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द्रोपदी मुर्मू के अपमान का आरोप बीजेपी पर सदा के लिए चस्पा हो गया है

द्रोपदी मूर्मु को संसद के उद्घाटन पर ना बुलाने के दूरगामी परिणाम क्यो होंगे…पता नहीं, पर बीजेपी और आरएसएस पर यह आरोप हमेशा के लिए चस्पा हो गया है कि उसने एक आदिवासी को संसद का उद्घाटन करने से रोक दिया.

भारत की नई संसद के उद्घाटन पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को आमंत्रित नहीं किये जाना एक बड़ा विवाद बन गया है. देश की बड़ी और छोटी कम से कम 19 पार्टियों की तरफ से एक संयुक्त बयान जारी किया गया है.

इस बयान में बताया गया है कि इन सभी पार्टियों ने मिल कर यह फैसला किया है कि वे संसद के उद्घाटन का बहिष्कार करेंगे. इस बयान में संविधान की धारा 79 का हवाला देते हुए बताया गया है कि राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा मिल कर ही संसद बनती है. 

यह बयान कहता है कि संविधान की व्यवस्था के अनुसार संसद राष्ट्रपति के बिना काम नहीं कर सकती है. 19 पार्टियों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के बिना खुद ही संसद का उद्घाटन करने का फैसला किया है.

विपक्ष की इन पार्टियों की नज़र में यह संविधान के प्रावधान और संसदीय परंपराओं का उल्लघंन है. इस बयान में खेती और किसानों से जुड़े तीन बिलों को ज़बरदस्ती संसद से पास करवाने और विपक्ष के सांसदों को निलंबित करने के अलावा कई संसद में घटी कई घटनाओं के हवाले से यह दावा किया गया है कि प्रधान मंत्री मोदी और उनकी पार्टी संसदीय लोकतंत्र का सम्मान नहीं करती है.

इस बयान में एक लाइन और मिलती है जो कहती है कि यह देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति और राष्ट्रपति भवन का अपमान भी है. 

क्या यह आदिवासी राष्ट्रपति का अपमान भी है

यह सवाल हमने अपने सोशल मीडिया पेज पर लोगों के बीच रखा है. इस सवाल पर अभी तक करीब 1700 लोगों की प्रतिक्रिया आई है. इन प्रतिक्रियाओं में से करीब करीब 95-96 प्रतिशत लोगों ने यह कहा है कि संसद के उद्घाटन पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को आमंत्रित नहीं करना आदिवासियों का अपमान है. 

इस सवाल पर इक्का-दुक्का लोगों ने इस राजनीति से प्ररेति विवाद भी बताया है. जिन लोगों ने सरकार का समर्थन किया है उनकी संख्या मुश्किल से 4 प्रतिशत है. इसमें एक और ख़ास बात है कि जिन्होंने भी इस राजनीति से प्रेरित माना है वे सभी लोग ग़ैर आदिवासी हैं. 

हमारे सोशल मीडिया पेज पर जो राय लोगों ने दी है वह कोई सर्वे नहीं है. हम यह दावा भी नहीं कर रहे हैं कि इन प्रतिक्रियाओं के हिसाब से किसी दूरगामी राजनीतिक प्रभाव का आकलन किया जा सकता है.

लेकिन मोदी सरकार द्वारा संसद के उद्घाटन पर राष्ट्रपति को ना बुलाने पर आदिवासी लोग क्या सोच रहे हैं, इसका कुछ कुछ अंदाज़ा इन प्रतिक्रियाओं से ज़रूर मिल सकता है. 

आदिवासी पहचान और बीजेपी का दांव

बीजेपी ने द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए चुन कर एक बड़ा दांव खेला था. इस दांव में विपक्ष पूरी तरह से चित हो गया था. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपने ही नेता यशवंत सिन्हा को अपने राज्य में  राष्ट्रपति पद के लिए वोट मांगने आने से रोकना पड़ा था.

द्रोपदी मुर्मू ओडिशा से हैं और संथाल आदिवासी परिवार से आती हैं. संथाल आदिवासी झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और भी कई राज्यों में राजनीतिक प्रभाव रखते हैं. 

द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने के अलावा भी बीजेपी और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार आदिवासी पहचान के मुद्दों को उछालते रहे हैं. इसलिए बीजेपी विपक्ष के इस आरोप को खारिज नहीं कर सकती है कि द्रोपदी मुर्मू को उद्घाटन के लिए ना बुलाना आदिवासियों का अपमान है.

बीजेपी के लिए यह चुनाव से आगे का खेल है

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अनौपचारिक तौर पर चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है. ये तीनों ही राज्यो ऐसे हैं जहां पर आदिवासी मतदाता भी महत्व रखता है. इन तीनों ही राज्यों में बीजेपी का मुकाबला कांग्रेस पार्टी से होता है.

पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने तीनो ही राज्यों में हरा दिया था. हांलाकि मध्य प्रदेश में बीजेपी ने कांग्रेस की सरकार को गिरा कर अपनी सरकार बना ली थी. लेकिन बीजेपी जानती है कि इन तीनों राज्यों में उसकी हार का एक कारण आदिवासी मतदाता की नाराजगी भी थी. 

द्रोपदी मूर्मु को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी ने बेशक आदिवासी इलाकों में अपनी छवि सुधारी थी. लेकिन संसद के उद्घाटन पर राष्ट्रपति को ना बुलाना बीजेपी को उस फ़ायदे से ज़्यादा नुकसान कर सकता है जो उसने एक आदिवासी महिला को देश का राष्ट्रपति पद के लिए चुन के हासिल किया था. 

लेकिन आदिवासी पहचान और आदिवासी इलाकों में राजनीति बीजेपी के लिए सिर्फ और सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं है. बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस के लिए आदिवासी इलाके विचारधारा के प्रचार-प्रसार के नज़रिये से भी महत्वपूर्ण हैं.

आरएसएस लंबे समय से आदिवासी इलाकों में हिदुत्व का प्रचार कर रही है. 

इस पृष्ठभूमि में द्रोपदी मूर्मु को संसद के उद्घाटन पर ना बुलाने के दूरगामी परिणाम क्यो होंगे…पता नहीं, पर बीजेपी और आरएसएस पर यह आरोप हमेशा के लिए चस्पा हो गया है कि उसने एक आदिवासी को संसद का उद्घाटन करने से रोक दिया.

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