HomeAdivasi Dailyआज भील आदिवासियों के मसीहा ‘गोविंद गुरु’ की जयंती

आज भील आदिवासियों के मसीहा ‘गोविंद गुरु’ की जयंती

आज भील आदिवासियों की मदद करने वाले गोविंद गुरु यानी गोविंद गिरी की जयंती है. उन्होंने भील आदिवासियों के उथान में बड़ा योगदान दिया है.

आज यानी 20 दिसम्बर को आदिवासियों के द्वारा पूजे जाने वाले गोविंद गुरु की जयंती है. राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित बांसवाड़ा के गोविंद गुरु को भगवान की तरह पूजा जाता है.

वैसे उनका नाम गोविंद गिरी है पर लोग उनके द्वारा किए हुए कामों और योगदान के कारण उन्हें गोविंद गुरु कहते है.

बांसवाड़ा के भील आदिवासी और बंजारा समुदाय के लोगों ने अपने समाज में गोविंद गुरु को उच्च दर्जा दिया हुआ है.

गोविंद गुरु न सिर्फ बांसवाड़ा इलाके के बड़े सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे बल्कि आदिवासियों को एकजुट करने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही है.

उन्होंने आदिवासियों के हित के लिए कई सारे आंदोलन भी किए है.

कौन थे गोविंद गुरु?

गोविंद गिरी यानी गोविंद गुरु का जन्म 20 दिसम्बर 1858 में राजस्थान के डूंगरपुर शहर के बासिया गाँव में हुआ. वह एक बंजारा परिवार से ताल्लुक रखते थे.

गोविंद गुरु के बेटों और पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद उन्होंने अध्यात्म का रास्ता चुना और वह एक संन्यासी बन गए. इसके बाद उन्होंने कोटा-बूंदी अखाड़े के साधु राजगिरी के शिष्य बने.

साधु राजगिरी के शिष्य बनने के बाद वह बेड़सा गाँव में अपनी धुनी स्थापित करने के साथ ही ध्वज लगाकर आस-पास के क्षेत्र के भील आदिवासियों को आध्यात्मिक शिक्षा देना शुरु किया.

उन्होंने भील आदिवासियों को संगठित करने के साथ ही भील आदिवासियों को सामाजिक और राजनीति के प्रति जागरुक करने के लिए साल 1883 में ‘सम्प सभा’ की स्थापित की थी.

गोविंद गुरु के द्वारा भील आदिवासियों के लिए सामाजिक सुधार का काम करने की वजह से वो बांसवाड़ा, डूंगरपुर और अन्य भील आदिवासियों के क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गए.

इसके बाद जब भील आदिवासियों ने जागीरदारों, राज्य कर्मचारियों एंव सामन्तों की बैठ-बेगार करना बंद कर दिया.

तब रियासतों के शासक यह देखकर चिन्तित हो गए और शासक ने भील आदिवासियों के संगठन को कुचलने के लिए षड्यंत्र करना शुरू कर दिया.

फिर साल 1911 में गोविंद गुरु ने “भगत पंथ” की स्थापना की.

इसमें उन्होंने भील आदिवासियों को धर्म के प्रति जागरुक करने के साथ-साथ उन्हें सामंतों एंव जागीरदारों के शोषण के विरुद्ध तैयार करना शुरू कर दिया.

इसके अलावा गोविंद गुरु ने राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भगत आंदोलन’ चलाया.

उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली है लेकिन जब उन्होंने देखा कि इलाके के आदिवासी शिक्षा के अभाव में खराब जीवन गुजार रहे हैं.

तो वह आदिवासियों को अपनी कविताएं सुनाकर उन लोगों को संदेश देने के साथ ही वह लोगों से मिलते थे और उन्हें जागरुक एंव एकजुट करने की कोशिश करते थे.

इसके अलावा गोविंद गुरु ने संप सभा की स्थापना भी की है. जिसके जरिए उन्होंने इलाके के लोगों को शराब, मांस, चोरी आदि से दूर रहने के साथ मेहनत करके सादा जीवन जीने की प्रेरणा दी.

इसके साथ ही उन्होंने बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा, स्वच्छता का भी संदेश दिया था.

गोविंद गुरु ने आदिवासियों से कहा था कि अपने झगड़े को राजे-रजवाड़ों की अदालत की जगह खुद के स्तर पर यानी पंचायत में सुलझाएं.

इसके अलावा अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान देने बिल्कुल बंद करें और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें.

गोविंद गुरु आदिवासियों के बीच में स्वदेशी के प्रचार के लिए गांव-गांव घूमते थे.

जल्दी ही उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी. लाखों भक्त बन गए. हर साल 17 नवंबर को मानगढ़ की पहाड़ी पर वह वार्षिक मेला आयोजित करते थे. जिसमें भारी संख्या में आदिवासी और अन्य इलाके के लोग घी के बर्तन और परंपरागत शस्त्र लेकर आते थे.

मेले में सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं की चर्चा होती थी. इससे इस इलाके में ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय रजवाड़ों के खिलाफ गुस्सा फैलने लगा.

ऐसे ही एक सालाना जलसे में 1913 में अंग्रजों अपनी सेना के साथ उन्हें घेर लिया. गोविंद गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया गया. वहां तब लाखों भगत आ चुके थे. पुलिस ने कर्नल शटन की अगुवाई में फायरिंग शुरू कर दी.

इस फायरिंग में कम से कम 1500 आदिवासी मारे गए.

गोविंद गुरु के पैर में गोली लगी. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. लेकिन बाद में फिर फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया.

हालांकि, साल 1923 में गोविंद गुरु के अच्छे बर्ताव के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने फिर लोक सेवा से जुड़े काम करना जारी रखा.

लेकिन 30 अक्तूबर 1931 को गुजरात राज्य के कम्बोई गाँव में उनका निधन हो गया. जिसके बाद कम्बोई गाँव में ही उनकी समाधि बना दी गई. जहां हर साल बड़े पैमाने पर लोग पहुंचते हैं.

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