में समग्र उछाल के समानुपाती है.

विधानसभा चुनावों में आदिवासियों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सभी पांच राज्यों में आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या है और इससे नतीजे भी बदलते रहते हैं.

आदिवासी आबादी

2011 की जनगणना के मुताबिक, मध्य प्रदेश में आदिवासी कुल आबादी का 21 प्रतिशत हैं और 230 विधानसभा सीटों में से 47 उनके लिए आरक्षित हैं. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की आबादी 30 प्रतिशत है और 90 में से 29 आरक्षित सीटों के साथ एक कमांडिंग स्थिति हैं.

वहीं राजस्थान में लगभग 13.5 प्रतिशत आदिवासी हैं लेकिन वे मेवाड़ क्षेत्र में नतीजों को प्रभावित करने के लिए जाने जाते हैं. 200 सदस्यीय विधानसभा की 25 सीटें आदिवासी उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं.

तेलंगाना में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या कुल 119 में से 9 है और आदिवासी कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हैं.

आदिवासियों के लिए चुनावी वादे

2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से उन्होंने समय-समय पर इसी तरह की घोषणाएं की हैं, खासकर चुनाव प्रचार के दौरान…भारत के राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू के नामांकन को भाजपा ने आदिवासियों को सशक्त बनाने में अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में गिना है.

साथ ही बीजेपी ने चुनाव अभियानों में आदिवासी प्रतीकों का आह्वान किया है और उन्हें राजनीतिक स्मृति में सबसे आगे लाया है.

यह घोषणा करते हुए कि उनका जन्म “आदिवासियों की सेवा करने के लिए हुआ है” प्रधानमंत्री ने हाल ही में छत्तीसगढ़ के बिश्रामपुर में एक चुनावी रैली में पूछा कि क्या किसी ने कभी सोचा था कि एक आदिवासी महिला भारत की राष्ट्रपति बनेगी.

इसी तरह समुदायों के बीच नए हिंदू प्रतीक बनाने की भाजपा की रणनीति के मुताबिक मोदी ने हाल ही में राजस्थान के बांसवाड़ा के आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी गोविंद गुरु की भूमिका को भी याद किया. बाद में मध्य प्रदेश के सिवनी में उन्होंने लोगों को यह भी याद दिलाया कि केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आदिवासी मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया था.

इससे पहले बीजेपी गोंड रानी रानी दुर्गावती या रानी कमलापति जैसी आदिवासी प्रतीकों की वीरता का भी बखान करती रही है. भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार द्वारा भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति स्टेशन कर दिया गया.

हालांकि, आदिवासी कार्यकर्ताओं के एक बड़े वर्ग का मानना है कि भाजपा की अधिकांश पहुंच नए प्रतीक और इतिहास बनाने, सकारात्मक संकेत देने और आदिवासियों को हिंदुत्व के दायरे में लाने के लिए आदिवासी व्यक्तियों को सशक्त बनाने जैसी प्रतिकात्मक बातों पर आधारित है.

उनका मानना है कि इनमें से किसी ने भी समुदायों को संवैधानिक वादे पूरा करने के केंद्र सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड में सुधार नहीं किया है. इसके अलावा जनजातीय कल्याण योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा बहुत राजनीतिक धूमधाम से घोषित किए जाने के बावजूद अधूरा है.

ऐसी सभी आलोचनाएं ऐसे समय में आई हैं जब राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे जैसे कांग्रेस नेताओं ने आदिवासियों के लिए “वनवासी” शब्द का उपयोग करने के लिए भाजपा पर हमला किया है, जिसे समुदाय में कई लोग अपमानजनक मानते हैं.

कांग्रेस के जनजातीय आउटरीच ने समुदायों के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों के कार्यान्वयन जैसे मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है. जैसे अनुसूचित क्षेत्रों में पैसा एक्ट, 1996 का उचित कार्यान्वयन जो ग्राम सभाओं को नीतिगत निर्णय लेने या वन अधिकार अधिनियम (2006) के कार्यान्वयन के लिए सशक्त करेगा जो भूमि और वन संसाधनों पर आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देता है.

कल्याणकारी योजनाओं का ख़राब कार्यान्वयन

आदिवासी समुदायों में कई लॉन्ग-टर्म वेलफेयर पर भाजपा का प्रदर्शन काफी खराब रहा है.

उदाहरण के लिए जुलाई 2022 में केंद्र सरकार द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत एक जवाब के मुताबिक, भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों ने वन अधिकार अधिनियम के अनुसार आदिवासियों को भूमि का मालिकाना हक देने में सबसे खराब प्रदर्शन किया.

जबकि आंध्र प्रदेश (77%) और ओडिशा (71%) ने दावे पूरे करने के 50.4 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से बेहतर प्रदर्शन किया. वहीं गुजरात (51%), असम (38%), मध्य प्रदेश (47%), उत्तराखंड (3%), महाराष्ट्र (46%), उत्तर प्रदेश (20%) जैसे राज्यों ने खराब प्रदर्शन किया.

भाजपा के नेतृत्व वाले राज्यों में से केवल त्रिपुरा ने 64 फीसदी के साथ राष्ट्रीय औसत से बेहतर प्रदर्शन किया. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश, जहां पिछले साल तक भाजपा का नेतृत्व था. वहां 2022 तक दावों की पूर्ति बेहद कम यानि 5 प्रतिशत थी.

हालांकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले राज्य जैसे छत्तीसगढ़ (53%) और राजस्थान (52%) या झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाले झारखंड (56%) ने भी बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है. लेकिन उनका प्रदर्शन बीजेपी द्वारा संचालित राज्यों की तुलना में बहुत बेहतर है.

इसी तरह जनजातीय उप-योजना (TSP) को लागू करने का मोदी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड, जो आदिवासियों के लक्षित कल्याण के लिए केंद्रीय योजनाओं और केंद्र प्रायोजित योजनाओं का 8.2% निर्धारित करने का आदेश देता है, निराशाजनक है.

टीएसपी और अनुसूचित जाति उप-योजना (SCSP) के लिए फंड का डाइवर्जन, जिसके लिए केंद्र सरकार को दलितों के लक्षित कल्याण के लिए सभी केंद्रीय योजनाओं का 15.49% निर्धारित करना पड़ता है, पिछले 10 वर्षों में एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया है.

हालांकि, पिछली सभी सरकारों ने टीएसपी और एससीएसटी के लिए आवंटित धनराशि का इस्तेमाल किया था. लेकिन मोदी सरकार ने इन निधियों का एक बड़ा हिस्सा सड़क, फ्लाईओवर, भवन आदि जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर के काम के लिए इस्तेमाल किया है.

दिल्ली स्थित दलित और आदिवासी अधिकारों की वकालत करने वाले समूह, दलित मानवाधिकार आंदोलन के राष्ट्रीय अभियान के अनुसार, आदिवासियों के लिए लक्षित बजटीय आवंटन आदर्श रूप से केंद्रीय और केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए आवंटन का 8.2% होना चाहिए. जबकि 2018-19 में ये 2.5% और 2022-23 में 3.6%, 2023-24 में और भी कम होकर 1.7% हो गया.

समूह ने यह भी बताया कि आदिवासियों के लिए लक्षित आवंटन के रूप में घोषित की गई इनमें से कई योजनाओं का उपयोग आदिवासियों के लिए विशिष्ट सशक्तिकरण कार्यक्रमों जैसे छात्र छात्रवृत्ति, कौशल विकास कार्यक्रम आदि के बजाय क्षेत्र के सामान्य कल्याण के लिए किया जाता है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, आदिवासियों के खिलाफ अपराध फिर से बढ़ रहे हैं. आदिवासियों के खिलाफ रिपोर्ट किए गए अपराध 2016 में 6,573, 2017 में 7,125, 2018 में 6,528, 2019 में 8,257 और 2020 में 8,272 थे.

चुनाव के मौसम में आदिवासियों को आकर्षित करने के लिए बड़ी घोषणाओं के सिलेसिले में भी प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणाएं की हैं. मौजूदा विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री द्वारा विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी, जिसे पहले आदिम जनजातीय समूह कहा जाता था) के कल्याण के लिए 24,000 करोड़ रुपये की घोषणा भी इसी उद्देश्य से की गई है.

मोदी ने यह भी संकेत दिया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और पेयजल से संबंधित इन नई योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित और पर्यवेक्षण से किया जाएगा. हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इन योजनाओं में केंद्र की कोई जवाबदेही होगी या नहीं.

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