HomeAdivasi Dailyआदिवासी भारत में बैकफ़ायर के डर से UCC पर पीछे हटे मोदी

आदिवासी भारत में बैकफ़ायर के डर से UCC पर पीछे हटे मोदी

झारखंड, छत्तीसगढ़, नागालैंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई आदिवासी समूहों ने समान नागरिक संहिता को लेकर अपना विरोध जताया है. यहां तक की भाजपा सांसद और कानून एवं न्याय पर संसदीय समिति के अध्यक्ष सुशील कुमार मोदी ने भी कहा कि आदिवासी आबादी को यूसीसी से बाहर रखा जाना चाहिए.

रविवार को आदिवासी लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों (Tribal traditions and practices) को पुनर्जीवित करने के तरीके पर चर्चा करने के लिए झारखंड के खूंटी में अपने पारंपरिक कपड़ों और आभूषणों में इकट्ठा होते हैं.

यह शुरूआत 12 साल पहले हुई थी. लेकिन पिछले दो हफ्तों में इन बैठकों में पूरे भारत में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू करने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान पर तीखी बहस हुई है.

ये बैठकें अब बीजेपी के यूसीसी प्लान के खिलाफ संगठित करने और विरोध करने के लिए ट्रेनिंग सेशन में बदल रही हैं. इस मुद्दे को लेकर आदिवासी भारत में हलचल शुरू हो चुकी है.

अब तक 100 से ज्यादा विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं. जुलाई की शुरुआत में रांची में आदिवासी समन्वय समिति के तहत 30 से अधिक आदिवासी संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किया, आक्रोश जुलूस निकाला और राज्य भाजपा मुख्यालय के बाहर धरना दिया था.

सफेद, हरी और लाल साड़ी पहने महिलाएं अपने परिवारों के साथ टेम्पो और स्थानीय बसों के जरिए अपने गांवों से मुंडा आदिवासियों के आस्था के केंद्र खूंटी के करम अखाड़े में रविवार को पहुंची.

यूसीसी को लेकर उनके डर की सूची में सबसे ऊपर अपने कड़ी मेहनत से लड़े गए भूमि अधिकारों को खोना है. इसके बाद विवाह, विरासत और बच्चे को गोद लेने की उनकी स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाएं आती हैं.

झारखंड, छत्तीसगढ़, नागालैंड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई आदिवासी समूहों ने समान नागरिक संहिता को लेकर अपना विरोध जताया है. यहां तक की भाजपा सांसद और कानून एवं न्याय पर संसदीय समिति के अध्यक्ष सुशील कुमार मोदी ने भी कहा कि आदिवासी आबादी को यूसीसी से बाहर रखा जाना चाहिए.

वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित संस्था वनवासी कल्याण आश्रम, जो झारखंड और भारत के अन्य हिस्सों में आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है, उसका कहना है कि इस मसले पर सोचने समझने के बाद फैसला लिया जाए.

वनवासी कल्याण आश्रम के उपाध्यक्ष सत्येन्द्र सिंह एक बयान में कहते हैं, “यूसीसी एक अच्छी बात है लेकिन हमने विधि आयोग से अनुरोध किया है कि वह आदिवासी क्षेत्रों का दौरा करें और पारंपरिक प्रणाली को समझने की कोशिश करें. आयोग को जल्दबाजी में अपनी रिपोर्ट नहीं देनी चाहिए.”

आदिवासी अधिकारों और संस्कृति के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता आलोका कुजूर कहती हैं “जन्म से लेकर मृत्यु तक, हमारे बीच सब कुछ अलग है. सदियों से हमारी एक विशिष्ट परंपरा रही है.”

वे आगे कहती हैं, “ आज बीजेपी UCC पर पीछे कदम खींच रही है, क्योंकि उन्हें नज़र आ गया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस बयान ने आदिवासियों में बीजेपी के प्रति बने विश्वास को हिला दिया है. बीजेपी को यह लग रहा है कि समान नागरिक संहिता तो बैकफ़ायर कर रहा है.”

आलोका सवाल पूछती हैं, “ आदिवासी महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाने की बात करने वाले क्या यह साबित कर सकते हैं कि मुख्यधारा के साथ सदियों से रहने वाली दलित महिलाओं को यह अधिकार मिल गया है.”

यहां आदिवासी कार्यकर्ता कहते हैं कि भारत को एकजुट करने, महिलाओं के लिए समानता लाने और एकरूपता की राजनीति थोपने के प्रति सजग रहने की ज़रूरत है.

ज़मीन आदिवासी समाज के लिए अहम

सफेद और लाल रंग के झंडे आदिवासी बस्तियों के अनुष्ठान स्थलों पर सखुआ या साल के पेड़ों की शाखाओं को सजाते हैं. उनके देवता – बुरुबोंगा, एकिरबोंगा और सिंगबोंगा, सूर्य, पर्वत, भूमि और जल निकायों का प्रतीक हैं.

झारखंड में जनजातियों की पहचान के केंद्र में भूमि है. इसे व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामुदायिक संपत्ति माना जाता है. इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ 1700 के दशक से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्ध तक कई लड़ाइयां लड़ीं.

1908 का छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटीए), 1876 का संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटीए) और 1837 में विल्किंसन नियम सभी ने झारखंड की 32 जनजातियों को विशेष प्रावधान दिए. इन्हें आज भी संविधान के तहत मान्यता प्राप्त है.

पूर्वोत्तर के कुछ समुदायों के विपरीत झारखंड का आदिवासी समाज पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है. भूमि सिर्फ पुरुषों के बीच विभाजित होती है इसलिए यह एक ही कबीले के भीतर रहती है.

आदिवासियों के पास पाहन (पुजारी) होते हैं जो उनके सभी महत्वपूर्ण रीति-रिवाजों का प्रबंधन करते हैं और परंपरा यह निर्देश देती है कि उन्हें अलग भूमि प्रदान की जाए. इस भूमि पर समुदाय अपने सभी महत्वपूर्ण अनुष्ठान और त्योहार जैसे- सरहुल (साल वृक्ष/प्रकृति की पूजा) और करमा (कर्म की पूजा) मनाता है.

आदिवासियों के लिए भूमि सिर्फ एक संपत्ति नहीं बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है. पिछले सभी विद्रोहों की जड़ें ज़मीन ही थीं. बिरसा मुंडा के विद्रोह से लेकर कोल विद्रोह तक. और तब से लड़ाई जारी है.

आलोका कुजूर कहती हैं “झारखंड और देश भर में पहले ही आदिवासियों के अधिकारों और संसाधनों की लूट होती रही है. अब उनकी सांस्कृतिक पहचान पर भी हमला किया जा रहा है.”

वे कहती हैं कि राज्य में पूर्व भाजपा सरकार ने ब्रिटिश-युग के कानूनों- सीएनटीए और एसपीटीए में छेड़छाड़ की कोशिश की थी. तत्कालीन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, जो अब भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं, ने विवादास्पद संशोधनों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और राज्य सरकार को उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.

लेकिन बीच के महीनों में विरोध प्रदर्शन, पुलिस कार्रवाई और व्यक्तिगत क्षति हुई. अक्टूबर 2016 में खूंटी जिले के सैकड़ों ग्रामीण पुलिस के साथ भिड़ गए क्योंकि पुलिस ने उन्हें भाजपा के अध्यादेशों के विरोध में रांची में एकत्रित होने वाले अन्य आदिवासी समूहों में शामिल होने से रोकने की कोशिश की.

प्रथागत कानून और समान नागरिक संहिता

ये सभी चिंताजनक बहसें तब हो रही हैं जब मोदी सरकार ने अभी तक कोई यूसीसी मसौदा जारी नहीं किया गया है. चर्चा को पेचीदा बनाने वाली बात यह है कि भारत में ज्यादातर जनजातीय रीति-रिवाज 700 से अधिक समुदायों की अद्भुत विविधता को दर्शाते हैं.

विश्लेषकों का कहना है कि व्यापक राजनीतिक और सामाजिक आम सहमति बनाने की कवायद के बिना यकीनन यह मुद्दा माहौल को गर्म कर सकता है जिसे आदिवासी राज्य बर्दाश्त नहीं कर सकते.

जनजातीय समूहों के बीच उत्तराधिकार प्रथाओं में कोई एकरूपता नहीं है. पूर्वोत्तर में कुछ लोग मातृसत्तात्मक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं लेकिन झारखंड में संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को दे दी जाती है.

अगर समान नागरिक संहिता को महिलाओं के विरासत अधिकारों के सवाल के इर्द-गिर्द तैयार किया जाता है तो यह मुंडा जनजातियों की सदियों पुरानी प्रथा के खिलाफ जा सकता है. यहां बेटियों को शादी के बाद पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता है.

उन्होंने कहा कि महिलाओं को शादी से पहले समान अधिकार प्राप्त हैं. अगर कोई महिला शादी के बाद अपने परिवार के घर लौटती है तो उसका अपने पिता की संपत्ति के एक हिस्से पर अधिकार होता है लेकिन वह इसे बेच नहीं सकती है.

आदिवासियों के प्रथागत कानूनों के प्रोफेसर राम चंद्र उराँव ने MBB से इस बारे में लंबी बातचीत करते हुए कहा कि परिवार की पैतृक भूमि को आदिवासी समुदाय का परिवार किसी सूरत में छोड़ता नहीं है.

वे कहते हैं, “आज के जो आधुनिक कानून या सिविल कोड हैं वे सभी कभी ना कभी प्रथागत कानून ही थे. आदिवासी परंपराओं और प्रथाओं को कोडिफ़ाई किया जाना ज़रूरी है. “

2018 में 21वें विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में संहिताकरण का सुझाव दिया था लेकिन इस पर बहुत कम प्रगति हुई. जनजातीय कानून विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने पूरे भारत में आदिवासी समुदायों के बीच प्रथागत कानून और जनजातीय अनुसंधान संस्थानों का दस्तावेजीकरण करने की आवश्यकता पर तर्क दिया, जिसे यूसीसी तब ध्यान में रख सकता है.

समानता की परिभाषा

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी समुदायों में भी अब बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने की आवाज़ें उठ रही हैं. लेकिन समुदाय की ही कुछ औरतें यह मानती हैं कि अगर ऐसा होता है तो समुदाय में कुछ ऐसी समस्याएं पैदा होंगी जो अभी तक मुख्यधारा के समाज में ही मौजूद हैं.

मसलन अगर पिता की संपत्ति में बेटी को हिस्सा देने का कानून बनेगा तो फिर आदिवासी समुदायों में भी कन्या भ्रूण हत्या शुरु हो सकती है.

सामुदायिक न्याय को ख़तरा?

एक और प्रथा जिसे आदिवासी लोग प्रिय मानते हैं. वो है छोटे-मोटे विवादों के लिए अनौपचारिक सामुदायिक न्याय प्रणाली. झारखंड के आदिवासियों के लिए मानकी-मुंडा, परहा, माझी-परगनैत और डोकोलो-सोहोर जैसी पारंपरिक स्वशासन प्रणालियां बेहद महत्वपूर्ण हैं.

आदिवासी समाज के भीतर प्रथागत कानूनों द्वारा शासित एक विशिष्ट न्यायिक प्रणाली मौजूद है. अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (PESA) अधिनियम 1996 उन्हें विशेष संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है.

इसके अलावा झारखंड सरकार ने 26 जुलाई को सार्वजनिक परामर्श के लिए मसौदा नियम जारी करके पेसा के कार्यान्वयन को मजबूत करने के प्रयास तेज़ कर दिए हैं.

आदिवासियों का मानना है कि अदालतें उनकी पहुंच से दूर और शोषणकारी हैं.

2021 में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार ने कोल्हान क्षेत्र में आदिवासियों के बीच प्रचलित मानकी-मुंडा न्याय पंच या न्यायिक प्रणाली को मान्यता दी थी. इस व्यवस्था के तहत राजस्व, कानून-व्यवस्था और भूमि विवाद से जुड़े मामलों का निपटारा किया जा सकेगा.

रामचंद्र ओरांव कहते हैं, “अभी, ये पारंपरिक संस्थाएँ विवाह और तलाक से लेकर विभिन्न सामाजिक मुद्दों से निपटती हैं. यूसीसी उनके महत्व को खत्म कर देगा और यह सीधे प्रथागत कानूनों को चुनौती देगा.”

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