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आदिवासी गांव की अनोखी प्रथा, गांव वाले उठाएंगे लड़कियों की शादी का खर्च

झारखंड में पश्चिमी सिंभूम जिले के गांवों में एक विशेष परंपरा सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा को यहां की ‘हो’ आदिवासी भाषा में देंगा देपेंगा कहा जाता है.

सारांडा के जंगलों से घिरे एक गांव में आदिवासी समुदाय के लोग फसलों की कटाई के दौरान एक दूसरे के फसलों की कटाई में मदद करते हैं और किसी भी प्रकार की मजदूरी नहीं लेते. जिस गांव की हम बात कर रहे हैं उसका नाम कुंदुबेड़ा है.

इस गांव में संथाल आदिवासी रहते हैं. लेकिन यह परंपरा झारखंड और देश के अन्य राज्यों के आदिवासी समुदायों में भी मिलती है.
लेकिन हमने सिंहभूम जिले के एक गांव कुन्दुबेड़ा की बात इसलिए की है कि यहां पर इस परंपरा से प्ररेणा ले कर एक ख़ूबसूरत शुरूआत हुई है. इस गांव में आदिवासी लड़कियों के माता-पिता को उनकी शादी के लिए किसी भी प्रकार का कर्ज नहीं उठाना पड़ता.

झारंखड में आदिवासी समुदाय पश्चिमी सिंहभूम और पूर्वी सिंहभूम जिलें के कई गांव ऐसे हैं जो अपने परंपरा और विशेषता के लिए पूरे देश में चर्चित है.

पुरानी परंपरा ‘देंगा-देपेंगा’ के तहत धान कटाई की मजदूरी नहीं लेते

पश्चिमी सिंहभूम जिले के कुन्दुबेड़ा गांव में सामूहिक योगदान की परंपरा पुरानी सदियों से चल रही है. इस परंपरा को आदिवासी समुदाय के लोग अपनी ‘हो’ भाषा में ‘देंगा-देपेंगा’ कहते हैं. यह परंपरा इनकी पूर्वजो से चली आ रही है और गांव से बाहर रहने वालें आदिवासी लोग फसल के कटाई के समय गांव आकर धान की कटाई में एक दूसरे का मदद करते हैं. धान की कटाई का कोई भी मजदूरी नहीं दिया जाता. कुन्दबेड़ा गांव में आज भी सामूहिक योगदान की परंपरा बरकरार है.

आदिवासी बेटियों की शादी की सामूहिक जिम्मेदारी

सिंहभूम जिलों के आदिवासी समुदाय की लड़कियों की शादी का अनोखी अनोखी परंपरा है. शादी का बोझ परिजनों पर ना पड़े इसलिए आर्थिक समस्या का हल निकाला गया है. कुन्दुबेड़ा गांव में किसी भी परिवार की लड़की की शादी का खर्च सारे गांव वाले मिलकर उठाते हैं. लड़की की शादी के लिए माता-पाता और गांव के सारे लोग मिलकर तैयारी करते हैं. लड़की की शादी की बोझ परिजनों पर न के बराबर होता है.

शादी की जिम्मेदारी माझी-मोड़े (मंझी-हड़ाम) की होती है

आदिवासी का परांपरिक व्यवस्था का अधिकार पंच का होता है. जिंहे ‘हो’ भाषा में मंझी-मोड़े कहते हैं. शादी की सारी जिम्मेदारी मंझी-हराम उठाते है और किसी भी परिवार की बेटी की शादी हो तो गांव के हर घर से दाल-चावल, सब्जी और पैसा जुटाते हैं. सामूहिकता का व्यवहार सदियों से चला आ रहा है.

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