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क्या देश के आदिवासी समुदाय राजनीतिक मोल-भाव के मुक़ाम पर पहुँच चुके हैं

यह मानना लेना कि आदिवासी राजनीति के उस मुक़ाम पर पहुँच चुका है कि जहां वो अपनी आकांक्षाओं के अनुसार मोल-भाव कर सकता है, शायद जल्दबाज़ी होगी. फ़िलहाल तो गुजरात के संदर्भ में भी यह नहीं माना जा सकता है. 

भारत में हाल की महत्वपूर्ण घटनाओं में द्रोपदी मूर्मु (druapdi murmu) का देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति चुना जाना भी है. इस राजनीतिक घटना का अलग अलग तरह से सिर्फ़ भारत नहीं दुनिया के मीडिया में विश्लेषण हुआ है. द्रोपदी मूर्मु के राष्ट्रपति बनने से देश के आदिवासियों का कितना भला होगा इस सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता है. 

लेकिन इस घटना के बाद आदिवासी देश के विमर्श और चर्चा का हिस्सा बना है इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Modi) अपने फ़ैसलों से चौंकाने के लिए मशहूर हैं. ख़ासतौर से देश में जिस तरह से उन्होंने नोट बंदी का ऐलान किया था उसके बाद से उनकी यह छवि और मज़बूत हुई है.

राजनीतिक नियुक्तियों में भी वो ऐसे फ़ैसले करते रहे हैं. मसलन जिस तरह से हरियाणा और उत्तर प्रदेश में बीजेपी के मुख्यमंत्री तय किये गए, उसका अंदाज़ा पहले से किसी को नहीं था. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारों को तय करने में उनसे वैसे ही फ़ैसले की उम्मीद थी जो सबको चौंके दे. 

उप राष्ट्रपति पद पर तो फिर किसी हद तक उनके फ़ैसले ने लोगों को चौंकाया है. लेकिन राष्ट्रपति पद पर उन्होंने अनुमान के अनुसार ही एक आदिवासी को मौक़ा दिया है. द्रोपदी मूर्मु के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले ही पिछले क़रीब एक साल से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के बड़े नेता आदिवासी मसलों पर बात कर रहे हैं.

अभी दो दिन पहले ही रविवार और सोमवार (28-29 अगस्त) को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा त्रिपुरा के दौरे पर थे. वहाँ की जनसभाओं और बैठकों में उनका पूरा फ़ोकस आदिवासी नेताओं और मसलों पर ही रहा. 

दरअसल त्रिपुरा में बीजेपी आदिवासी संगठन का साथ ले कर ही सत्ता में आई थी. लेकिन IPTF (Indigenous People’s Front Tripura)  नाम के इस संगठन का अब पूरी तरह से विघटन हो चुका है और उसके सभी बड़े नेता टिपरा मोथा (TIPRA Motha) नाम के नए आदिवासी संगठन का हिस्सा बन चुके हैं.

बीजेपी के लिए त्रिपुरा में उस समय ख़तरे की घंटी बज गई थी जब नए संगठन ने आदिवासी बहुल इलाक़ों में स्वायत्त ज़िला परिषद के चुनावों में भारी जीत हासिल की थी. त्रिपुरा में यह तय है कि आदिवासी जिस राजनीतिक दल या गठबंधन के साथ होंगे वही गठबंधन या दल सरकार बनाएगा.

इसी तरह से गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनाव जीतने के लिए आदिवासी वोट बेहद अहम है. इस पृष्ठभूमि में यह माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नेरन्द्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी के बड़े नेताओं का आदिवासियों पर फ़ोकस इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि यह चुनावी रणनीति का हिस्सा है.

आदिवासियों पर फ़ोकस आरएसएस और बीजेपी के लिए विचारधारा के प्रचार प्रसार की नज़र से भी महत्वपूर्ण है. आरएसएस वनवासी कल्याण आश्रम और दूसरे संगठनों के माध्यम से आदिवासी इलाक़ों में लंबे समय से काम करता रहा है. 

बीजेपी फ़िलहाल अगर आदिवासी समुदायों पर फ़ोकस कर रही है तो उसका कारण चुनाव या विचारधारा का प्रसार शायद दोनों ही है. लेकिन आदिवासी समुदायों के लिहाज़ से इस स्थिति का विश्लेषण करें तो क्या नज़र आता है. क्या आदिवासी आज उस मुक़ाम पर पहुँच चुका है जहां वह राजनीतिक मोल-भाव कर सकता है. 

गुजरात में आम आदमी पार्टी ने अपनी आमद दर्ज कराने के लिए आदिवासी इलाक़े को चुना है. पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भरूच ज़िले में भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) के साथ मंच साझा किया. उन्होंने वहाँ से कहा कि दोनों पार्टियाँ एक साथ आ कर आदिवासी भलाई के काम करेंगी. 

गुजरात में आम आदमी पार्टी और भारतीय ट्राइबल पार्टी के गठबंधन की दस्तक के बाद प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण ने एक लेख लिखा. जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहबाद के निदेश बद्रीनारायण को राजनीतिक मामलों का एक्सपर्ट माना जाता है. उन्होंने लिखा है कि आदिवासी राजनीति अब उस मुक़ाम पर पहुँच चुकी है जहां उसे नज़र अंदाज़ करना संभव नहीं होगा. 

वो कहते हैं कि गुजरात में देर से ही सही आदिवासी अब अपनी राजनीतिक भागीदारी की दावेदारी पेश कर रहे हैं. गुजरात के संदर्भ में उन्होंने कहा है कि यहाँ पर आबादी का कम से कम 16 प्रतिशत हिस्सा आदिवासी है. 

इस लेख में बद्रीनारायण इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि गुजरात में भारतीय ट्राइबल पार्टी का उदय यह दर्शाता है कि अब इस राज्य की राजनीति में सत्ताधारी बीजेपी, मुख्य विपक्ष कांग्रेस या फिर राज्य की राजनीति में सक्रिय हो रही आम आदमी पार्टी, सभी के लिए BTP को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होगा.

प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण के अनुभव और समझ का सम्मान करते हुए भी मेरा ज़मीन अनुभव थोड़ा अलग है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी मतदाता गुजरात ही नहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बड़ी अहमियत रखेंगे. 

लेकिन बात को अगर गुजरात तक ही सीमित रख कर भी देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता है कि आदिवासी आज अपनी शर्तों पर राजनीतिक मोल-भाव करने की स्थिति में है. भारतीय ट्राइबल पार्टी का गठन और उसका प्रभाव बेशक एक महत्वपूर्ण घटना है.

लेकिन यह पार्टी अभी भी मौटेतौर पर छोटु भाई वसावा और उनके बेटे महेश भाई वसावा के परिवार तक ही सीमित है. ये दोनों ही आदिवासी नेता ही फ़िलहाल विधायक भी हैं. लेकिन झगड़िया और डेडियापाड़ा दोनों ही सीटों पर जीत के लिए इन नेताओं को कांग्रेस पार्टी या फिर किसी और गठबंधन सहयोगी की तरफ़ देखना पड़ता है. 

CSDS के चुनाव विश्लेषण भी यह बात कहती है कि ही राष्ट्रीय चुनाव में 2014 और 2019 में आदिवासी ने दिल खोल कर बीजेपी को वोट दिया है. इसलिए यह तो हो सकता है कि किसी विधान सभा चुनाव के मद्देनज़र आदिवासी पर फ़ोकस की गई कुछ घोषणाएँ की जाएँ. 

लेकिन यह मानना लेना कि आदिवासी राजनीति के उस मुक़ाम पर पहुँच चुका है कि जहां वो अपनी आकांक्षाओं के अनुसार मोल-भाव कर सकता है, शायद जल्दबाज़ी होगी. फ़िलहाल तो गुजरात के संदर्भ में भी यह नहीं माना जा सकता है. 

क्योंकि नर्मदा-पार-तापी लिंक प्रोजेक्ट पर भी जो आदिवासी आंदोलन हुआ, उसकी कमान भी अंततः एक राष्ट्रीय पार्टी के हाथ में ही थी. 

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