HomeAdivasi Dailyक्या आदिवासियत की राजनीति पिछले कुछ वर्षों में बदल गई है?

क्या आदिवासियत की राजनीति पिछले कुछ वर्षों में बदल गई है?

आजादी के बाद आदिवासी समुदाय अपनी जल, जंगल, जमीन, भाषा, संस्कृति और धर्म पर अतिक्रमण के खिलाफ लगातार लड़ते रहे हैं और क्षेत्र-आधारित पहचान की राजनीति से ऊपर उठकर जन आंदोलनों के माध्यम से प्रतिरोध दिखाया है.

भारत की कुल जनसंख्या का करीब 8 प्रतिशत आदिवासी है. भारत के इतिहास को समृद्ध बनाने में मूल निवासी लोगों की संस्कृति और परंपराओं का बड़ा हिस्सा है. भारत के मूल निवासियों को आमतौर ‘आदिवासी’ (Adivasis) कहा जाता है.

वैसे संवैधानिक व्यवस्था में उन्हें अनुसूचित जनजाति समुदाय कहा गया है.

दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक जनजातीय बहुलता वाले भारत में आबादी के इस अहम वर्ग को लुभाने के लिए दशकों से राजनीतिक अभियान, योजनाएं और इन समुदायों तक पहुंच बनाने के लिए कई कार्यक्रम देखे गए हैं.

इतिहास बताता है कि भारत में आदिवासियों के साथ इंसाफ़ नहीं हुआ है. भारत की आजादी के बाद मूल निवासी लोगों और जनजातियों को दिए गए संवैधानिक अधिकारों के बावजूद, इन लोगों के लिए आजीविका और अस्तित्व का संघर्ष तेज़ हुआ है.

आइए देखते हैं कि पूरे इतिहास में भारत में आदिवासीवाद की राजनीति ने कैसे आकार लिया है…

आदिवासी राजनीति का इतिहास

ऐतिहासिक रूप से आदिवासियों को दलितों की तरह जातीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है. लेकिन मुख्यधारा से दूर रहने की वजह से आदिवासियों के बारे में कई तरह की धारणाएं बन गई हैं.

कई बार आदिवासियों के बारे में “जंगली” जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए जातीय भेदभाव से आदिवासी बेशक बचा रहा है लेकिन उसके साथ ऊंच-नीच का बर्ताव नहीं किया जाता है यह दावा नहीं किया जा सकता है.

भारत ने उत्तरी और मध्य भागों में बिरसा मुंडा और तांतिया भील, दक्षिण में कोमाराम भीम और थलाक्कल चंदू से लेकर उत्तर-पूर्व में रानी गाइदिन्ल्यू तक विभिन्न क्षेत्रों में कई उत्साही आदिवासी आंदोलन देखे हैं.

ब्रिटिश शासन के तहत भारत में पहले आदिवासी लोगों के विद्रोहों में से एक ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी स्थानीय रियासतों और जमींदारों की शोषणकारी प्रथाओं के कारण शुरू हुआ था, जो आदिवासियों से अनुचित कर वसूलते थे.

इस विद्रोह का नेतृत्व वर्तमान बिहार और झारखंड के क्षेत्रों में एक आदिवासी योद्धा तिलका मांझी ने किया था. तिलका मांझी का विद्रोह बाद में कई आदिवासी आंदोलनों की नींव बन गया.

आजादी के बाद आदिवासी समुदाय अपनी जल, जंगल, जमीन, भाषा, संस्कृति और धर्म पर अतिक्रमण के खिलाफ लगातार लड़ते रहे हैं और क्षेत्र-आधारित पहचान की राजनीति से ऊपर उठकर जन आंदोलनों के माध्यम से प्रतिरोध दिखाया है.

एक आंदोलन जिसे आदिवासी लोगों के अधिकारों को स्वीकार्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए व्यापक रूप से मान्यता मिली है, वह था झारखंड राज्य का दर्जा, जिसे आखिरकार साल 2000 में स्वीकृति मिली.

अलग झारखंड राज्य की मांग सबसे पहले 1914 में आदिवासी समूहों द्वारा की गई थी. जिनका मानना था कि छोटा नागपुर और संथाल परगना के खनिज समृद्ध क्षेत्रों का शोषण किया गया था और लोगों के साथ नस्लीय भेदभाव किया जा रहा था.

दुर्भाग्य से झारखंड के निर्माण ने इस क्षेत्र के जनजातीय लोगों को और अधिक असुरक्षित बना दिया है.

सरना धर्म कोड की मांग

कई दशकों से मुख्य रूप से झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम और पश्चिम बंगाल के आदिवासी समूहों ने मांग की है कि उन्हें सरना धर्म नामक एक अलग धार्मिक संहिता के अनुयायियों के रूप में पहचाना जाए.

सरना आस्था का पवित्र आधार “जल, जंगल, ज़मीन” है और इसके अनुयायी मूल रूप से प्रकृति उपासक हैं. जो अपने घर और आजीविका के लिए वन क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए पेड़ों और पहाड़ों से प्रार्थना करते हैं.

1871 से 1951 के बीच भारत में आदिवासियों के पास एक अलग कोड था, जिसे वे अपनी भाषा और इतिहास की सुरक्षा के लिए जरूरी मानते थे. हालांकि, इसे 1961-62 के आसपास बदल दिया गया था.

कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का मानना है कि सरना कोड से आदिवासियों को ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और अन्य को चुनने के बजाय अपने धर्म के तहत पहचान करने में मदद मिलेगी.

2020 में हेमंत सोरेन की झारखंड सरकार ने केंद्र से सरना को एक धर्म के रूप में मान्यता देने और इसे 2021 की जनगणना में एक अलग कोड के रूप में शामिल करने की मांग की. फिर 2022 में जब भारत के पहले आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पद की शपथ ली तो जनजातियों ने राष्ट्रव्यापी जनगणना के तहत एक विशिष्ट समुदाय के रूप में शामिल होने की उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने की उम्मीद फिर से जगी है.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. आज तक आदिवासियों को एक अलग कोड से वंचित किया गया है और उन्हें “हिंदुओं का हिस्सा” माना जाता है.

राजनीति

भारत में जनजातीय आंदोलन का एक बड़ा हिस्सा समुदाय के अलगाव का विरोध करने से जुड़ा है. आजादी के बाद से भारत के लोकतंत्र को राजनीतिक समावेशन और आर्थिक बहिष्कार की दृश्यता की राजनीति द्वारा चिह्नित किया गया है.

पंचायती राज, पेसा अधिकार अधिनियम से लेकर वन अधिकार अधिनियम तक कोई भी कानून जल, जंगल, जमीन, मवेशी, ऋण और बाजार संसाधनों के मामले में आदिवासियों के लिए पर्याप्त रूप से आश्वस्त करने वाला साबित नहीं हुआ है.

वैसे तो ये सारे कानून कागज पर मौजूद हैं लेकिन उन्हें व्यावहारिक रूप से अप्रभावी बना दिया गया है क्योंकि उन पर मुट्ठी भर अमीर गैर-आदिवासियों का नियंत्रण बना हुआ है.

आदिवासी समुदाय में बार-बार ऐसे मुद्दे देखने को मिले हैं जिनसे समुदायों में बंटवारा देखने को मिला है. मसलन डीलिस्टिंग यानि उन आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति सूचि से बाहर करने की मांग एक ऐसा ही मुद्दा है.

आदिवासी आउटरीच

2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने आदिवासी वोटबैंक को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ा है. उन्होंने अक्सर आदिवासी बहुल क्षेत्रों का दौरा किया है, आदिवासी महानायकों के सम्मान में मूर्तियां स्थापित की हैं, संग्रहालयों का निर्माण किया है, विकास कार्यक्रमों की घोषणा की है और यहां तक कि देश के पहले आदिवासी राष्ट्रपति को भी चुना है.

हालांकि, जनजातियाँ अपनी ज़मीनें खोती जा रही हैं. अनुसूचित क्षेत्रों को अभी भी पिछड़ा क्षेत्र घोषित किया जाता है और जमीनों के रिकॉर्ड्स में वास्तविक भूस्वामियों के नाम बदलते रहते हैं. परिणामस्वरूप आदिवासियों, किसानों और दलितों की ज़मीनें जबरन छीन ली जा रही हैं और दूसरों को सौंपी जा रही हैं.

आदिवासी लोगों के विस्थापन को लेकर कई हंगामे और विवादों के बावजूद हाल के वर्षों में वोटिंग पैटर्न से पता चलता है कि इसने समुदाय के भीतर भाजपा की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं डाला है.

2018 में वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 के खराब कार्यान्वयन सहित कई आदिवासी मुद्दों के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. अगले साल भारतीय वन अधिनियम (IFA) में संशोधन के सरकार के कदम ने भी ध्यान आकर्षित किया.

फिर भी 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने राष्ट्रवाद पर पार्टी के फोकस से प्रभावित होकर, देश भर में अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 31 पर जीत हासिल की.

पिछले 10 वर्षों में भाजपा ने विस्थापन, खनन और वन अधिकारों के कार्यान्वयन जैसे मुद्दों से ऊपर राष्ट्रवाद को रखने की रणनीति सफलतापूर्वक हासिल कर ली है.

अब ध्यान आदिवासियों को विकास के एक बैनर तले एकजुट करने पर है. लोकसभा चुनाव बस कुछ ही महीने दूर हैं. ऐसे में सवाल ये है कि क्या इस बार आदिवासी लोगों की वास्तविक मांगें सुनी जाएंगी या राष्ट्रवाद एक बार फिर सबसे ऊपर गूंजेगा?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments