हम ओडिशा के दुरवा आदिवासियों (Durua or Dhurua/Dhurwa) से मिलने कोरापुट ज़िले के ताल्लूर गांव में पहुंचे. छत्तीसगढ़ के जगदलपुर (Jagdalpur) में भी इन आदिवासियों की आबादी है. लेकिन वहां उन्हें धुरवा कहा या लिखा जाता है. बस धुरवा और दुरवा के उच्चारण में मामूली से इस फ़र्क ने ओडिशा के दुरवा आदिवासियों को अपने सवैंधानिक और क़ानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया है.
छत्तीसगढ़ के धुरवा आदिवासियों को जनजाति का दर्जा मिला है, बल्कि इस आदिवासी समूह को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन कोरापुट के दुरवा आदिवासियों को आज तक जनजाति का दर्जा तक नहीं मिला है. दुरवा आदिवासी समुदाय लंबे समय से खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का आग्रह कर रहा है.
दुरवा आदिवासी आबादी का बसेरा अभी भी घने जंगलों में है. दुरवा आदिवासियों का यह गांव ताल्लूर भी घने जंगल में बसा है. ताल्लूर गांव और आस-पास इमली का पूरा जंगल है. इमली के अलावा जंगल में आंवला,हरड़, बहेड़ा, शिकाकाई और गोंद जैसे वनोपज की भरमार है.
ताल्लूर गांव में हम सीधे उनके मुखिया के घर पहुंचे. घर में एक बड़ा सा आंगन था, और आंगन के तीन तरफ़ कुछ-कुछ दूरी पर तीन कच्चे कमरे हैं जिनकी खपरैल की छत है. घर के मुख्य दरवाज़े की बाईं तरफ़ रसोई है. रसोई पर खपरैल नहीं है बल्कि छप्पर है. दरवाज़े की दाईं तरफ़ भी एक छप्पर है, लेकिन दीवारें नहीं हैं, बल्कि लकड़ियां गाड़ कर उस पर छप्पर टिकाया गया है. इस छप्पर में ढुकी (धान कूटने का देसी यंत्र) लगी है.
जब हम पहुंचे तो मुखिया अपने भाई के साथ खेत से लौटे थे, और खाना खाने की तैयारी कर रहे थे. हमने महसूस किया कि हमारे पहुंचने से वो थोड़ी से दुविधा में आ गए थे. पत्ते से बने एक दोने में उबला चावल और रागी था, और दूसरे दोने में उबला हुआ कद्दू. हमने उनकी दुविधा को भांपते हुए उनसे कहा कि वो पहले खाना खा लें, उसके बाद हम उनसे बात करेंगे. तब तक हम छाया में बैठ लेते हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है. बोले, अगर पहले से पता होता तो और खाना बनाकर रखा जाता. हमने उन्हें बताया कि हम खाना खा कर आए हैं और वो खाना खा लें. फिर भी उन्होंने कहा कि वो थोड़ी देर में खाना खाएंगे. उन्होंने अपने भाई को बुलाया और अपनी भाषा में उनसे कुछ कहा. हमारे साथ मौजूद प्रफ़ुल्ल पाडी (एक अध्यापक जो अब रिटायर हो गए हैं) ने हमें बताया कि उन्होंने अपने भाई को ताड़ी उतार कर लाने के लिए कहा है. घर के पीछे ही ताड़ का एक लंबा पेड़ था. उस पर एक ऐसा बांस टांगा गया था जिसकी गांठों से डंडी निकली हुई थीं. इस बांस को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर मुखिया के भाई तेज़ी से ताड़ के पेड़ पर चढ़ गए. हां, बगल में कद्दू को सुखाकर बनाया गया एक बर्तन, देखने में कमंडल जैसा, लटकाया हुआ था. ताड़ के ऊपर एक बड़ी हांड़ी रखी थी जिसमें ताड़ी जमा थी. वो फ़टाफ़ट ताड़ी उतार लाए.
पत्तों के दोने हमें दिए गए और उनमें ताड़ी डाली गई. धूप चढ़ रही थी, यानि ताड़ी में नशा बनना शुरू हो गया होगा. मुझे दिनभर काम करना था, लेकिन मैं मुखिया के आग्रह को टाल ना सका. लेकिन एक दोना पीने के बाद दूसरे पर मैंने उन्हें हंसते हुए कहा कि उन्हें मुझे सोने के लिए खटिया भी देनी पड़ेगी. इस पर उन्होंने घर की तरफ़ इशारा किया. परघर में खटिया तो है ही नहीं, यानि ये लोग ज़मीन पर ही सोते हैं.
ताड़ी पीने के बाद हमने उन्हें खाना खाने के लिए कहा तो वो ज़िद करने लगे कि हम भी उनके साथ खाएं. हमने उन्हें लाख कहा कि हम खाना खा कर आए हैं, लेकिन फिर भी अपने खाने में से उन्होंने हमें दोने में कुछ चावल और उबला कद्दू दे दिया. कद्दू में नमक के अलावा कुछ नहीं था. कुछ नहीं मतलब, कोई भी मसाला नहीं. ज़ाहिर है कि चावल तो मुखिया को कम पड़ना था. तो उन्होंने चावल के मांड में कुछ उबली हुई रागी घोली और पी गए. मुखिया ने हमें बताया कि उनके खाने में चावल और रागी के अलावा पेठा या कद्दू अहम होता है. इसके अलावा दुरवा आदिवासी बीरी की दाल भी खाते हैं. इनके खाने में इमली का इस्तेमाल भी खूब होता है. दुरवा आदिवासियों के लगभग हर खाने में इमली डाली जाती है. इनके खाने में तेल और मसालों का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं किया जाता.
इसके बाद मुखिया से बातचीत शुरू हुई. मुखिया ने सबसे पहले अपने समाज में अपनी भूमिका के बारे में बताया. दुरवा आदिवासियों में सामाजिक और धार्मिक फ़ैसले लेने का अधिकार गांव के मुखिया को होता है. सामाजिक और धार्मिक पर्व मनाने के फ़ैसले लेने के लिये गांव की सभा बुलाई जाती है, जिसमें पुरूष और महिलाएं सभी शामिल होते हैं.
आदिवासियों के गीत-संगीत धार्मिक पर्वों, खेती-किसानी और आदिवासी जनजीवन से जुड़े हुए हैं. जंगली भैंसे के सींग से बनाये गये सींगा वाद्य को बजाकर पर्व की शुरूआत की घोषणा होती है. बिरली दुरवा आदिवासियों का सबसे लोकप्रिय नृत्य है. इसमें आदिवासी लड़के-लड़कियां जोड़े बनाकर नाचते-गाते हैं. इस नाच में ये युवक और युवती एक जंगली फल के छिलके से बनी झालर घुंघरू की तरह पहनते हैं. इनके संगीत वाद्यों में लकड़ी और चमड़े का इस्तेमाल मिलता है.
इसके बाद हम मुखिया के साथ ताल्लूर गांव का एक चक्कर लगाने निकल पड़े. गांव में महिलाएं छप्परों में बैठीं पत्तों से दोने, या फिर बांस से सूप और टोकरी या फिर चटाई बनाती नज़र आती हैं. दुरवा महिलाएं एक ख़ास अंदाज़ में सूती साड़ी पहनती हैं. इनके बदन पर सिर्फ़ एक ही कपड़ा होता है. ये साड़ी को अपनी कमर से लपेटकर पहले बाएं कंधे पर लाती हैं, और फिर घुमाकर उसे दाएं कंधे पर लाकर एक गांठ बांधती हैं. दुरवा महिलाएं चांदी या एल्युमिनियम के आभूषण पहनती हैं. परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं की ज़्यादा होती है. घर की महिलाएं रोज़ के खाने का इंतज़ाम करती हैं. इसके लिये वो धान और रागी कूट कर साफ़ करती हैं.
दुरवा आदिवासी समाज की ख़ासियत है कि वो आज भी दिनभर की ज़रूरत के हिसाब से धान या रागी कूटते हैं. धान निकालने और साफ़ करने की तकनीक और तरीक़ा आज भी परंपरागत ही है. खाना पकाने के लिये एल्युमिनियम के बर्तन इस्तेमाल किये जाते हैं, लेकिन खाना अभी भी पत्ते के दोने में ही परोसा जाता है.
एक वक़्त में खानाबदोश रहे यानि खाने की तलाश में यहां से वहां भटकने वाले दुरवा आदिवासी अब स्थाई खेती करने लगे हैं. लेकिन उनके खेत जंगल में पहाड़ी ढ़लानों पर हैं. सिंचाई के साधन नहीं हैं, इसलिए खेती पूरी तरह से बारिश के भरोसे है. ये आदिवासी अभी भी परंपरागत तरीके से ही खेती करते हैं. नये बीज या खाद का इस्तेमाल इन इलाक़ों में बिल्कुल नहीं होता. खेती से जुड़े औज़ार और तकनीक भी परंपरागत हैं. धान, रागी या सरसों की फ़सल पक जाने पर आज भी खलिहान में पूरा परिवार मिलकर झड़ाई का काम करता है. इस इलाक़े में खेती से जुड़े कोई आधुनिक उपकरण या मशीन आपको नज़र नहीं आते हैं. लिहाज़ा मेहनत की तुलना में उत्पादन कम ही होता है. दुरवा आदिवासियों का सामाजिक तानाबाना और व्यहवार हो, या आर्थिक गतिविधियां, या फिर खेती किसानी से जुड़ी तकनीक, ये आदिवासी आदिम जनजाति की श्रेणी में रखे गये आदिवासी समुदायों से किसी भी मामले में अलग नज़र नहीं आते.
दिनभर गांव और उनके खेतों में घूमने के बाद, हम मुखिया के घर लौटे. मुखिया ने गांव के लड़के-लड़कियों को उनका पारंपरिक नृत्य करने के लिए बुलाया था. नृत्य के बाद आदिवासी लड़के-लड़िकियों के साथ कुछ देर बातचीत हुई. ये लड़के-लड़कियां स्कूल में पढ़ते हैं.
इसके बाद हम ताल्लूर गांव के गुचन दुरवा के घर पहुंचे. गुचन दुरवा ओडिशा में अपने समाज के मुखिया हैं. दुरवा आदिवासियों के सामाजिक और धार्मिक फ़ैसले आमतौर पर गांव के मुखिया करते हैं, लेकिन समाज के बड़े मसलों के लिये पूरे समुदाय के मुखिया को अधिकार दिया जाता है. हालांकि इन फ़ैसलों में समुदाय की भागीदारी होती है. इन फ़ैसलों में स्त्री और पुरुष दोनों शामिल होते हैं. समुदाय के मुखिया चुने जाने के लिये ज़रूरी है कि जिस व्यक्ति को चुना जा रहा है वो समुदाय की परंपराओं और नियम कायदों को भली भांती समझता हो.
गुचन मुखिया ने हमें बताया कि “पहले मुझे कुछ ब्लॉक के लोगों ने मुखिया चुना, उसके बाद राज्य के दूसरे ज़िलों के लोगों ने भी अपनी सहमति दी.”
गुचन दुरवा ने मुखिया बनने के बाद अपने समुदाय को आदिम जनजाति का दर्जा दिलाने की कोशिशों को तेज़ करने का प्रयास किया. इस सिलसिले में वो अपनी संस्कृति और गीत-संगीत, वाद्यों के प्रदर्शन के लिये कई बार दिल्ली जा चुके हैं. उन्होंने अपनी भाषा-बोली, परंपरा और जीवनशैली को लेकर भी दिल्ली में अधिकारियों को जानकारी देने की कोशिश की है.
उन्होंने हमें बताया कि ओडिशा के कोरापुट ज़िले के दुरवा आदवासियों की रिश्तेदारी छत्तीसगढ़ के धुरवा आदिवासियों में हैं. छत्तीसगढ़ में धुरवा आदिवासियों को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. उन्हें वहां आरक्षण और दूसरी योजनाओं का लाभ भी दिया जाता है. दुरवा आदिवासियों के मुखिया के अपने परिवार में छत्तीसगढ़ की धुरवा महिलाएं ब्याह कर लाई गई हैं, और उनके परिवार आदिम जनजाति की श्रेणी में आते हैं.
आदिवासियों को जनजाति की सूची में रखे जाने पर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ये सूची राज्य विशेष के आधार पर होगी. इसका अर्थ ये है कि अगर एक आदिवासी समुदाय को एक राज्य में जनजाति की श्रेणी में रखा गया है, तो ऐसा ज़रूरी नहीं है कि उसी समुदाय को दूसरे राज्य में भी वो दर्जा मिल जाये. संविधान की धारा 342 में ये साफ़ किया गया है कि आदिवासी या आदिवासी समुदायों या किसी समुदाय के किसी हिस्से को जनजाति की सूची में राज्य विशेष या केन्द्र शासित प्रदेश विशेष में ही रखा जायेगा. इस प्रावधान के अनुसार जनजाति की सूची राज्यों या केन्द्र शासित प्रदेशों के लिये अलग-अलग नोटिफ़ाई की जाती है. यह सूची उस राज्य विशेष में ही लागू होती है.
लेकिन संविधान में ये प्रावधान किया गया है कि अनुसूचित जनजाति में नए आदिवासी समुदायों को जोड़ने की प्रक्रिया निरंतर चलेगी. लेकिन कौनसा समुदाय आदिवासी है, और उसको जनजाति की श्रेणी में रखा जाना चाहिए या नहीं, संविधान में इसकी कोई परिभाषा नहीं है. लेकिन किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखने के लिये कुछ मापदंड स्वीकार्य हो गये हैं. इन मापदंडों के अनुसार जिन समुदायों में आदिम जनजीवन की झलक मिलती है, जिनकी एकदम अलग संस्कृति है, जो भौगोलिक तौर पर अलग-थलग हैं, और दूसरे समुदायों से मेलजोल से झिझकते हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा जा सकता है.
हमने यह महसूस किया कि ओडिशा में दुरवा आदिवासी इन सभी मापदंडों को पूरा करते हैं. लेकिन उनको सामान्य श्रेणी में ही रखा गया है. राज्य सरकार ने इस समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा है. लेकिन अभी तक इस प्रस्ताव पर भी कोई कार्यवाही नहीं हो पाई है.
आदिवासी मामलों के मंत्रालय के हिसाब से आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति अलग-अलग स्तर पर है. कुछ आदिवासी समूह हैं जो समय के साथ मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज के साथ जुड़े हैं, और उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही है. लेकिन अभी भी कुछ आदिवासी समूह ऐसे हैं जो मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से बहुत दूर और बहुत पीछे हैं. इन आदिवासी समूहों को PVTG यानि आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा जाता है. आदिम जनजाति की पहचान के लिये कुछ मापदंड तय किए गए हैं. मसलन ये आदिवासी अभी भी खेती में माहिर नहीं हैं, या खेती की उनकी तकनीक पुरातन ही है; उनकी आबादी लगातार घट रही है; साक्षरता दर बेहद कम है; और उनकी आर्थिक गतिविधियां खुद को ज़िंदा रखने तक सीमित हैं. फ़िलहाल कुल 75 आदिवासी समूहों को इस श्रेणी में रखा गया है. इस लिहाज़ से भी दुरवा आदिवासी अगर इन मापदंडों के आधार पर आदिम जनजाति का दर्जा मांगते हैं, तो ये मांग बहुत नाजायज़ नज़र नहीं आती है.