1980 में एक प्रमुख आदिवासी लेखिका, कार्यकर्ता और शिक्षाविद् रोज़ केरकेट्टा (Rose Kerketta) ने झारखंड (Jharkahnd) के सिमडेगा जिले (Simdega district) के कोलेबिरा (Kolebira) विधान सभा से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था. लेकिन एक आदिवासी महिला होने के कारण उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था.
उनकी 54 वर्षीय बेटी वंदना टेटे (Vandana Tete) बताती हैं, “वह दो लड़ाइयाँ लड़ रही थीं – पहली, एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लड़ रही थी और दूसरी, प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता से जूझ रही थी. उनके कई समर्थक थे लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण था जब चुनाव से एक दिन पहले उनका चुनाव चिन्ह बदल दिया गया. इसे या तो एक साजिश या सत्ता के खेल के रूप में देखा जा सकता है जो महिलाओं को राजनीति के साथ-साथ विधानसभा में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से रोक रहा है.”
वहीं रोज़ केरकेट्टा ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था, “लोकतंत्र और चुनाव पुरुषों के खेल बन गए हैं. जिन्हें वे अपनी शर्तों पर खेलने की कोशिश करते हैं. वे नहीं चाहते कि महिलाएं चुनाव में हिस्सा लें. वे महिलाओं को राजनीति में आने से रोकने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति न केवल हमारे लोकतंत्र को हिंसा-मुक्त बनाएगी बल्कि इसके वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने और गरिमा बनाए रखने में भी मदद करेगी.”
वंदना टेटे, जो एक लेखिका भी हैं. उनका कहना है कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर केरकेट्टा के बयान का व्यापक अर्थ है. भले ही लोग आज इस बयान की अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्या करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन केरकेट्टा को उन आदिवासी महिलाओं के प्रति सहानुभूति है, जिन्हें राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रतीकात्मक रूप से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है लेकिन संसद या विधानसभा में नहीं भेजा जाता है.
टेटे का कहना है कि हम महिलाओं को आरक्षण देने की कितनी भी बात कर लें लेकिन चीजों को कहने और उन्हें पूरा करने में बहुत बड़ा अंतर है. उनका मानना है कि पार्टी आदिवासी महिलाओं को न तो टिकट देती है और न ही पार्टी में वो दर्जा देती है जिसकी वो हक़दार हैं.
उनका मानना है कि विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के प्रावधान के बावजूद कुछ खास उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
128वां संविधान संशोधन विधेयक 2023 हाल ही में पारित किया गया था लेकिन इसके कार्यान्वयन में लंबा समय लगेगा. हालांकि, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आदिवासियों, विशेषकर आदिवासी महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व से संबंधित मामलों पर अक्सर बहस नहीं होती है.
2019 के लोकसभा चुनाव में 8,049 उम्मीदवारों में से 724 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था. जो कि कुल उम्मीदवारों का केवल 9 प्रतिशत था. लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित हैं. वर्तमान में लोकसभा में 543 सीटें हैं. 2019 में 78 महिलाएं लोकसभा के लिए चुनी गईं, जो कुल सीटों का 17 प्रतिशत थीं.
महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बाद लोकसभा में महिलाओं के लिए 181 सीटें आरक्षित हो जाएंगी. फिलहाल लोकसभा में महिलाओं की संख्या इस आंकड़े की आधी ही है. एससी (84) और एसटी (47) के लिए एक सौ इकतीस सीटें आरक्षित की गई हैं.
अगर महिला आरक्षण विधेयक पर विचार किया जाए तो आदिवासियों के लिए निर्धारित 47 सीटों में से 15.5 प्रतिशत सीटें आदिवासी महिलाओं के लिए आरक्षित होनी चाहिए. फिलहाल लोकसभा में सिर्फ 10 आदिवासी महिलाएं सांसद हैं.
आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, टिकट देने के स्तर से लेकर लोकसभा तक पहुंचने वाली आदिवासी महिलाओं की संख्या केवल प्रतीकात्मक है.
राज्य विधानसभा में राजनीतिक दलों का उदासीन रवैया देखा जा सकता है. झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की अड़तालीस वर्षीय सीता सोरेन संथाल परगना की जामा सीट से सांसद हैं. झामुमो न सिर्फ झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी है बल्कि आदिवासियों की भी सबसे बड़ी पार्टी है.
सीता सोरेन झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष शिबू सोरेन के बेटे दिवंगत दुर्गा सोरेन की पत्नी हैं. वह परिवार की सबसे बड़ी बहू और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी हैं. वह झामुमो के टिकट पर जामा सीट से चुनाव जीती हैं लेकिन सोरेन कैबिनेट में जगह नहीं बना सकीं.
सीता सोरेन ने अपनी ही पार्टी और सरकार पर हमला बोला. उनके बागी तेवर कई बार सोरेन सरकार के लिए चिंता का कारण बने हैं. सोरेन महिलाओं के मुद्दों पर भी मुखर रही हैं. उन्होंने 24 अगस्त को महिला आरक्षण और अन्य मुद्दों पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र भेजा था.
उनका मानना है कि झारखंड में राजनीतिक दल आदिवासी महिलाओं को विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं देना चाहते हैं.
सोरेन कहती हैं, “कोई भी पार्टी महिलाओं को नेता के रूप में नहीं चाहती. आदिवासी महिलाओं का इस्तेमाल वोट मांगने के लिए किया जाता है. इन्हें देवी माना जाता है. महिला सशक्तिकरण को लेकर बातें तो होती हैं लेकिन उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता. विधानसभा और संसद में महिलाओं की संख्या देखी जा सकती है. वहां मौजूद एक-दो तो परिस्थितियों के कारण हैं. आदिवासी महिलाओं को व्यवस्था से बाहर क्यों रखा जाता है? बहुत सारे कानून और अधिकार हैं. फिर भी उन्हें कष्ट सहना पड़ता है.”
उनका मानना है कि आदिवासी समुदाय की महिलाएं शिक्षित और सशक्त हैं लेकिन उन्हें उचित प्राथमिकता नहीं दी जाती है और आदिवासी महिलाओं को दबाने की प्रवृत्ति होती है. वैसे सोरेन महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने से खुश हैं लेकिन उन्हें यकीन नहीं है कि यह कब लागू होगा.
झारखंड विधानसभा में 28 सीटें अनुसूचित जनजाति और नौ सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. 2019 विधानसभा चुनावों के विश्लेषण से पता चलता है कि आदिवासी महिलाओं ने आदिवासी पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया था. कुल 76 लाख पुरुषों और 74 लाख महिलाओं ने वोट किया था. आदिवासी पुरुषों की भागीदारी 21.67 लाख और आदिवासी महिलाओं की भागीदारी 21.70 लाख रही. लेकिन इस चुनाव में 1,088 पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में सिर्फ 127 महिला उम्मीदवार थीं.
2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो (43 सीटें), कांग्रेस (33 सीटें) और राजद (सात सीटें) ने मिलकर चुनाव लड़ा था. झामुमो और कांग्रेस ने छह-छह महिलाओं को चुनाव लड़ने का मौका दिया.
झामुमो की सूची में जहां दो आदिवासी महिला उम्मीदवार थीं वहीं कांग्रेस ने किसी भी आदिवासी महिला को मौका नहीं दिया था. इस चुनाव में बीजेपी ने 79 उम्मीदवारों और सात महिला उम्मीदवारों में से तीन आदिवासी महिलाओं को मौका दिया.
गीताश्री उरांव 2009 में गुमला जिले के सिसई विधानसभा से कांग्रेस से विधायक थीं. वह यूपीए सरकार में शिक्षा मंत्री थीं. वह 2014 में हार गईं. इसके बाद कांग्रेस पार्टी ने उन्हें 2019 में टिकट नहीं दिया. इसके बजाय गठबंधन के तहत सीट झामुमो को आवंटित कर दी गई.
झामुमो ने पुरुष आदिवासी उम्मीदवार को टिकट दिया. इसपर उरांव ने कांग्रेस आलाकमान के सामने अपनी नाराजगी जाहिर की लेकिन उन्होंने पार्टी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा. बाद में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया.
उरांव कहती हैं, “चाहे जल, जंगल, ज़मीन बचाने की बात हो या कोई आंदोलन…पत्थलगड़ी जैसे बड़े आंदोलनों में भी आदिवासी महिलाएं आगे रही हैं और हमेशा रहती हैं. लेकिन विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व नहीं है. जब महिलाएं सामाजिक आंदोलनों में भाग लेती हैं तो उन्हें राजनीति में भी उचित मौका दिया जाना चाहिए. आज राजनीतिक दलों में महिलाओं को बहुत ही सहजता से लिया जाता है. पार्टी नेताओं का मानना है कि पार्टी में महिलाओं का होना जरूरी हैलेकिन उन्हें विधानसभा में मौका देकर मजबूत करना जरूरी नहीं है.”
उनका मानना है कि सदन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व होना बहुत जरूरी है ताकि उनसे संबंधित नीतियां बनाते समय उनकी सलाह ली जा सके. उनके प्रतिनिधित्व के बिना कोई भी नीति नहीं बनाई जानी चाहिए. यह तभी संभव होगा जब राजनीतिक दल उन्हें सदन में भेजेंगे.
उरांव की यह भी मांग है कि महिला आरक्षण विधेयक की तरह सभी राजनीतिक दलों को पार्टी के भीतर पदों और टिकटों दोनों में महिलाओं को आरक्षण देना चाहिए.
आमतौर पर अगर महिला उम्मीदवार विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीत हासिल नहीं कर पाती हैं तो उन्हें शायद ही दूसरा मौका दिया जाता है. (गीताश्री) उरांव की तरह सुंदरी तिर्की को भी कांग्रेस ने रांची की खिजरी विधानसभा सीट से दूसरी बार टिकट नहीं दिया. उनकी जगह एक आदिवासी पुरुष उम्मीदवार को टिकट मिला. लेकिन 52 वर्षीय तिर्की पिछले 15 वर्षों से कांग्रेस की सेवा कर रही हैं.
झारखंड महिला कांग्रेस की महासचिव तिर्की कहती हैं, “आदिवासी महिलाएं ईमानदार हैं और सड़कों पर उतरने और संसद में अपनी राय रखने में सक्षम हैं. लेकिन राजनीतिक दल उनकी उपेक्षा करते हैं. एक बार चुनाव हारने के बाद मुझे दोबारा टिकट नहीं दिया गया. मैंने इसकी शिकायत सोनिया गांधी से की थी. हम आबादी का आधा हिस्सा हैं. इसलिए हमें समान रूप से टिकट मिलना चाहिए. हम विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण चाहते हैं ताकि राजनीतिक दलों के पास महिलाओं को टिकट न देने का विकल्प न रहे.”
देश के कई राज्यों में आदिवासियों के लिए कुल 558 सीटें आरक्षित की गई हैं. झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा में 11 महिला विधायकों में से तीन आदिवासी हैं. झारखंड से सिर्फ एक आदिवासी महिला गीता कोड़ा सांसद हैं.
साल 1962 से 2014 तक जब बिहार अविभाजित था, कुल 231 आदिवासी महिलाओं ने पार्टी स्तर पर (135) और स्वतंत्र रूप से (96) विधानसभा चुनाव लड़ा. जिनमें से केवल 22 ही जीत सकीं. इसी तरह 1952 से 2014 तक 16 लोकसभा चुनावों में 41 आदिवासी महिलाएं सांसद बनीं.
अब देखना ये है कि महिला आरक्षण विधेयक से क्या आदिवासी महिलाओं की भागीदारी राजनीति में बढ़ती है. हालांकि, अभी इसके कार्यान्वयन में लंबा समय लगेगा.
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