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जारवा टूरिज़्म ने एक सभ्यता को बर्बाद कर दिया है, बेईमानी, धोखे और लालच की कहानी

पिछले 200 सालों में जारवाओं के साथ संपर्क या मैत्री के जो अभियान हुए हैं उनकी अपनी एक निश्चित राजनीति रही है. अंग्रेज़ों के ज़माने में जारवाओं के ख़तरे को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म करने का नज़रिया था, तो आज़ाद भारत में जारवाओं से संपर्क और दोस्ती को ऐतिहासिक घटना के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई. इन मैत्री दलों में शामिल लोगों ने जारवाओं के साथ मुलाक़ातों को इन आदिवासियों के अधिकारों या कल्याण या फिर शोध के लिए इस्तेमाल करने की बजाए, खुद को ऐसे लोगों की तरह स्थापित करने में लगाया, जिनके पास इन आदिवासियों की exclusive जानकारी है.

उन दिनों मैं राज्यसभा टीवी में काम करता था. अपनी टीम के साथ अंडमान और निकोबार के आदिवासियों से मिलने की हसरत लिए मैं पोर्ट ब्लेयर पहुंच चुका था. हमने कुल दो सप्ताह का कार्यक्रम बनाया था.

अंडमान निकोबार के तत्कालीन उपराज्यपाल ए के सिंह से दिल्ली में ही मुलाक़ात हो चुकी थी और मुझे विश्वास था की हमें सभी औपचारिकताओं के बाद यहाँ के आदिवासियों से मिलने की अनुमति मिल जाएगी.

एयरपोर्ट पर प्रोटोकॉल अफ़सर की मौजूदगी

26 फ़रवरी को सुबह की फ़्लाइट से हम लोग पोर्ट ब्लेयर के हवाई अड्डे पर थे. यहां पर हमें रिसीव करने के लिए बाक़ायदा स्टेट प्रोटोकॉल डिपार्टमेंट के अफ़सर मौजूद थे. इस व्यवस्था को देखकर मेरे साथी काफ़ी इम्प्रैस हुए.

लेकिन मेरे मन में कई आशंकाएं पैदा हो रही थीं. देश के अलग-अलग राज्यों में आदिवासियों से मिलने के लिए मैंने कभी सरकारी या किसी ग़ैरसरकारी संस्था की मदद नहीं ली थी. हां, स्थानीय भाषा समझने और आदिवासियों की बस्तियों तक पहुंचने के लिए स्थानीय स्तर पर लोगों की मदद ज़रूर ली थी.

इसके पीछे समझ बिल्कुल साफ़ थी कि मैं अपनी नज़र से आदिवासी भारत को देखना और दिखाना चाहता था. इस सिलसिले में सरकार की नीतियों और फ़ैसलों पर ज़रूर सरकारी अधिकारियों से कभी-कभार इंटरव्यू किए थे. लेकिन अंडमान में बिना सरकार की अनुमति के यह सब संभव ही नहीं था.

ख़ैर, इस उधेड़बुन में कि कहीं ये प्रोटोकॉल ऑफ़िसर कहीं पूरे ट्रिप में तो हमारे साथ नहीं चिपके रहेंगे, हम गेस्टहाउस पहुंच गए. यहां पहुंचने के बाद प्रोटोकॉल ऑफ़िसर ने मुझे बताया कि उनकी ज़िम्मेदारी वहीं तक थी. यह बताकर उन्होंने मुझसे विदा ले ली थी. मैंने कुछ राहत की सांस ली. लेकिन मुझे ये अंदेशा हो गया था कि प्रशासन हमारी पोर्ट ब्लेयर में मौजूदगी को लेकर काफ़ी सतर्क होगा.

उपराज्यपाल और प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों से मुलाक़ात  

शाम को हमें सूचना मिली कि अगले दिन सुबह उपराज्यपाल से मिलना है. अगले दिन सही सुबह 9 बजे हम राजभवन पहुंच गए. उपराज्यपाल ने अंडमान के उन सभी बड़े अधिकारियों को मीटिंग के लिए बुलाया था.

मैं समझ चुका था कि अंडमान में सफ़र आसान नहीं होगा. मैंने बेहद संक्षेप में बताया कि मैं पिछले कई सालों से भारत के आदिवासियों से मिल रहा हूं. इसी सिलसिले में अब अंडमान आया हूं.

यहां पर मैं ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग और निकोबारी आदिवासियों से मिलना चाहता हूं. इस पर अधिकारियों और उपराज्यपाल ने मुझे समझाया कि जारवाओं और ओंग आदिवासियों से मिलने की योजना मुझे छोड़ देनी चाहिए.

हड़बोताले: एक जारवा लड़की

उपराज्यपाल से मुलाक़ात में आख़िर यह तय पाया गया कि मुझे ग्रेट अंडमानियों से मिलवा दिया जाए. उसके बाद में निकोबार जाने की अनुमति होगी.

4 दिग्गज एंथ्रोपोलोजिस्ट विश्वजीत पांड्या, एसए अवराधी, ऑंस्टिन जस्टिन और टीएन पंडित से मुलाक़ात

आज़ाद भारत में अंडमान के आदिवासियों यानि ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग, सेंटेनली और शॉम्पेन के बारे में जिन लोगों को दिग्गज माना जाता है, उनमें टीएन पंडित, एसए अवराधी, ऑंस्टिन जस्टिन, और विश्वजीत पांड्या का नाम सबसे पहले आता है.

इनमें से टीएन पंडित और जस्टिन रिटायर हो चुके हैं, और एसए अवराधी अब अंडमान में एक प्रशासनिक अधिकारी हैं. एसए अवराधी अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति, जो इन आदिवासियों के कल्याण से जुड़ी एजेंसी है, में तैनात हैं. विश्वजीत पांड्या फ़िलहाल अहमदाबाद के एक प्राइवेट विश्वविद्यालय में फ़िल्म मेकिंग पढ़ाते हैं.

पांड्या और अवराधी से मेरी मुलाक़ात पोर्ट ब्लेयर में हुई. ऑंस्टिन जस्टिन रिटायर होकर निकोबार के एक गांव में रहते हैं, और वहीं उनसे मेरी मुलाक़ात हुई. टीएन पंडित दिल्ली में रहते हैं, और यहीं पर इनसे मेरी बातचीत हुई थी.

पंडित को पोर्ट ब्लेयर में एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का सेंटर शुरू करने, और उसे क़रीब ढाई दशक तक चलाने का श्रेय हासिल है. ये सभी लोग इन आदिवासियों पर लंबे समय से रिसर्च कर रहे हैं, और इन आदिवासियों पर बनी पिछले कम से कम दो-तीन दशक की सभी नीतियों और योजनाओं से भी इनका वास्ता रहा है.

यह तस्वीर ANTRI के एक कार्यक्रम की है

इन दिग्गजों से मेरी बातचीत और अनुभव को उसी सिलिसिले में रखने की कोशिश होगी जिस क्रम में मेरी इन लोगों से मुलाक़ात हुई थी. सबसे पहले विश्वजीत पांड्या और एसए अवराधी की बात करते हैं.

विश्वजीत पांड्या ने सबसे पहले इस बात पर हैरानी जताई कि मैं जारवाओं या ओंग से मिलना चाहता हूं. उन्होंने क़ानूनों का हवाला दिया और कहा कि मैं पोर्ट ब्लेयर में कुछ इंटरव्यू कर लूं, और उसी से काम चला लूं. लेकिन मैंने बार-बार कहा कि मैं अगर सनसनी नहीं फैलाना चाहता हूं, तो खानापूर्ती भी नहीं करना चाहता हूं.

मैं इन आदिवासियों के बारे में खुद भी समझना चाहता हूं और एक ऐसी रिपोर्ट बनाना चाहता हूं जिसमें संजीदगी हो. मेरे बार-बार आग्रह करने के बाद उन्होंने हथियार डालने के अंदाज़ में कहा कि फिर तो प्रशासन ही आपको इस बारे में इजाज़त दे सकता है.

मोटेतौर पर तय यह हुआ कि मेरी रिक्वेस्ट की फ़ाइल अपनी गति से चलेगी. लेकिन वो यानि विश्वजीत पांड्या मुझे अपने अनुभव और प्रशासन की पॉलिसी पर एक इंटरव्यू देंगे, एसए अवराधी मुझे रिसर्च से जुड़े दस्तावेज़ या किताबें जो भी मुझे ज़रूरत है उसमें मेरी मदद करेंगे.

अगले दिन विश्वजीत पांड्या से लंबा इंटरव्यू करने का कार्यक्रम तय हो गया. इसके साथ ही यह भी तय हुआ कि यह इंटरव्यू जिरकाटांग चौकी पर किया जा सकता है जहां से जारवा रिज़र्व फ़ॉरेस्ट शुरू होता है.

ANTRI, जिरकाटांग चौकी और फ़रारगंज जारवा वॉर्ड

अगले दिन सुबह मैं अपनी टीम के साथ सुबह 8 बजे ही ANTRI पहुंच गया था. यहां गेट खुला हुआ था, कुछ मज़दूर सड़क से बिल्डिंग के बीच ईंट और टाइल बिछाने का काम शुरू कर चुके थे.

धूप अभी से चुभने लगी थी. विश्वजीत पांड्या को 9 बजे आना था. गेट के सामने ही नारियल वाला बैठा था, हम लोगों ने उधर जाकर नारियल पानी पिया और थोड़ी देर ऐसे ही इधर-उधर टहलते रहे. मेरा एक कैमरामैन आस-पास के शॉट्स ले रहा था.

क़रीब सवा नौ बजे विश्वजीत पांड्या पहुंच गए. वो हमें पहली मंज़िल पर अपने कमरे में ले गए. वो इंटरव्यू के लिए तैयार होकर आए थे. लेकिन मैंने फिर वही राग छेड़ दिया कि मुझे आप जारवा रिज़र्व में ना ले जाएं, लेकिन कम से कम जारवाओं से डिस्पेंसरी में ही सही, मेरी बातचीत करवा दें.

उन्होंने मुझे कहा कि वो हद से हद इतना कर सकते हैं कि मुझे जिरकाटांग चौकी तक ले जा सकते हैं जहां से जारवा रिज़र्व शुरू होता है. इसके अलावा फ़रारगंज में जारवाओं के लिए बनी डिस्पेंसरी भी दिखवा सकते हैं.

इसके अलावा उन्होंने कहा कि टुश्नाबाद की डिस्पेंसरी में अगर जारवा मिल जाते हैं तो मैं उनसे बातचीत कर सकता हूं. हालांकि इसके साथ ही उन्होंने एक बात जोड़ दी थी कि इसके लिए पूरी तरह से प्रशासन की मर्ज़ी होगी.

लेकिन उन्होंने मुझसे वायदा किया कि वो अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति के एक वॉलेंटियर, राजकुमार, से मिलवाएंगे जो जारवाओं और प्रशासन के बीच की अहम कड़ी है.

इसके बाद विश्वजीत पांड्या ने मुझे कुछ वीडियो दिखाए जिसमें वो जारवाओं से बातचीत कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि वो जारवाओं को पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. इस सिलसिले में उन्होंने अंग कथा लिखी है. विश्वजीत पांड्या ने बताया कि जिन्हें हम जारवा कहते हैं वो दरअसल ख़ुद को अंग कहते हैं.

मेरा दिमाग पूरी तरह से घूम गया था. विश्वजीत पांड्या के पास जारवाओं की ना सिर्फ़ तस्वीरें मौजूद हैं, बल्कि घंटों की वीडियो फ़ुटेजभी है. मैंने उनसे कहा कि आप मुझे कुछ जारवाओं से बातचीत का मौक़ा दें, औरउनके परिवेश को दिखाने के लिए कुछ वीडियो फ़ुटेज दे दें.

इस पर वो मुस्कराए और धीरे से कहा,‘इस फ़ुटेज की कीमत जानते हैं? ’ फिर उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘छोड़िए, मैं आपको ये फ़ुटेज दे भी दूंगा, तो आप इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे.’ उन्होंने मुझे एक सीडी दी और कहा कि उसमें कुछ काम की फ़ुटेज मुझे मिल सकती है, जिसे मैं इस्तेमाल कर सकता हूं.

उसके बाद उन्होंने मुझे कहा कि मैं इंटरव्यू कर लूं, क्योंकि उसके बाद उन्हें कुछ काम है.

मैंने उन्हें रिक्वेस्ट किया कि हम उनका इंटरव्यू अगले दिन जारवा रिज़र्व की जिरकाटांग चौकी पर ही करना चाहेंगे. थोड़ी ना-नुकर के बाद वो इसके लिए तैयार हो गए.

इसके बाद वो हमें ANTRI के हॉल में ले आये. तब तक एसए अवराधी भी वहां पहुंच चुके थे. अवराधी और पांड्या के साथ हमने इस हॉल में लगे अंडमान के आदिवासियों के फ़ोटो शूट किए, और उनके कुछ औज़ारों और दूसरी चीज़ों को देखा और दोनों से उनका इतिहास समझा.

इसके बाद अवराधी को मैंने ANTRI की लाइब्रेरी की कुछ किताबों के कुछ हिस्सों की फ़ोटोकॉपी कराने की रिक्वेस्ट की तो उन्होंने तुरंत अपने साहयक को बुलाकर आदेश दे दिया की अगले दिन मुझे वो सब फ़ोटोकॉपी दे दी जाएं.

ANTRI की स्थापना क्यों की गई है जबकि पोर्टब्लेयर में एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का एक काफ़ी बड़ा सेंटर मौजूद है, जहां बरसों से इन आदिवासियों पर रिसर्च हो रही है? बल्कि ANTRI की स्थापना जिन्होंने की है उनकी खुद की रिसर्च भी एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के साथ रहकर ही हुई है.

इस पर बाक़ायदा एक फ़िल्म ANTRI की तरफ़ से बनाई गई है. इस मसले पर कुछ लोगों से बात हुई, लेकिन हम ज़्यादा इस बात में घुसे नहीं. इस सवाल में घुसने का परिणाम हमारा पहले से ही मुश्किल काम और मुश्किल हो सकता था.

लेकिन जिन लोगों से बात हुई उन्होंने इस संस्थान को खड़ा करने के मक़सद पर गंभीर सवाल उठाए. अगले दिन जिरकाटांग चौकी चलने का कार्यक्रम तय हो चुका था, तो हम इसके बाद गेस्टहाउस लौट आए.

अगले दिन सुबह क़रीब 7 बजे हम लोग गेस्टहाउस से निकलने को तैयार हुए तो मैंने पांड्या को फ़ोन कर पूछा की हम उन्हें कहां से अपने साथ ले सकते हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि वो हमें जिरकाटांग चौकी पर ही मिलेंगे.

हम लोग तुरंत जिरकाटांग चौकी के लिए निकल पड़े. जब हम वहां पहुंचे तो पांड्या के साथ बीके तिवारी भी मौजूद थे. मुझे बीके तिवारी के वहां होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी.

लेकिन मेरे पास अपनी नाखुशी दिखाने का विकल्प नहीं था. आखिर वो आदिवासी विभाग के निदेशक हैं.

जिरकाटांग चौकी पर काफ़ी चहल-पहल थी. धीरे-धीरे वहां गाड़ियों की लाइन लंबी होने लगी. उन गाड़ियों में से टूरिस्ट उतरकर चौकी के पास बने दो-तीन ढाबों पर चाय नाश्ता ले रहे थे.

मैं विश्वजीत पांड्या के साथ गपशप कर रहा था. मैंने उन्हें कहा कि गाड़ियों का काफ़िला निकल जाए तो हम इंटरव्यू शुरू कर सकते हैं.

जिरकाटांग चौकी पर कई बोर्ड लगे हैं जिनपर जारवा रिज़र्व से गुज़रने वाली गाडियों और उनमें बैठे टूरिस्टों के लिए हिदायतें हैं. मसलन, कोई भी गाड़ी जारवा रिज़र्व में रोकी ना जाए, कोई भी पर्यटक जारवाओं के फ़ोटो ना खींचे, कोई भी पर्यटक किसी जारवा को कुछ खाने के लिए ना दे इत्यादि.

थोड़ी देर में लाउडस्पीकर से बोर्ड पर लिखी हिदायतों की बाक़ायदा घोषणा शुरू हो गई. इसके कुछ देर बार बैरियर उठा दिया गया, और गाड़ियां जारवा रिज़र्व में दाख़िल हो गईं.

जिरकाटांग चौकी

गाड़ियों के चले जाने के बाद जिरकाटांग चौकी पर सन्नाटा पसर गया. ढाबे भी पूरी तरह से सूने हो गए थे. हम लोग बैरियर पार कर पैदल-पैदल एक मचाननुमा जगह की तरफ़ बढ़े जो प्रशासन की तरफ़ से वहां बनाई गई थी.

उसके बिलकुल सामने जिरकाटांग चौकी का पुलिस स्टेशन है. एक ऊंची बिल्डिंग और उसपर लहराता तिरंगा. मैंने ऐसे ही विश्वजीत पांड्या से पूछा कि क्या जारवा ये जानते हैं की यह उनके देश का झंडा है. वो बस मुस्कुरा दिए.

मैंने विश्वजीत पांड्या का इंटरव्यू शुरू किया. उनके साथ काफ़ी लंबी बातचीत हुई. जारवाओं के अलावा ओंग, सेंटिनली और ग्रेट अंडमानियों के बारे में विस्तार से बात हुई.

उनसे इस बातचीत के निचोड़ की बात करूं तो दो बातें कही थीं उन्होंने. पहली ये कि फ़िलहाल उनके मार्गदर्शन में प्रशासन इन आदिवासियों के सशक्तिकरण पर काम कर रहा है. यानि इन आदिवासियों को बिठाकर खिलाने की बजाए उन्हें सुविधाएं दे रहा है, लेकिन उनकी जीवन शैली को डिस्टर्ब नहीं कर रहा है.

उन्होंने कहा कि प्रशासन की नीति ‘Eyes on, and hands off’की है. उन्होंने कहा कि जारवाओं, ओंग और ग्रेट अंडमानियों के बारे में ग़लत धारणाएं बनी हुई हैं. इसके लिए वो कई नामी एंथ्रोपोलोजिस्ट्स को भी ज़िम्मेदार मानते हैं.

इसके अलावा उन्होंने कहा कि इस बात में कोई शक नहीं है कि इन आदिवासियों के बाहरी दुनिया से संपर्क को अब रोका नहीं जा सकता, क्योंकि अब इन द्वीपों पर आबादी काफ़ी हो चुकी है. इन द्वीपों पर जो बाहर से आकर लोग बसे हैं, उनके भी अधिकार हैं.

उनकी नज़र में ज़रूरत इस बात की है कि ये लोग (जिन्हें वो सेटलर्स कहते हैं) जो बाहर से आकर बसे हैं उन्हेंये समझाना होगा कि जारवाओं के इलाक़े में वो ना जाएं.

यानि पीसफ़ुल को-एग्ज़िस्टेंस (peaceful coexistence) ही रास्ता है. उनकी इन दोनों ही बातों पर मैंने कई और एंथ्रोपोलोजिस्ट्स और एक्टिविस्ट्स से बात की.

उस पर अलग से एक कहानी है जो बाद में लिखनी है. लेकिन इस बातचीत में यह ज़रूर था कि उन्होंने एक एंथ्रोपोलोजिस्ट की हैसियत से जो रिसर्च की उससे मुझे कई महत्वपूर्ण जानकारी मिलीं.

हालांकि फ़िलहाल वो अपना ऐकेडमिक और रिसर्च के काम का इस्तेमाल प्रशासन का बचाव करने के लिए करते हैं. इसका एक प्रमाण मिलता है.

जब 15 मार्च,2016 को एक पांच महीने के जारवा बच्चे की एक जारवा पुरूष द्वारा हत्या की ख़बर आती है. इस घटना पर प्रशासन की तरफ़ से जवाब आने की बजाए इंडियन एक्स्प्रेस में विश्वजीत पांड्या का लिखा हुआ फ्रंट पेज पर लेख छपता है.

विश्वजीत पांड्या अंडमान के जारवा रिज़र्व से लेकर लिटिल अंडमान, स्ट्रेट आइलैंड या फिर सेंटिनल द्वीप के बेताज बादशाह हैं. उन्हें यहां पर जाने की खुली छूट है.

इस दौरान वो इन आदिवासियों के फ़ोटो खींच सकते हैं उनके वीडियो इंटरव्यू कर सकते हैं. उनसे कोई पूछताछ नहीं होती है. वो इन इंटव्यूज़ या फोटोज़ का इस्तेमाल इन आदिवासियों के कल्याण के लिए कितना और कैसे करते हैं, उनके अलावा शायद ही यह सच्चाई कोई और जानता है.

इंटरव्यू ख़त्म होने के बाद मैंने उनसे और बीके तिवारी से रिक्वेस्ट करते हुए कहा कि क्या वो कुछ देर मेरा इंतज़ार कर सकते हैं, क्योंकि मैं जारवा रिज़र्व की जिरकाटांग चौकी पर बने कुछ घरों में जाकर वहां लोगों से बातचीत करना चाहता हूं.

इसके अलावा यहां चौकी पर बने ढाबों के मालिकों से भी बातचीत करूंगा. मेरी यह बात सुनते ही उन्होंने बीके तिवारी की तरफ़ देखा और फिर दोनों एक साथ उखड़ गए. ‘नहीं-नहीं, यह तो बात तय नहीं हुई थी,’ दोनों ने लगभग एक साथ कहा. मैंने उन्हें समझाते हुए कहा कि इसमें तय होने जैसी बात ही कहां थी, क्योंकि उसके लिए मुझे ना तो उनकी मदद की ज़रूरत है, और ना ही उनकी परमिशन की.

जिरकाटांग चौकी पर मौजूद ढाबा

विश्वजीत पांड्या मेरी बात समझ गए थे. उन्होंने कहा कि उन्हें तो कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन तिवारी जी जानें. मुझे सचमुच में बहुत तेज़ हंसी आ गई, और मैं वहां से उठकर एक घर की तरफ़ बढ़ गया.

इस घर में जो मेरी बातचीत हुई, वो अपने आप में एक बड़ी और अहम कहानी का हिस्सा है और वो अलग से लिखी जाएगी. लेकिन अगले एक घंटे मैं उस घर में रहा, और उस घर में मौजूद तमिल महिला में मेरी लंबी बातचीत हुई थी.

जब मैं लौटा तो विश्वजीत पांड्या और बीके तिवारी दोनों ही काफ़ी तपे हुए लग रहे थे. धूप और भूख वजह थी, या मुझसे नाराज़गी तय करना मुश्किल था. मैंने लौटकर सीधा तिवारी जी से संवाद स्थापित करते हुए कहा कि ‘तिवारी जी अब आपके साथ तय कार्यक्रम पर लौटते हैं.’

बीके तिवारी ने कहा कि चलिए फ़रारगंज डिस्पेंसरी चलते हैं. हम लोग गाड़ियों में सवार हुए और फ़रारगंज की तरफ़ बढ़ लिए. फ़रारगंज जिरकाटांग चौकी से पोर्टब्लेयर की तरफ़ लौटने वाले रास्ते पर ही है. हम फ़रारगंज डिस्पेंसरी पहुंचे. मेन डिस्पेंसरी के पीछे एक लंबी झोंपड़ी थी.

इसकी दीवारें तो ईंट और सीमेंट से बनी थीं पर ऊपर छप्पर था. अंदर 10 -12 चबूतरे बने थे. पांड्या ने बताया कि ये जारवा वॉर्ड है, और क्योंकि जारवा ज़मीन पर सोने के आदी हैं सो बिस्तर उन्हें पसंद नहीं आता है.

इस जारवा वॉर्ड को देखने के बाद मैंने पांड्या से पूछा कि क्या हम टुश्नाबाद की डिस्पेंसरी चलें. उनका जवाब था कि प्रशासन की तरफ़ से मुझे सिर्फ़ इतना ही देखने और समझने की अनुमति है.

मैं समझ चुका था कि प्रशासन या पांड्या से मुझे कोई मदद नहीं मिलनी है. फ़रारगंज से हम अपनी-अपनी गाड़ियों में पोर्टब्लेयर के लिए रवाना हुए. पोर्ट ब्लेयर पहुंचकर विश्वजीत पांड्या ने हमसे विदा लेते हुए कहा कि अगली सुबह वो अहमदाबाद लौट रहे हैं.

एसए अवराधी से बातचीत और इंटरव्यू की मनाही

विश्वजीत पांड्या अहमदाबाद लौट चुके थे. उन्होंने बातचीत में मुझे बताया था कि एसए अवराधी को प्रशासन बहुत अधिक पसंद नहीं करता है. कुछ इसी तरह का इशारा मुझे उपराज्यपाल एके सिंह से भी मिला था.

लेकिन अंडमान के आदिवासियों के बारे में पढ़ने-लिखने के दौरान एसए अवराधी के काम का ज़िक्र लगभग हर एंथ्रोपोलोजिस्ट ने किया था. पोर्टब्लेयर में मेरी कुछ लोगों से मुलाक़ात में भी बार-बार उनके काम का ज़िक्र आ रहा था. पांड्या और प्रशासन को छोड़कर सभी अवराधी के बारे में अच्छी राय रखते हैं.

मेरे पास उनका फ़ोन नंबर मौजूद था सो मैंने उन्हें फ़ोन कर अगले दिन मिलने का समय ले लिया. अगले दिन मैंANTRI में उनसे मिला. कुछ देर इधर-उधर की बात करने के बाद मैंने उनसे एक इंटरव्यू की रिक्वेस्ट की.

इस पर वो मुस्कुरा दिए. उन्होंने कहा कि उन्हें इंटरव्यू देने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इसके लिए मुझे प्रशासन से अनुमति लेनी पड़ेगी. मैंने उनकी तरफ़ देखते हुए पूछा,‘आपको अनुमति की ज़रूरत क्यों है? आप अंडमान निकोबार ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट के सचिव हैं, और एक जाने-माने एंथ्रोपोलोजिस्ट हैं.’ लेकिन उनका कहना था कि वो प्रशासन की अनुमति के बिना कोई इंटरव्यू या बयान तक नहीं दे सकते हैं.

मेरे लिए बड़ी हैरानी की बात थी एक सरकारी अधिकारी से प्रशासन डरता है कि वो एक स्वतंत्र एंथ्रोपोलोजिस्ट की तरह कुछ ऐसी बातें कह सकते हैं जिससे अंडमान प्रशासन को परेशानी हो सकती है. जबकि एक स्वतंत्र एंथ्रोपोलोजिस्ट (विश्वजीत पांड्या) एक सरकारी अधिकारी की तरह बात करता है. अंडमान प्रशासन को भी उनपर ज़्यादा भरोसा है.

एसए अवराधी से अनऔपचारिक तौर पर काफ़ी बातचीत हुई. लेकिन उन्होंने औपचारिक इंटरव्यू नहीं दिया. उनकी देखरेख में एक शोध हो रहा था जो काफ़ी महत्वपूर्ण है.

इस शोध का विषय था जारवाओं के साथ अपराध या फिर जारवाओं और बाहर से आकर बसे लोगों के बीच टकराव, जो पुलिस में रिपोर्ट होते हैं.

इस शोध में यह पता लगाया जा रहा था कि जारवाओं के साथ किस तरह के और कितने अपराध होते हैं. इसके साथ-साथ अंडमान में बाहर से लाकर बसाए गए लोगों के बीच टकराव में कितने आपराधिक मामले दर्ज होते हैं.

इस शोध की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें यह पता लगाने का प्रयास था कि आखिर इन केसों में जांच कैसे की जाती है, और उस जांच का नतीजा क्या निकलता है. कुल मिलाकर इस शोध में यह पता लगाया जाना था कि प्रशासन और न्याय व्यवस्था इन केसों का करता क्या है.

यह अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण शोध है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि जारवा देश के क़ानून को जानते ही नहीं है. पता नहीं उन्हें यह भी पता है कि नहीं कि इस धरती पर भारत नाम का एक देश है, और वो उस देश के नागरिक हैं. इसलिए इस शोध के नतीजे दिलचस्प भी होंगे और बेहद अहम भी.

इस शोध से समाज और प्रशासन का जारवाओं और उनके अधिकारों के प्रति नज़रिया और रवैया काफ़ी हद तक स्पष्ट हो सकता है.

एसए अवराधी से औपचारिक इंटरव्यू और इस शोध के डीटेल नहीं मिल पाने का काफ़ी अफ़सोस था. लेकिन इसके बावजूद उनसे इस अनऔपचारिक मुलाक़ात ने जारवाओं के साथ संपर्क की राजनीति पर काफ़ी कुछ साफ़ कर दिया था.

ऑंस्टिन जस्टिन और टीएन पंडित से मुलाक़ात

ऑंस्टिन जस्टिन और टीएन पंडित दोनों ही एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया से जुड़े लोग हैं. टीएन पंडित ने पोर्टब्लेयर में एएसआई (एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया) का सेंटर स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई.

इसके अलावा वो क़रीब-क़रीब 26 साल पोर्टब्लेयर में रहे और जारवाओं के साथ-साथ अंडमान के ग्रेट अंडमानी, ओंग, सेंटेनली और शॉम्पेन आदिवासियों पर रिसर्च किया.

ऑंस्टिन जस्टिन ख़ुद निकोबारी आदिवासी हैं, और वो भी जारवाओं और सेंटेनली आदिवासियों के साथ सभी मैत्री अभियानों में शामिल रहे हैं. उनकी भी अंडमान के आदिवासियों पर लंबी रिसर्च है.

जस्टिन से मेरी मुलाक़ात पहले हुई. वो रिटायर होकर कार निकोबार में अपने गांव में रहते हैं. जब मैं कार निकोबार पहुंचा तो वहीं पर उनसे मुलाक़ात हुई. यहां मैंने उनके साथ क़रीब डेढ़ घंटे लंबा इंटरव्यू रिकॉर्ड किया.

अंडमान निकोबार के सभी आदिवासी समूहों के बारे में मेरी उनसे बातचीत हुई. इस बातचीत में उन्होंने कई अहम बातें बताईं और साथ-साथ अपने रिसर्च और अनुभव के आधार पर अंडमान के आदिवासियों ग्रेट अंडमानी, जारवाओं और ओंग के अलावा शॉम्पेन्स और निकोबारियों के बारे में प्रशासन की नीतियों पर काफ़ी आलोचनात्मक तरीक़े से बात की.

मसलन उन्होंने मुझे बताया कि 2004 में जो सुनामी आई थी उसमें सेंटेनली आदिवासियों को नुक़सान हुआ था. यानि इनमें से कई आदिवासी मारे गए थे.

उन्होंने यह बात सार्वजनिक कर दी थी और प्रशासन उनसे नाराज़ हो गया था. प्रशासन ने यह बात रिकॉर्ड में कहीं भी दर्ज नहीं की थी.

इसके अलावा ग्रेट अंडमानी आदिवासियों या ओंग समुदाय के बारे में उन्होंने कहा कि इन आदिवासी समुदायों में ‘हम कौन हैं’ की फ़ीलिंग ख़त्म हो चुकी है.

यानि उन्हें अपने समुदाय पर गर्व नहीं है. इसलिए ये समुदाय ख़त्म होने के कगार पर हैं. जबकि जारवा या सेंटेनली अपनी ज़मीन और वजूद को बचाने के लिए आक्रामक हैं. इसलिए ये दोनों समूह फल-फूल रहे हैं.

ऑंस्टिन जस्टिन ने जारवाओं के साथ मैत्री अभियानों के अलावा यह जानकारी भी दी की नॉर्थ सेंटिनल में रहने वाले आदिवासियों के बारे में यह कहना कि वो पूरी तरह से अछूते हैं, यह ग़लत धारणा है.

उनके साथ भी बाहरी दुनिया का संपर्क है, लेकिन सीमित है. शायद उतना नहीं जितना जारवाओं के साथ हो चुका है. उन्होंने जारवाओं के साथ मैत्री अभियानों के बारे में अपने कुछ अनुभव शेयर किए.

उन्होंने भी मुझे बताया कि उनके पास जारवाओं और सेंटेनली मैत्री अभियान के कई फ़ोटो और वीडियो हैं. मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या मुझे वो कुछ तस्वीरें और वीडियो दिखा सकते हैं, या मेरे साथ शेयर कर सकते हैं. मैंने उन्हें वायदा किया कि मैं किसी भी तरह से इनका दुरुपयोग नहीं करूंगा.

लेकिन उन्होंने इस मामले में मुझे साफ़ इंकार किया. अब मैं उनसे थोड़ा सा जारवाओं की सामाजिक संरचना और उनके परिवार कीअवधारणा, जीवनशैली आदि के बारे में समझना चाहता था.

लेकिन वो जितना खुलकर मैत्री अभियानों का विवरण दे रहे थे या फिर प्रशासन की नीतियों पर बात कर रहे थे, इस बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया.

इतना ज़रूर कहा कि जल्दी ही एक किताब एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की तरफ़ से छपने वाली है, उसमें वो एक चैप्टर लिख रहे हैं. इस किताब से शायद मुझे कुछ मदद मिल सके.

टीएन पंडित से मेरी मुलाक़त दिल्ली में हुई थी. यह आदमी 26 साल पोर्टब्लेयर में पोस्टेड रहा और वहीं अपनी जवानी गुज़ार दी. जारवाओं और अंडमान के दूसरे आदिवासियों पर इनकी रिसर्च को काफ़ी गंभीरता से लिया जाता है.

इनसे बातचीत में पता चला कि एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया जारवाओं या दूसरे आदिवासियों के बारे में मानता है कि वो कम से कम 2000 साल से इन द्वीपों पर रहते आए हैं.

जबकि मैंने जो पढ़ा-सुना था उसमें कम से कम 40,000 साल का समय बताया जाता है. कुछ एंथ्रोपोलोजिस्ट तो इस समय को 70,000 साल भी बताते हैं.

जारवाओं के साथ मैत्री अभियानों से जुड़े लोगों के बारे में भी उन्होंने अनऔपचारिक बातचीत में अपनी राय दी. मसलन, विश्वजीत पांड्या के बारे में उनकी राय बहुत अच्छी नहीं थी.

उनके अनुसार रिसर्च से ज़्यादा पांड्या का ध्यान जारवाओं या ओंग रिसर्च के नाम पर पैसा बनाने पर रहा.

मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने और कई और लोगों ने अंडमान के आदिवासियों पर लंबा शोध किया है. शोध के लिए जारवाओं और सेंटेनली आदिवासियों से संपर्क साधने के लिए मैत्री अभियान चलाए गए, लेकिन इन आदिवासियों के बारे में अभी भी रहस्य ही ज़्यादा है.

अभी भी काफ़ी हद तक ये आदिवासी बाहरी दुनिया के प्रति बहुत अच्छी राय नहीं रखते हैं. ये आदिवासी आज भी बाहर से उनके जंगलों में दाख़िल होने की कोशिश करने वालों पर हमला कर देते हैं.

इस पर जारवाओं के बारे में उन्होंने कहा कि जारवा अब उतने आक्रामक नहीं है, लेकिन सेंटेनली आदिवासी अभी भी बेहद आक्रामक हैं. सेंटेनली आदिवासियों से भी संपर्क काफ़ी हद तक बन चुका है.

इस संपर्क के नतीजों के बारे में वो बताते हैं कि जारवाओं और दूसरे आदिवासी समूहों के बारे में नीतियां बनाने में इन अभियानों से मदद मिली है. इन आदिवासियों के बारे में इन अभियानों से बेहतर समझ बनी है.

निष्कर्ष

अंडमान में मैं दो जारवा लड़कियों से कैसे मिला यह एक अलग कहानी है, और अलग से लिखी गई है. लेकिन इस दौरे में एक बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि इन आदिवासियों से संपर्क के पीछे एक राजनीति है.

एक देश के तौर पर भारत की राजनीति इन आइलैंड्स पर उसका क़ब्जा और संसाधनों पर उसका पहला अधिकार था.

इन आदिवासियों को आधुनिक सभ्यता के फल का हिस्सेदार बनाना मात्र एक ढोंग रहा है. बिलकुल वैसे ही जैसे अंग्रेज़ों का था.

इसके अलावा इन आदिवासियों के साथ तथाकथित मैत्री अभियानों में लोगों को बहुत सोचसमझकर शामिल किया जाता था.

इन अभियानों का मक़सद इन जारवाओं को समझने या इन पर शोध करने से ज़्यादा इन मुलाक़ातों को ऐतिहासिक घटना के तौर पर पेश करना था. इसी मक़सद से इन अभियानों में बाद में कुछ चुने हुए पत्रकारों को भी शामिल कर लिया जाता था.

पिछले 200 सालों में अंडमान के आदिवासियों के साथ संपर्क ने लगातार इन आदिवासियों के वजूद को ख़तरे में डाला है. ग्रेट अंडमानी समूह तो एक तरह से ख़त्म ही हो चुका है, और ओंग समुदाय भी उसी ख़तरे से गुज़र रहा है. जारवा और सेंटेनली अभी काफ़ी हद तक बचे हुए हैं क्योंकि वो अपनी ज़मीन और जंगलों को लेकर आक्रामक हैं.

इन अभियानों का एक मक़सद इस आक्रामकता को कम करना है. इसके लिए इन अभियानों में इन आदिवासियों के लिए गिफ़्ट जिसमें नारियल, केले और लाल कपड़े जैसी चीज़ें दी जाती रही हैं.

लेकिन इस बात के भी प्रमाण हैं कि मैत्री अभियानों में तंबाकू भी इन आदिवासियों तक पहुंचाया गया, और शराब का भी इस्तेमाल किया गया. इरादा साफ़ था कि एक बार इन चीज़ों की लत इन आदिवासियों को अगर लग जाती है तो फिर इन्हें तथाकथित मुख्यधारा में लाने में ज़्यादा असुविधा नहीं होगी.

ग्रेट अंडमानियों के बारे में यह प्रयोग आधुनिक दुनिया सफलता से कर चुकी थी, और यह समुदाय आज लगभग समाप्त हो चुका है. इस समुदाय की अपनी भाषा बोलने वाला एक भी व्यक्ति नहीं बचा है. ओंग आदिवासी भी लगभग उसी रास्ते पर हैं.

इन मैत्री अभियानों में शामिल रिसर्च करने वालों ने इन आदिवासियों की भाषा या उनकी सामाजिक संरचना को समझने में या फिर उसे रिकॉर्ड करने में कितना योगदान दिया है कहना मुश्किल है.

क्योंकि आज तक यह भी तय नहीं हो पाया है कि जारवा अगर खुद को जारवा नहीं मानते तो फिर वो खुद को क्या कहते हैं. वो अपने समूह को कोई नाम देते भी हैं या नहीं, ये भी साफ़ नहीं है.

अंडमान के आदिवासियों को आधुनिक दुनिया में लाने की तमन्ना से पहले यह भी तो साफ़ होना चाहिए कि अपने समाज में आप इन आदिवासियों को शामिल करने के बाद उन्हें क्या दर्जा देंगे.

सच्चाई यही है कि जारवाओं के साथ मैत्री अभियानों में कुछ ख़ास लोगों को बार-बार इन जंगलों के समुद्री किनारों पर इन आदिवासियों से मिलने का मौक़ा दिया गया.

इन मुलाक़ातों को ऐतिहासिक घटनाओं के तौर पर पेश किया गया. इन अभियानों में शामिल अधिकारियों, फ़िल्म्स डिविज़न के लोगों, और पत्रकारों के अलावा एंथ्रोपोलोजिस्ट्स तक ने इन मुलक़ातों को बेहद रोमांटिक तरीक़े से पेश किया है.

इन मैत्री अभियानों के बाद यह बताने की कोशिश की गई कि जारवा अब बाहरी लोगों पर भरोसा करते हैं. लेकिन यह भी तो सच नहीं है. पिछले 200 सालों में जारवाओं के साथ संपर्क का इतिहास बताता है कि वो तथाकथित आधुनिक दुनिया पर आज भी भरोसा नहीं करते.

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