भारत में आदिवासी या जनजाति समुदायों की कोई ठोस या तय परिभाषा नहीं है. लेकिन किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के लिए कुछ मापदंड तय ज़रूर हो गए हैं. इन मापदंडों में ख़ास जीवनशैली और सांस्कृतिक पहचान शामिल है. इसके अलावा आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के मापदंडों में मुख्यधारा से दूरी को भी शामिल किया गया है.
इसके बवाजूद समय समय पर आदिवासी या अनुसूचित जनजाति की पहचान के मसले सामने आते रहे हैं. इसी तरह का एक मसला है कि अगर कोई आदिवासी महिला किसी ग़ैर आदिवासी से शादी कर ले तो क्या उनकी औलाद को आदिवासी माना जा सकता है. या फिर अगर एक आदिवासी पुरूष ग़ैर आदिवासी समुदाय की स्त्री से शादी करता है तो क्या उस शादी से पैदा हुई संतान को आदिवासी माना जा सकता है.
यह सवाल एक बेहद ज़रूरी सवाल है क्योंकि बदलते समय के साथ ऐसी घटनाएं और स्थितियां बार-बार आएंगी. इसलिए इन सवालों का सामाधान ज़रूरी है. ये सवाल अलग अलग समय पर देश की अदालतों में पहुंचते भी रहे हैं.
यह सवाल अक्सर अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा, नौकरी के अलावा संसद और विधान सभाओं में मिलने वाले आरक्षण के संदर्भ में देखा जाता है. लेकिन आदिवासी कस्टमरी लॉ के तहत उत्तारधिकार नियमों के संदर्भ में भी यह एक व्यापक सवाल है.
भारतीय संविधान में इससे जुड़ा एक प्रवधान है. जिसमें भाग 3 में सुनिश्चित करने हेतु आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान किया गया है.
संविधान में भाग 3 की धारा 15(4) या 16(4) में अवसर की समता को तथा संविधान के भाग-16 में अनुच्छेद-330, 332 एवं 335 के जरिय आदिवासियों के लिए संसद, विधानसभा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था दी गई है. आईए इस पूरे मसले को कुछ मुकदमों और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के साहरे समझने की कोशिश करते हैं.
1) अंजन कुमार
सुप्रीम कोर्ट में 2006 में अंजन कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंव अन्य 3 एस.सी.सी 257 मामला आया था. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अंजन कुमार को गैर आदिवासी घोषित किया था. इसके साथ ही कहा था कि अगर माता आदिवासी हो और पिता गैर आदिवासी हो तो संतान आदिवासी होने का दावा नहीं कर सकती है.
लेकिन पिता आदिवासी हो और माता गैर-आदिवासी हो तो संतान आदिवासी होने का दावा कर सकता है क्योंकि संतान की जाति उसके पिता से निर्धारित होती है. पर यह भी हर मामले के हिसाब से अलग होगा.
दरअसल इस मामले में अंजन कुमार ने यह दावा किया था की वह आदिवासी है. लेकिन जब कोर्ट ने मामले की जांच कि तो पता चला कि वह आदिवासी माता और कायस्थ पिता का संतान है.
दोनों ने कोर्ट में शादी कि थी. फिर वह दोनों अपनी संतान अंजन कुमार के साथ गया में रहने लगे और वहीं उनके संतान अंजन कुमार ने अपनी पढ़ाई पूरी की.
इसके अलावा अंजन कुमार उच्च जाति के परिवेश में पला बढ़ा है. तो उसने कभी सामाजिक भेदभाव व पिछड़ापन नहीं देखा है.
लेकिन फिर भी अंजन कुमार का यह दावा है कि वह छुट्टियां में अपनी मां के गांव आना जाना करता है और आदिवासियों के साथ उनके अच्छे संबंध है. जिससे यह प्रतीत होता है कि उन्होंने उसे आदिवासी स्वीकार कर लिया है.
इस पर कोर्ट ने कहा था कि मां के गांव में चले जाने से आदिवासी समुदाय स्वीकार कर ले. ये कोई बात नहीं होती है और यह भी कहा था कि आदिवासी मां से जन्म लेने के बावजूद आदिवासी होने के लिए उनकी रीति-रिवाज, परंपरा और संस्कृति को अपनाना भी बहुत जरुरी है.
2) गुजरात के रामेशबाई दबाई नायक
2012 में फिर से इसी तरह के एक मामला पर कोर्ट में सुनवाई हुई थी. जिसमें गुजरात के निवासी रामेशबाई दबाई नायक नाम के व्यक्ति का जाति प्रमाण-पत्र एंव आदिवासी कोटा से मिला राशन दुकान को स्र्कूटनी कमेटी ने रद्द कर दिया था.
इस बात को उच्च न्यायालय ने सही कहा था. जिसके बाद रामेशबाई दबाई नायक बनाम स्टेट ऑफ गुजरात एंव अन्य एस.एल.पी (सिविल) के 4282 वाला यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था. यहां पर पीड़ित रामेशबाई दबाई नायक जिनकी माता आदिवासी और पिता क्षत्रिय है. उन्होंने यह दलील देते हुए याचिका दर्ज कि थी की वह अपनी मां के घर में पला बढ़ा है और उन्होंने शादी भी एक आदिवासी महिला से की है इसलिए वह आदिवासी है.
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने रामेशबाई के तरफ ही फैसला सुनाया था. कोर्ट ने कहा था की कोई आदिवासी माता और गैर-आदिवासी पिता की संतान आदिवासी होने का दावा नहीं कर सकते है. लेकिन आदिवासी पिता और गैर-आदिवासी माता की संतान को आदिवासी का अधिकार मिलेगा. पर यह हर मामले में अलग होगा.
कोर्ट ने यह भी कहा था की अगर कोई आदिवासी माता और गैर-आदिवासी पिता की संतान आदिवासी रीति-रिवाज, नियमों का पालन करती है. इसके साथ ही आदिवासी सुमदाय ने उससे अपनाया हो और पिता के तरफ से कोई लाभ ना मिला हो. तभी उन लोगों को भी आदिवासी होने का अधिकार मिलेगा.
3) र्सिफ आदिवासी युवक से शादी नहीं देगी महिला को आरक्षण का लाभ
सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर आदिवासी का अधिकार मिलेगा या नहीं विषय पर एक गंभीर मामला आया था. जिसमें यह पूछा गया था की क्या एक गैर-आदिवासी महिला अगर आदिवासी युवक के साथ शादी करती है. तो उससे संविधान के अनुच्छेद-15(4) या 16(4) के अंतर्गत अनुसूचित जनजाती को मिलने वाला आरक्षण का लाभ मिलेगा.
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों की सुनवाई के बारे में बताया था कि मुर्लिधर दयानदेव केसेकर बनाम विश्वनाथ पांडू बर्डे 1995(2) एस.सी.सी. 549 एंव आर. चन्द्रदेवरप्पा बनाम स्टेट ऑफ कर्नटक (1995) 6 एस.सी.सी. 309: जे.टी. (1995) 7 एस.सी.सी. 93 में कहा गया था कि आर्थिक सशक्तिकरण गरीबों का मौलिक अधिकार है एंव संविधान के अनुच्छेद-15(3), 46 एंव 49 के द्वारा उन्हें आर्थिक सशक्तिकरण के लिए अवसर उपलब्ध कराया गया है.
इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा था की इसलिए अगर गैर-आदिवासी महिला आदिवासी युवक से शादी करती है. तो उस महिला को आदिवासी होने का और आरक्षण का अधिकार नहीं मिलेगा.
क्योंकि गैर आदिवासी महिला को आदिवासी होने का और आरक्षण का अधिकार तब ही मिलेगा. जब वह आदिवासी रीति-रिवाज और रस्मों के साथ शादी करेगी.
इसके अलावा यदि वह आदिवासियों के रीति-रिवाज, संस्कृत और उनकी तरह जीवन यापन करेगी. इसके साथ ही आदिवासी समुदाय भी उसे अपना ले तो ही आदिवासी युवक से शादीशुदा गैर आदिवासी महिला को आदिवासी होने के साथ-साथ आरक्षण का लाभ मिलेगा.
आदिवासी कौन है और अनुसूचित जनजाति के बाहर विवास संबंध से पैदा हुई संतानों को आदिवासी मानने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले मौजूद हैं. लेकिन इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले इस सवाल का स्थाई समाधान नहीं देते हैं. सुप्रीम कोर्ट केस टू केस मामले देख कर फैसला देने की बात करता है.
इसलिए यह ज़रूरी है कि यह सवाल संसद में तय हो और आदिवासी पहचान, उत्तारधिकार और अन्य ज़रूरी मसलों पर चर्चा कर संवैधानिक और कानून स्पष्टता दी जाए.