HomeGround Reportझारखंड: सूखे की मार आदिम जनजातियों के लिए सबसे ख़तरनाक होती है

झारखंड: सूखे की मार आदिम जनजातियों के लिए सबसे ख़तरनाक होती है

झारखंड में सूखे की वजह से हालत बेहद ख़राब है. इस सूखे की वजह से आदिम जनजातियों (PVTG) में पलायन समय से पहले ही हो रहा है. लेकिन सरकार गिराने और बचाने के शोर में यह मसला दब गया है. राज्य में सूखे से पैदा हुए हालात पीवीटीजी समुदायों के वजूद को ख़तरे में डाल रहे हैं.

बोनो पहाड़िया झारखंड सरकार की ओर से आदिम जनजाति वर्ग के लिए चलाए जाने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन में धीमापन की चर्चा करते हुए बांग्ला में कहती हैं, “चास-बाड़ी हुआ नहीं, और कोई सहारा है नही तो मेरे पति विश्वनाथ पहाड़िया चेन्नई के लिए पलायन कर गए”

झारखंड के दुमका जिले के रानिश्वर प्रखंड की बांसकुली पंचायत के कुमीरखाला गांव की बोनो पहाड़िया का परिवार ऐसा अकेला परिवार नही हैं, जहां से खरीफ की खेती दौरान ही पुरुष पलायन कर गए हों. 

इसी गांव की पुतुल राय के पति राजू पहाड़िया, सुकुमनी पहाड़िया के पति जगदीश पहाड़िया भी चेन्नई गए हैं. पिछले महीने 24 अगस्त को खरीफ फसल की नाउम्मीदी के बाद करीब डेढ दर्जन पुरुष एक साथ चेन्नई कमाने चले गए. 

अगर खेत में धान की फसल ठीक-ठाक होती तो यही पलायन ढाई-तीन महीने बाद फसल तैयार कर लेने के बाद होत. यानी कृषि की पैदावार पर लोगों का यहां रुकना या यहां से पलायन करना निर्भर करता है. 

ये पहाड़िया परिवार भूमिहीन हैं, लेकिन राजपूत, बनिया या यादव जाति के लोगों की जमीन पर खेती कर अपना गुजर करते हैं. झारखंड इस बार अभूतपूर्व सूखे का सामना कर रहा है. 

यह कई दशकों में संभवतः पहला मौका है जब एक साथ पूरा राज्य सूखे की चपेट में है. 

पलायन का आदिम जनजाति पर ख़तरनाक असर

आदिम जनजाति या PVTG को आदिवासियों में भी सबसे पिछड़ा तबका माना जाता है. इसलिए इन आदिवासी समुदायों की ज़रूरतों के हिसाब से सरकार ख़ास इलाके के लिए ख़ास योजनाएं बनाती हैं. लेकिन जब इन समुदायों के लोग रोजी रोटी के लिए पलायन कर जाते हैं तो फिर उन्हें इन योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है.

इस वजह से उनको स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाओं के अलावा उनके पोषण के लिए चलाए जाने वाली योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है.

पहाड़िया महिलाएं

कुमीरखाला गांव से समझिए सूखे का असर

कुमीरखाला गांव करीब 500 की मिश्रित आबादी वाला गांव है, जहां आदिवासी और गैर आदिवासी यहां तक की सामान्य वर्ग से आने वाले कई राजपूत परिवार भी हैं. 

इस रूप में यह गांव एक तरह से झारखंड या भारत के सामाजिक ताने-बाने और हालात का बहुत हद तक समग्र प्रतिनिधित्व करता है। जिसमें सूखे व खराब कृषि पैदावार का अलग-अलग समुदाय पर असर का विश्लेषण किया जा सकता है.

मसलन सूखा पड़ने पर इस गांव में सबसे बुरा प्रभाव भूमिहीन आदिम जनजातियों पर दिख रहा है, जिनका समय से पहले पलायन हो गया है। वहीं, दूसरी जातियों के लोगों का पलायन अभी इक्का-दुक्का ही हुआ है.

सामाजिक कार्याें में सक्रिय रहने वाले कुमीरखाला गांव के रामजीवन पहाड़िया कहते हैं, “हमारे गांव में तीन-चार लोगों के पास ही सरकारी नौकरी है, एक-दो लोग प्राइवेट नौकरी करते हैं, बाकी यहां खेतीबारी करते हैं और कुछ महीने बाहर काम करते हैं”.

उन्होंने बताया कि अभी करीब 50 लोग यहां से बाहर कमाने चले गए हैं। कुछ लोग झारखंड या पश्चिम बंगाल के नदजीकी प्रमुख शहरों में कमाने जाते हैं, लेकिन वे ज्यादातर गैर आदिवासी हैं.

गांव के दिलीप महतो ने कहा, “इस बार चास हुआ नहीं, तो लोग बाहर चले गए”. उन्होंने इस संवाददाता को चेन्नई जाने वालों के जो नाम बताए, उनमें इक्का-दुक्का छोड़ कर लगभग सभी पहाड़िया वर्ग के हैं. 

कुमीरखाला के निवासी

ये नाम इस प्रकार हैं – जगदीश पुजहर, राजीव पहाड़िया, विश्वनाथ पहाड़िया, रतन पहाड़िया, दयामय पहाड़िया, निराश पहाड़िया, अजय पहाड़िया, सिंटू पहाड़िया, राजू पहाड़िया आदि.

गांव के 74 वर्षीय बुजुर्ग अनिल सिंह ने कहा, “ऐसा सूखा पहले कभी नहीं देखा, पहले सूखा पड़ने पर आधा या एक तिहाई फसल तो हो जाती थी। इस बार यह जीरो हो गया है”.

रामजीवन पहाड़िया खुद दूसरे के 35 बीघा खेत पर खेती करते थे, लेकिन इस बार के हालात पर निराशा व्यक्त करते हुए इस संवाददाता से कहा, इस साल 35 दाना भी धान होने की उम्मीद नहीं है. 

उन्हें अफसोस है कि शुरुआत में उन्होंने कुछ जमीन पर बिचड़ा तैयार करने में 10 हजार रुपये खर्च किए थे, जिसकी भरपाई अब नहीं होगी. 

वे उन खेतों को दिखाते हुए कहते हैं कि यह यहां के आसपास की सबसे निचली जमीन है, जहां किसी परिस्थिति में कुछ न कुछ मात्रा मे तो फसल हो ही जाती थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा.

जब शुरुआती दौर में धान की फसल खराब होनी शुरू हुई तो बिहार से एक कंपनी के प्रतिनिधि यहां आए और वैकल्पिक रूप से लोगों को औषधीय पौधे कालमेघ लगाने के लिए तैयार किया. 

गांव में 20 बीघा खेत में उसके बीज बोए भी गए, लेकिन वे पौधे या तो सूख चुके हैं या पर्याप्त पानी के अभाव में उनका विकास रुक गया. हालांकि राहत यह है कि इसकी बोआई के लिए बीज कंपनी ने खुद दिया था और फसल को खुद खरीदने का आश्वासन भी दिया था.

भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ां के अनुसार, पूरे देश में 26 अगस्त 2022 तक 367.55 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान की फसल लगायी गयी, जो पिछले साल इस अवधि में 23.44 लाख हेक्टेयर कम है. 

कृषि मंत्रालय के बयान के अनुसार, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ एवं तेलंगाना में धान की बोआई कम हुई है. झारखंड में 27 प्रतिशत कम बारिश हुई है. वहीं, उत्तरप्रदेश में 44 और बिहार में 36 प्रतिशत कम बारिश हुई है. 

झारखंड में बारिश नहीं होने पर दिक्कत ज्यादा

झारखंड जैसे अधिकांशतः पठारी व पहाड़ी भूमि वाले राज्य, जहां सिंचाई के मानव निर्मित साधन काम हैं, वहां कम बारिश से विभिन्न स्तरों पर परेशानी होती है. 

मैदानी इलाकों की तरह यहां बोरिंग और पंपसेट नहीं होते. बारिश के बाद नदी, जोरिया या तालाब में इकट्ठा पानी खेती का सहारा बनते हैं. यहां तक खरीफ के मौसम में हुई अच्छी बारिश से भरे जोरिया व तालाब बाद में रबी की दूसरी फसलों के लिए भी मददगार होते हैं. 

इस बार वे खाली हैं और किसानों को संशय है कि रबी की फसल भी कहीं खराब न हो जाए. रामविजय पहाड़िया कहते हैं – “गांव के चारों ओर आठ-नौ तालाब हैं, लेकिन वे भी सूखे हैं.” 

उनमें मछली का पालन ग्रामीण करते थे, जिससे अतिरिक्त कमाई होती थी, लेकिन कम पानी की वजह से वह नहीं हो सका. दूसरा बारिश के मौसम में उसमें जो पानी जमा होता था, उससे बाद में रबी की फसल की सिंचाई की जाती थी, लेकिन इस बार उनके खाली रहने से रबी की खेती भी खराब हो सकती है”.

गांव का तलाब जिसमें इस बार पानी ना के बराबर है

कुमीरखाला गांव के निवासी व यहां के कृषक मित्र प्रदीप कुमार सिंह कहते हैं, “राज्य सरकार की सूखा राहत योजना के तहत 15 सितंबर तक फार्म जमा करना है, जिसे हम जमा कर रहे हैं”. 

उन्होंने बताया कि 40 प्रतिशत से कम नुकसान पर एक एकड़ फसल की दर से तीन हजार रुपये और 40 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर चार हजार रुपये दिये जाने का प्रावधान है. 

उन्होंने यह भी बताया कि राहत के लिए पंचायत स्तर पर क्रॉप कटिंग का फॉर्मूला अपनाया जाता है, यानी कृषि विभाग के लोग तीन-गांव जाते हैं और वहां खेत के एक हिस्से से फसल का नमूना लेते हैं, जिसके आधार पर मानक तैयार होता है. वे कहते हैं कि किसी गांव का इसके लिए चयन होगा यह लॉटरी के आधार पर तय होता है.

दुमका में 10 प्रतिशत से भी कम रोपनी और सरकार की तैयारी 

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस महीने के शुरू में कृषि मंत्री बादल व आपदा राहत मंत्री बन्ना गुप्ता सहित अधिकारियों के साथ एक समीक्षा बैठक में सूखा राहत के लिए योजनाएं बनाने का निर्देश दिया था. राज्य के 131 प्रखंड मध्यम और 112 प्रखंड गंभीर सूखे का सामना कर रहे हैं. 

इस बैठक में कृषि विभाग की ओर से पेश रिपोर्ट के अनुसार, धान की मात्र 30 प्रतिशत रोपनी हो पायी है। इस बैठक के बाद सरकार की टीम विभिन्न जिलों का जायजा ले रही है.

रांची से आयी तीन अधिकारियोें के दल के साथ दुमका के छह अधिकारियों को मिला कर तीन-तीन की तीन टीम बनायी गयी है, जिसने सात सितंबर से जमीनी स्थिति का आकलन शुरू किया है.

दुमका के प्रोजेक्ट डायरेक्टर आपदा जीवेश कुमार सिंह ने कहा, हमारे आरंभिक आकलन के अनुसार जिले में 10 प्रतिशत से भी कम रोपनी हुई है, आज से हम तीन-तीन की टीम में जिले का जायजा ले रहे हैं. जिले में करीब 2800 गांव हैं, जिसमें 10 प्रतिशत का आकलन कर रिपोर्ट तैयार करना है और यह सर्वे रिपोर्ट केंद्र सरकार के पास जाएगी. 

उन्होंने यह स्वीकार किया खेती खराब होने पर आदिवासियों व आदिम जनजातियों पर सबसे बुरा असर पड़ता है. उन्होंने कहा कि अभी हमारे पास पलायन की रिपोर्ट नहीं है, हालांकि यह बात सही है कि खेती अच्छी होने पर वे रोपा के बाद ही बाहर जाते हैं. वे कहते हैं कि यह बात सही है कि खेती होने पर उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल जाता है.

भारतीय मौसम विभाग का ग्राफ बतात है कि मानसून में अबतक सिर्फ दो सप्ताह ठीक ठाक बारिश हुई है. 22 जून को समाप्त हुए सप्ताह में सामान्य बारिश हुई थी, जबकि 24 अगस्त को समाप्त हुए सप्ताह में भारी से भारी बारिश हुई थी. 

दुमका के प्रोजेक्ट डायरेक्टर आपदा जीवेश कुमार सिंह ने कहा कि इस अत्यधिक बारिश से कुछ जगह किसानों को लाभ हुआ होगा, लेकिन इसने लत्तड़ वाली फसल को खराब कर दिया.

सूखा का सबसे अधिक असर आर्थिक रूप से समाज के सबसे कमजोर तबके और कृषि व उससे जुड़े सहायक कार्यों पर निर्भर वर्ग पर पड़ता है. झारखंड में यह सुखाड़ से पलायन बढता है और अन्य प्रदेशों में यहां के श्रमिक अमानवीय व्यवहार व शोषण का शिकार होते हैं. ऐसे में सरकार के कारगर कदम आवश्यक हैं.

(इस रिपोर्ट को लिखने वाले राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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