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स्कूल के मिड डे मील में अंडा ना मिलने से नाराज़ लोगों ने प्रदर्शन किया

तमिलनाडु की एक आदिवासी बस्ती के स्कूल में 9 बच्चों को मिड मील में अंडा ना दिया जाना मुद्दा बन गया. काश देश के बाक़ी राज्यों में भी समुदाय सरकारी योजनाओं की ऐसी निगरानी कर सके.

तमिलनाडु में इरूला समुदाय के बच्चों को मध्यान्ह भोजन (midday meal) में अंडा ना दिए जाने से लोग नाराज़ हैं. तमिलनाडु के कृष्णागिरी ज़िले की कदम्बकुटई आदिवासी बस्ती के स्कूल से यह ख़बर मिली है. इस सिलसिले में स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया है.

इस बस्ती के नौ इरुला बच्चे, पांच लड़के और चार लड़कियां कृष्णागिरी के डेंकानिकोट्टई तालुक के कदंबकुटटई में पंचायत यूनियन प्राइमरी स्कूल में पढ़ रहे हैं. तमिलनाडु सरकार राज्य में अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए पौष्टिक दोपहर के भोजन योजना पर जोर दे रही है. 

लेकिन यहां के लोगों का कहना है कि इरुला बच्चों को एक दिन में एक अंडा भी नहीं मिल रहा है. इस स्कूल में रसोइया नहीं है और स्थानीय महिला एम. देवयानी उनके लिए खाना बनाती है. उन्होंने कहा कि स्कूल को दोपहर के भोजन के लिए दो महीने में एक बार सूखा राशन मिलता है. 

देवयानी ने यह भी कहा कि उन्हें दोपहर के भोजन का प्रबंध करने वालों की तरफ़ से दो सप्ताह के लिए अंडे मिलते थे.  उन्हें अंडे और अन्य सामान स्कूल तक ख़ुद ही ले जाना पड़ता था.

स्कूल के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा कि उन्होंने दोपहर के भोजन के प्रबंध करने वालों को अंडे की आपूर्ति करने के लिए याद दिलाया था. लेकिन अभी तक अंडे की सप्लाई शुरू नहीं हुई है.  प्रशासनिक अधिकारियों का दावा है कि बारिश के कारण अंडे की आपूर्ति नहीं की जाती है.

आदिवासी इलाक़ों में मिड डे मील से ड्रॉप आउट और कुपोषण क़ाबू

2018 में ओडिशा के कोरापुट ज़िले में स्कूलों में ड्रॉप आउट और कुपोषण से लड़ने में मिड डे मील के योगदान पर एक अध्ययन किया गया. इस अध्ययन में यह दावा किया गया है कि मिड डे मील का निश्चित तौर पर स्कूल ड्रॉप आउट रेट को कम करने में योगदान रहा है. 

इसके साथ यह अध्ययन दावा करता है कि स्कूलों में दोपहर का गर्म भोजन उपलब्ध करवाने से भूख और कुपोषण से लड़ने में मदद मिली है. इस अध्ययन में बताया गया है कि 6-9 साल के बच्चों में कुपोषण को कम करने में दोपहर के भोजन की योजना ने मदद की है. 

हालाँकि इस अध्ययन में यह भी नोट किया गया है कि 10-13 साल के बच्चों के लिए जो मिड डे मील दिया जाता है वह पर्याप्त नहीं है. यह अध्ययन ओडिशा के सबसे पिछड़े ज़िलों में से एक में किया गया है. लेकिन देश भर का अनुभव बताता है कि स्कूलों में गर्म भोजन परोसने से आदिवासी इलाक़ों के बच्चों में स्कूल के प्रति आकर्षण बढ़ा है. 

तमिलनाडु से किसी स्कूल में आदिवासी बच्चों को मिड डे मील में कोताही हैरान करने वाली बात नज़र आती है. लेकिन अच्छी बात यह है कि अन्य राज्यों में जहां अक्सर इस तरह के मामलों में उदासीनता देखी जाती है, वहीं तमिलनाडु में लोगों ने इस मसले को प्रशासन के सामने उठाया है. 

तमिलनाडु से ही मिड डे मील की शुरूआतें हुई थी

आज बेशक देश के सभी प्राइमरी स्कूलों में बच्चों को दोपहर में गर्म भोजन परोसा जाता है. लेकिन स्कूल में बच्चों को खाना देने की शुरुआत तमिलनाडु से ही हुई थी. इस सिलसिले में उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन 1920 में पहली बार चेन्नई कॉरपोरेशन के स्कूलों में बच्चों को खाना परोसने की शुरुआत की गई थी.

उस समय भी यह पाया गया था कि मिड डे मील की शुरुआत से स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी थी. इसके साथ ही ड्रॉप आउट रेट कम हुई थी. 1956 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज ने प्राइमरी स्कूलों में ग़रीब परिवारों के सभी बच्चों के लिए फ़्री खाने की व्यवस्था की थी. 

सन 1989 में मिड डे मील में अंडा देने की शुरुआत भी तमिलनाडु से ही की गई थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करूणानीधि ने इसकी शुरुआत की थी. इसी साल जुलाई महीने में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 1545 स्कूलों में सुबह के नाश्ते की योजना की घोषणा की थी. 

सरकार की तरफ़ से दी गई जानकारी के अनुसार इस योजना पर कुल 33.56 करोड़ रूपया खर्च किया जाएगा. इस योजना से कम से कम 1.14 लाख बच्चों को सुबह पौष्टिक नाश्ता मिल पाएगा. 

(इस स्टोरी में इस्तेमाल की गई तस्वीर झारखंड के एक स्कूल की है. यह तस्वीर मैं भी भारत के हाल के झारखंड दौरे में ली गई थी.)

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