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कोहिमा: अंगामी आदिवासी और विश्वयुद्ध के अवशेष

1944 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापानी सेना म्यांमार के रास्ते कोहिमा में दाख़िल हुई. यहां पर जापानी सेना, और मित्र देशों की तरफ़ से लड़ रही ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ, और ब्रिटिश सेना के क़रीब चार हज़ार जवान मारे गये. कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन की देखरेख में इस भीषण युद्धका स्मारक कोहिमा शहर में बनाया गया है. यहां पर ब्रिटिश सेना की दूसरी डिविज़न के मारे गये सैनिकों में से 1420 को दफ़नाया गया, और 917 हिंदू और सिख सैनिकों का जलाकर अंतिम संस्कार किया गया.

नागा आदिवासियों के आओ समुदाय से मिलकर हम अब अंगामी आदिवासियों से मिलने मोकोकचुंग से नागालैंड की राजधानी कोहिमा की तरफ़ बढ़े. राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 2 की स्थिति ठीक-ठाक है, वोखा शहर रास्ते में पड़ता है. नागालैंड का कोहिमा ज़िला राज्य का दूसरा सबसे बड़ा ज़िला है जो क़रीब 1041 वर्गकिलोमीटर में फैला है. कोहिमा के पश्चिम में दीमापुर ज़िला है, जबकि वोखा उत्तर में है. पूर्व दिशा में फेक ज़िला है जो एक समय कोहिमा का ही हिस्सा था. कोहिमा, दरअसल, अंग्रेज़ों का दिया हुआ नाम है. अंगामी और रेंगमा आदिवासियों का ये क्षेत्र अंग्रेजों के नियत्रंण से पहले केवहीरा गांव के नाम से जाना जाता था. क़रीब सात घंटे के सफ़र के बाद हम लोग कोहिमा शहर पहुंच गए.

कोहिमा की एक सड़क

कोहिमा नागालैंड की राजधानी और ज़िला मुख्यालय है. आज कोहिमा मिश्रित आबादीवाला एक आधुनिक शहर है. अंगामी नागाओं के अलावा यहां पर राज्य के कई और नागा समुदायों के लोग रहते हैं. इसके अलावा देश के अलग-अलग राज्यों के लोगों की तादाद भी काफ़ी है.

हम लोग जब तक कोहिमा पहुंचे शाम होने लगी थी, और सफ़र की थकान भी थी. इसलिए जल्दी खाना खाया और सो गए.

अगले दिन कोहिमा शहर घूमने का प्लान था. शहर का चक्कर लगाते हुए हम यहां के बाज़ार में पहुंचे. यहां पर तरह-तरह की सब्ज़ियों की दुकानों की भरमार है. इसके अलावा तरह-तरह के मसाले भी बिकते हैं. दोनों तरफ छोटी-छोटी दुकानें, और बीच में काफ़ी संकरा सा रास्ता है.

कोहिमा के म्यूजियम से शहर का नज़ारा

बाज़ार के दूसरे सिरे पर कबूतर, चिड़िया, मुर्गे से लेकर, सूअर, गाय या फिर मछली और मेंढक तक, हर तरह के मांस की दुकान है. सुबह का समय था, मीट की दुकानों पर खाल समेत गाय और सूअर का मांस लटका था. इस नागा बाज़ार में जिन जानवरों का मीट बिकता है उसमें आंत तक को साफ़ करके बेचा जाता है. यानि हड्डियों को छोड़कर जानवर का हर हिस्सा खाल समेत खाया जाता है.

मुर्गे, कबूतर या फिर चिड़ियों के भी पंख निकाले जाते हैं, उन्हें छीला नहीं जाता है. मुर्गे की दुकानों पर बाल्टी में पानी गर्म करने की रॉड लगाई हुई थीं. उबलते पानी में मुर्गे को डुबो कर मार दिया जाता है. उसके बाद उसके पंख उखाड़ कर फेंक दिए जाते हैं.

इस बाज़ार में भी बिहार और यूपी से रोज़गार की तलाश में आए लोग दुकानों पर काम करते मिल जाते हैं. कुछ ने अपनी दुकानें भी बना ली हैं. बाहर से आकर यहां बसे लोगों की अब पूरी एक पीढ़ी तैयार हो गयी है, जिन्होंने यहीं जन्म लिया है. इनमें से ज़्यादातर यहां बोली जाने वाली नागामी भाषा समझ तो लेते ही हैं, कामचलाऊ बोल भी लेते हैं.

कोहिमा में बिहार और यूपी के लोग बड़ी तादाद में काम करते हैं

इसके बाद हम शहर में आगे बढ़े तो एक और बाज़ार पहुंचे. इस बाज़ार में महिलाओं ने दुकानें लगाई थीं. यहां पर साबुत मसाले, मछली और मेंढक के अलावा मधुमक्खी के छत्ते भी रखे थे. टब में बड़े और छोटे मेंढकों को साइज़ के हिसाब से 4-4 या 5-5 करके बांधा गया था. इन सभी मेंढकों की एक टांग को मिला कर बांध दिया गया था. यहां पर दुकानों पर तोलने के लिए तराज़ू नहीं थी. बल्कि ज़्यादातर मसालों की ढेरी बनाकर रखी गई थी, या फिर पैकेट बनाकर रखे गए थे. मेंढक भी साइज़ के हिसाब से गिनती से बिक रहे थे.

कोहिमा के बाज़ार में मधुमक्खी का लारवा बिकता है

इन महिलाओं को हिन्दी समझ तो आ रही थी लेकिन वो बोल नहीं पा रही थीं. लेकिन गर्दन हिलाकर या फिर थोड़ा बहुत अंग्रेज़ी में बात कर रही थीं.

जब मैंने मधुमक्खी के छत्ते के बारे में पूछा तो काफ़ी कोशिश करने के बावजूद वो मुझे समझा नहीं पा रही थीं. उसके इशारों से मुझे यह समझ आ रहा था कि वो खाने की बात कर रही है. लेकिन, छत्ता कैसे खाया जा सकता है? उसके बाद उसने मुझे अपने पास बैठने को कहा. मैं बैठा तो उसने एक छत्ता उठाया और एक चिमटी से उस छत्ते से एक लारवा निकाला, उसके बाद इस लारवे से उसने चिमटी से ही एक काला सा बारीक धागा सा निकाल दिया. और चिमटी में दबे लारवे को मेरी तरफ़ बढ़ाया. मैंने हथेली आगे बढ़ा दी, और उसने वो लारवा मेरी हथेली पर रख दिया. मैंने उसकी तरफ़ देखा तो उसने मुझे इसे खाने का इशारा किया. मैंने उससे पूछा कच्चा ही खा लूं, तो उसने हां में गर्दन हिलाई. मैंने वो लारवा मुंह में डाला और जैसे ही चबाया, वो मेरे मुंह में घुल गया. यह स्वाद में मीठा और बहुत नरम है. वो बात अलग है कि मेरे कैमरामैन को लगभग उल्टी आ गई थी.

यहां से मैंने नागा मिर्ची ख़रीदी. ये मिर्ची गोल होती है और बहुत बड़ी नहीं होती. लेकिन बहुत तीख़ी होती है. जब हम चलने लगे तो इन महिलाओं ने हमें एक पैकेट दिया जिसमें कुछ पत्तेथे. ये पत्ते देखने में कढ़ी पत्तों जैसे लग रहे थे. उन्होंने बताया किसी भी सब्ज़ी या मीट में पकाने के बाद इन पत्तों का चूरा करके डाल देंगे तो स्वाद अच्छा लगेगा. इसके साथ ही उन्होंने केले के पत्ते में बंधी एक चटनी दी और बताया कि यह कई महीने भी ख़राब नहीं होगी.

अंगामी नागा संस्कृति, भाषा और सामाजिक ताने-बाने के मामले में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हुए भी दूसरी सभ्यताओं या संस्कृति और समाज से बिल्कुल अलग-थलग नहीं रहे हैं. हालांकि इन आदिवासियों ने दूसरे समाज के लोगों को अपनी ज़मीन में दख़ल करने नहीं दी. 1845 में अंग्रेज़ नागालैंड में दाख़िल हुए और नागा आदिवासियों का ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष शुरू हुआ. समय के साथ अंग्रेज़ों के साथ इस संपर्क ने नागा आदिवासियों की ज़िंदगी को और जीने के तरीक़े को हमेशा-हमेशा के लिये बदल कर रख दिया. अंगामी नागा समुदाय वो पहला समूह था जिसने इस संघर्ष में सबसे ज़्यादा खोया, और शायद यही समुदाय सबसे ज़्यादा इस संघर्ष और संपर्क से प्रभावित भी हुआ. आधुनिक इतिहास कीऐसी कई घटनाओं के सबूत और स्मारक कोहिमा ज़िले में भरे पड़े हैं.

दूसरे विश्वयुद्ध का स्मारक

1944 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापानी सेना म्यांमार के रास्ते कोहिमा में दाख़िल हुई. यहां पर जापानी सेना, और मित्र देशों की तरफ़ से लड़ रही ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ, और ब्रिटिश सेना के क़रीब चार हज़ार जवान मारे गये. कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन की देखरेख में इस भीषण युद्धका स्मारक कोहिमा शहर में बनाया गया है. यहां पर ब्रिटिश सेना की दूसरी डिविज़न के मारे गये सैनिकों में से 1420 को दफ़नाया गया, और 917 हिंदू और सिख सैनिकों का जलाकर अंतिम संस्कार किया गया.

दूसरे विश्वयुद्ध के स्मारक में 1420 सैनिको की कब्र हैं

इस युद्धका अंगामी नागा समाज पर कई मायनों में निर्णायक असर हुआ. इस युद्धके दौरान इन आदिवासियों को अपने गांव छोड़ने पड़े. कई गांवों को लड़ाई के दौरान जला दिया गया. जापानी सेना ने रसद ख़त्म होने की सूरत में इन आदिवासियों के पशुओं और फ़सलों को लूटा. लेकिन ये भी माना जाता है कि इस युद्ध का एक असर ये भी हुआ कि अंगामी नागाओं में एक कुलीन वर्ग का भी जन्म हुआ, जिन्होंने अपने गांवों से बाहर की दुनिया को देखना शुरू किया, और शायद यहीं से नागा राष्ट्रीयता का मसला भी उभरने लगा.

1950 और 60 के दशक में यह मसला बड़ा बनकर उभरा, और 1963 में नागालैंड आज़ाद भारत का एक और राज्य बन गया. अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष हो या फिर आज़ाद भारत में नागा राष्ट्रीयता का मसला, नागा आदिवासियों में अंगामी समुदाय ने सबसे पहले विद्रोह का झंडा बुलंद किया. नागा राष्ट्रीयता का मुद्दा अभी भी है लेकिन कोहिमा की तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी है.

कोहिमा का म्यूजियम

शाम तक हम कोहिमा के अलग-अलग इलाक़ों में घूमते रहे. यहां पर कॉमनवेल्थ का एक म्यूज़ियम भी है. हम शाम ढलने से पहले ही वहां पहुंच गए थे, लेकिन म्यूज़ियम बंद था. यह म्यूज़ियम एक टीले पर है, और वहां से पूरा कोहिमा शहर नज़र आता है. मैंने अपने साथियों के साथ यहां से कोहिमा, और कुछ कोहिमा को बैकग्राउंड में रख-कर अपनी तस्वीरें लीं और फिर लौट पड़ा. जब हम लौट रहे थे तो गाड़ी में एक अजीब सी बदबू फैल रही थी. मेरे साथी एक-दूसरे को बदबू फैलाने के लिए ज़िम्मेदार बताकर मज़ाक उड़ा रहे थे. लेकिन मुझे समझ आ रहा था कि यह उस चटनी का कमाल है, जो दुकान वाली महिलाओं ने हमें दी थी. उसने मुझे बताया था कि यह फर्मेंटिंड दाल से बनाई गई थी.

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