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मध्य प्रदेश में आदिवासी के रोज़ी रोटी, बिजली-पानी के मुद्दों और वादों का फ़ासला

मध्य प्रदेश में कल यानि 17 नवंबर को वोट डाले जाएंगे. यहां पर 47 विधान सभा सीटें आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित हैं. इस राज्य में आदिवासी अपने मान-सम्मान और जान को बचाने की जद्दोजहद में हैं. यहां पर कुपोषण और उससे बचने के लिए पलायन बड़ा मुद्दा है. यहां पर आदिवासी को बिजली-पानी और सड़क जैसी मामूली सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं.

देश में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी (Tribal population) मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में है. लिहाजा 17 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए इनको अपनी ओर करने के लिए बीजेपी-कांग्रेस (BJP-Congress) एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं.

दोनों ही प्रमुख पार्टियां मतलब बीजेपी और कांग्रेस अपने-अपने तरीके से आदिवासी समुदाय (Tribal community) के लिए लुभावने वादे किये हैं.

राज्य की सियासत में आदिवासी समुदाय इतना अहम क्यों है? दरअसल, मध्य प्रदेश के 54 जिलों में 56 अनुसूचित जनजातियां हैं. इनमें छह आदिवासी समुदाय हैं- भील, गोंड, कोल, कुर्क, सहरिया और बैगा. सूबे में अनुसूचित जनजातियों के लिए 47 सीटें आरक्षित है जो किसी भी पार्टी की जीत के लिए बेहद अहम है.

ऐसे में राज्य की आबादी का 21 प्रतिशत हिस्सा बनाने वाले आदिवासी समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए बीजेपी और कांग्रेस तमाम लुभावने वादे कर रहे हैं. सीएम शिवराज से लेकर पूर्व सीएम कमलनाथ बीते कई महीनों से लगातार आदिवासी बहुल इलाकों के दौरे पर हैं और उनसे संबंधित घोषणाएं कर रहे हैं.

लेकिन जब नई योजनाओं का वादा किया जा रहा है तो पूरे मध्य प्रदेश में आदिवासियों के लिए लक्षित अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों की स्थिति क्या है? उनकी शिक्षा, पोषण, रोज़गार और वन अधिकारों का क्या? ये देखना जरूरी है.

कुपोषण का साम्राज्य

देश के विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों में सूचीबद्ध सहरिया समुदाय राज्य के श्योपुर जिले में बहुसंख्यक जनजातीय आबादी बनाता है. जिसे कुछ समय पहले तीव्र कुपोषण के कारण कुछ लोगों द्वारा “भारत का इथियोपिया” कहा जाता था.

राज्य के महिला एवं बाल विकास विभाग के अधिकारी कुपोषण के आंकड़ों में गिरावट की ओर इशारा करते रहे हैं. लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि यह समस्या कई गांवों में प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य में बनी हुई है.

राज्य के डब्ल्यूसीडी विभाग को वित्तीय वर्ष 2022-23 में 22 लाख बच्चों के लिए पूरक पोषण सहायता कार्यक्रम के लिए 73,06,088 रुपये आवंटित किए गए थे. इस बजट में पिछले वर्ष की तुलना में 1 करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि देखी गई थी.

भोजन में दलिया, मूंगफली, लड्डू, अंडे, चिक्की आदि उपलब्ध कराने के लिए मुख्यमंत्री सुपोषण योजना में 2022-23 में पांच साल की उम्र तक 4 लाख 33 हज़ार महिलाओं और उनके बच्चों के लिए 61 लाख रुपये का बजटीय आवंटन किया गया. इस योजना का उद्देश्य कुपोषण और एनीमिया से निपटना था.

डब्ल्यूसीडी विभाग ने दावा किया कि 2022 में श्योपुर में 923 कुपोषित और 243 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चे थे. आंगनवाड़ी सिस्टम के हिस्से के रूप में डब्ल्यूसीडी विभाग छह वर्ष और उससे कम उम्र के प्रत्येक बच्चे पर प्रति दिन लगभग 8 रुपये खर्च करता है. यह तीन साल तक के बच्चों के लिए हर मंगलवार को 650 ग्राम पोषण से भरपूर भोजन का पैकेट वितरित करता है. जबकि तीन से छह साल की उम्र के बच्चों के लिए आंगनबाड़ियों में हर दिन दलिया, खिचड़ी, बेसन का हलवा और पौष्टिक भोजन के पैकेट दिए जाते हैं.

इसके अतिरिक्त चौहान सरकार ने अत्यंत पिछड़ी जनजातियों के प्रत्येक परिवार को 1,000 रुपये प्रति माह ट्रांसफर करके कुपोषण को खत्म करने के लिए 2017 में आहार अनुदान योजना शुरू की थी.

श्योपुर में इन दावों के बावजूद यहाँ के ज़िला अस्पताल में हमें कई अति कुपोषित बच्चे नज़र आए. जिला अस्पताल के एनआरसी में 12 कुपोषित बच्चों का इलाज चल रहा है जबकि कुछ अन्य को आईसीयू में स्थानांतरित किया गया है.

कई परिवारों ने आरोप लगाया कि यह राशि पिछले कुछ महीनों से नहीं मिल रही है. वहीं राज्य सरकार का दावा है कि योजना की शुरुआत के बाद से कुल 1,391 करोड़ रुपये ट्रांसफर किए गए हैं.

इसके अलावा पिछले साल सीएजी की एक रिपोर्ट में राज्य की पूरक पोषण योजना के हिस्से के रूप में वितरित लगभग 62 करोड़ रुपये की लागत वाले 10,000 मीट्रिक टन खाद्य पैकेटों के वितरण में अनियमितता की ओर इशारा किया गया था.

इसमें से श्योपुर के दो ब्लॉक में 5 करोड़ रुपए का खाद्यान्न आठ माह में वितरण के लिए स्वीकृत किया गया था लेकिन जांच में यह स्टॉक रजिस्टर में नहीं मिला.

‘सबसे गरीब’ जिले में बदलाव

श्योपुर के बाद बात करते हैं अलीराजपुर की, जिसे 2021 में नीति आयोग द्वारा जारी ‘बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ पर पूरे भारत में सबसे खराब माना गया था. साक्षरता दर 36 प्रतिशत थी, अत्यंत गरीब परिवारों का प्रतिशत 71 और लगभग 90 प्रतिशत था. आयोग के आंकड़ों के मुताबिक जिले में अधिकांश आबादी आदिवासी थी.

अलीराजपुर के आदिवासी गांव विंध्या की पहाड़ियों में बसे हुए हैं. इन गांवों में पीने का साफ़ पानी अभी तक नहीं पहुंचाया जा सका है. इस सिलसिले में अलीराजपुर में कांग्रेस के विधायक मुकेश पटेल ने MBB से बातचीत में यह दावा किया कि उन्होंने इस समस्या को ना सिर्फ़ विधानसभा में बार-बार उठाया है बल्कि अपने विधान सभा क्षेत्रों में पानी के टैंकर उपलब्ध कराए हैं.

उनके इस दावे की पुष्टि उनके इलाके के लोग करते हैं. लेकिन लोगों का कहना है कि यह समस्या का स्थाई समाधान तो नहीं है.

जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर नर्मदा में कई छोटे-छोटे द्वीपों पर कई गाँव फैले हुए हैं. जिनमें से प्रत्येक द्वीप या फलिया में दो से छह परिवार रहते हैं.

ककराना गांव के फलिया इलाके में पहाड़ियों में बकरी चराते हुए मिली रंपा की उम्र बामुश्किल 12-13 साल रही होगी. लेकिन वो स्कूल जाने की बजाए गाय चराती है.

अलीराजपुर के मज़दूर नेता शंकर तड़वाल ने इस सिलसिले में कहा,” यहां से मज़दूरी की तलाश में आदिवासी गुजरात, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में चले जाते हैं. इससे स्कूल का क्रम टूट जाता है. क्योंकि वे बच्चों को भी साथ ले जाते हैं. यहां रजिस्टर में उनका नाम चलता रहता है. लेकिन उनकी पढ़ाई छूट जाती है.”

वो आगे कहते हैं, “अफ़सोस की बात ये है कि यहां पर शिक्षा और जागरुकता की कमी इतनी है कि आदिवासी को न्यूनतम मज़दूरी का भी पता नहीं है. इसलिए यहां के लोगों का खूब शोषण होता है.”

नर्मदा किनारे बसे गांवों में मोबाइल टॉवर कम हैं. इसलिए यहां पर इंटरनेट कनेक्शन भी काम नहीं करता है. इसलिए लोगों को मीलों पैदल चल कर राशन लेने जाना पड़ता है.

इस इलाके के बारे अलीराजपुर कलेक्टर अभय अरविंद बेडेकर ने कहा,” हमेंइ स बात का अहसास है कि इंटरनेट की दृष्टि से ज़िले में कुछ शेडो एरिया हैं. प्रशासन इस दिशा में काम कर रहा है.”

वे नर्मदा किनारे बसे गांवों के बारे में कहते हैं, “प्रशासन उनकी समस्याओं को कम करने की दिशा में काम कर रहा है. प्रशासन के लोग समय-समय पर वहां जाते रहते हैं. कुछ आदिवासियों को अन्यत्र भूमि के पट्टे दिए गए हैं.”

अलीराजपुर के सिंधथोड़ी गांव के स्कूल की जर्जर हालत बता रही थी कि स्कूल भवन की मरम्मत का काम सालों से नहीं हुआ है. वहीं इस स्कूल में नाम तो 50 से ज्यादा बच्चों का लिखा हुआ है. लेकिन मुश्किल से 10 बच्चे स्कूल में मौजूद थे.

स्कूल में मौजूद मास्टर का कहना था कि उस दिन स्थानीय बाज़ार था इसलिए माता-पिता बच्चों को लेकर बाज़ार चले जाते हैं.

इस गांव तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं है. कोई बीमार होता है तो डोली बना कर उसे कंधों पर लाद कर या फिर खटिया पर डाल कर सड़क तक पहुंचाया जाता है.

राज्य में अब चुनाव प्रचार थम चुका है. कल यानि 17 नवंबर को राज्य में वोट डाले जाएंगें. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि राज्य में जो भी सरकार बने, वह सरकार आदिवासियों से किये गए वादों को पूरा करे.

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