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विरोध और चिंताओं को नजरअंदाज कर वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 राज्यसभा से भी पास हुआ

वन संरक्षण संशोधन विधेयक पर संयुक्त समिति ने 20 जुलाई, 2023 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. यह अजीब बात थी और शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि समिति ने जो रिपोर्ट दी, उसमें सरकार द्वारा पेश किए गए विधेयक में किसी भी तरह के बदलाव का कोई सुझाव नहीं था. छह सांसदों ने विस्तृत रूप से असहमति व्यक्त करते हुए टिप्पणी की थी. - कांग्रेस पार्टी

राज्यसभा ने बुधवार को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 (Forest conservation amendment bill, 2023) को पारित कर दिया, जिसका मकसद वनों के संरक्षण के साथ ही विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करना और लोगों के जीवनस्तर में सुधार लाना है.

राज्यसभा ने बुधवार को विधेयक को संक्षिप्त चर्चा के बाद पारित कर दिया. लोकसभा इसे पहले ही पारित कर चुकी है.

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 देश की सीमाओं के 100 किलोमीटर के भीतर की भूमि को संरक्षण कानूनों के दायरे से बाहर रखता है.

इसमें सुरक्षा से संबंधित बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए प्रस्तावित 10 हेक्टेयर तक की भूमि, या केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट रक्षा-संबंधित परियोजनाओं, अर्धसैनिक बलों के शिविरों या सार्वजनिक उपयोगिता परियोजनाओं के निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रस्तावित भूमि को भी छूट दी गई है.

आदिवासी अधिकारों से जुड़ी चिंताएँ

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को आदिवासी अधिकारों के ख़िलाफ़ बताया जा रहा है. इस बिल को संसद की मंजूरी मिलने के बाद मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी ने फिर एक बार यह चिंता प्रकट की है.

कांग्रेस पार्टी का कहना है कि पर्यावरण, वन एवं आदिवासियों के अधिकारों के संबंध में मोदी सरकार की कथनी और करनी में बहुत अंतर है.

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने एक बयान में कहा, ‘‘वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 पहली बार 29 मार्च, 2023 को लोकसभा में पेश किया गया था. इस विधेयक में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में व्यापक बदलाव के लिए कई संशोधन पेश किए गए थे. इस विधेयक की यात्रा अपने आप में एक अध्ययन का विषय है कि कैसे विधायी प्रक्रिया को पूरी तरह से नष्ट किया जाता है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘विधेयक को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी स्थायी समिति को भेजा जाना चाहिए था, जिसका मैं अध्यक्ष हूं. मैंने इस पर गंभीर आपत्ति जताई थी और एक बार नहीं बल्कि दो बार उसे रिकॉर्ड पर भी रखा था. लेकिन विधेयक को स्थायी समिति को भेजने के बजाए संसद की एक संयुक्त समिति को भेजा गया, जिसके अध्यक्ष सत्ताधारी दल के सांसद थे.’’

जयराम रमेश ने दावा किया, ‘‘संयुक्त समिति ने 20 जुलाई, 2023 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. यह अजीब बात थी और शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि समिति ने जो रिपोर्ट दी, उसमें सरकार द्वारा पेश किए गए विधेयक में किसी भी तरह के बदलाव का कोई सुझाव नहीं था. छह सांसदों ने विस्तृत रूप से असहमति व्यक्त करते हुए टिप्पणी की थी.’’

उन्होंने कहा कि कानून का नाम ही बदला जा रहा है और पहली बार संसद द्वारा पारित किसी कानून का संक्षिप्त शीर्षक बिना किसी आधिकारिक अंग्रेज़ी समानार्थी के पूरी तरह हिंदी में होगा जो गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के साथ अन्याय है.

जयराम रमेश ने आरोप लगाया कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बार-बार वन अधिकार अधिनियम, 2006 की अनदेखी की है, जो आदिवासियों और पारंपरिक रूप से वन में रह रहे लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था.

उन्होंने कहा, ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा जरूरी है लेकिन इसके नाम पर जंगलों को साफ करने और हमारी सीमाओं के पास जैव विविधता के नजरिए से महत्वपूर्ण और भौगोलिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को बदलने के लिए पूरी तरह से क्लीन चिट प्रदान की जा रही है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘संशोधनों का जो निष्कर्ष है और संसद में इन्हें जिस तरह से लाया और पारित करवाया गया, दोनों ही मोदी सरकार की मानसिकता को दर्शाते हैं. विधेयक यह भी दिखाता है कि पर्यावरण, वनों एवं आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य समुदायों के अधिकारों को लेकर इस सरकार की वैश्विक स्तर पर बातों और घरेलू स्तर पर किए जाने वाले कार्यों में कितना अंतर है.’’

जंगलों की कहानी

मौजूदा वक्त में भारत के जंगलों की स्थिति और इनके संरक्षण से जुड़े कानूनों का एक एक लंबा इतिहास है. आजादी के साथ ही देश के अधिकतर इलाकों में भूमि विवाद बढ़ रहा था. जिसे दूर करने के लिए सरकार ने एक फैसला किया.

सरकार साल 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लेकर आई. फिर आया 90 का दशक आया और इसमें औद्योगीकरण बढ़ा. लेकिन इस विकास की कीमत जंगलों के पेड़ चुका रहे थे. भारी तादाद में इनकी कटाई हो रही थी.

पर्यावरण की खराबी, मिट्टी का कटाव, जलवायु संकट और प्रदूषण की चिंता खड़ी हुई. इसके समाधान की जरूरत थी. इसके बाद साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी. इतना ही नहीं कोर्ट ने वन संरक्षित भूमि के दायरे को बढ़ाने का निर्देश भी जारी किया.

बिल कब पास हुआ?

ये बिल पहली बार इस साल 29 मार्च को संसद के बजट सत्र में लोकसभा में पेश किया गया था. सदन में कई विपक्षी नेताओं ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई. इसके बाद बीते मार्च महीने में बिल को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया. इसके अध्यक्ष थे बीजेपी नेता राजेंद्र अग्रवाल.

कमेटी में लोगों के सुझाव आमंत्रित किए. कांग्रेस, TMC और DMK के कई नेताओं ने JPC को अपनी असहमति के नोट भेजे. लेकिन 20 जुलाई को ज्वाइंट कमेटी इन असहमतियों को खारिज करते हुए पर्यावरण मंत्रालय के सुझाए सभी संशोधनों को मंजूरी दे दी और अपनी रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों को भेज दी.

फिर 26 जुलाई 2023 को विधेयक को लोकसभा में 40 मिनट के भीतर ध्वनि मत से पारित कर दिया गया. बिल पर बहस होने और इसके पारित होने के दौरान संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष राजेंद्र अग्रवाल ही पूरी कार्यवाही की अध्यक्षता कर रहे थे. क्योंकि लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला लोकसभा में मौजूद नहीं थे.

विधेयक के विरोध में क्या चिंताएं हैं?

18 जुलाई को लोकसभा द्वारा विधेयक पारित होने से कुछ दिन पहले लगभग 400 पारिस्थितिकीविदों, जीवविज्ञानियों और प्रकृतिवादियों ने भूपेंद्र यादव और संसद के अन्य सदस्यों को पत्र लिखकर प्रस्तावित कानून को पेश न करने का अनुरोध किया था.

इनका आग्रह था कि इस बिल को सदन में न पेश किया जाए. क्लाइमेट चेंज और पर्यावरण की गिरावट और पूरे उत्तर-भारत में बाढ़ का हवाला दिया गया. मांग की गई कि बिल को सदन में पेश किए जाने से पहले विशेषज्ञों से बात की जाए.

पत्र में उन्होंने इस आवेश में पूरे उत्तर भारत में बाढ़ पर जोर देते हुए पर्यावरणीय गिरावट और जलवायु परिवर्तन के भयानक प्रभावों पर प्रकाश डाला था.

इस पत्र में कहा गया, “ये वक्त सरकार के लिए देश की जैव-विविधता की रक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने का है. इस बिल में संशोधन किया गया तो ये भारत के जंगलों की गिरावट (कटाई) को और तेज करने की कोशिश होगी.”

यहां इस बात पर प्रकाश डालना जरूरी है कि अब पारित विधेयक केवल उस भूमि को कवर करता है जिसे भारतीय वन अधिनियम, 1927 या किसी अन्य कानून के तहत वन के रूप में घोषित या अधिसूचित किया गया है.

इसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय महत्व की किसी भी रणनीतिक रैखिक परियोजना के निर्माण के लिए किसी पूर्व मंजूरी की जरूरत नहीं है. मूलतः, पारिस्थितिक रूप से नाजुक पूर्वोत्तर के लगभग सभी क्षेत्र इसी श्रेणी में आते हैं.

एक्सपर्ट्स का कहना था कि कानून में संशोधन हुआ तो ये सुप्रीम कोर्ट के साल 1996 के गोदावर्मन जजमेंट को कमजोर कर सकता है. असल में गोदावर्मन जजमेंट से साल 1980 के वन संरक्षण के कानून का दायरा और बढ़ गया था.

इस फैसले के तहत कोई भी जमीन जिसे रिकॉर्ड में जंगल कहा गया हो वो संरक्षण के दायरे में आती है, भले ही इसका मालिक कोई भी हो. मतलब निजी मालिकाना हक़ की जमीन हो या सरकारी, अगर जमीन जंगल की है तो उसमें कटान नहीं हो सकता.

बिल का विरोध कर रहे एक्सपर्ट्स का तर्क ये भी है कि सीमाई इलाकों से 100 किलोमीटर के दायरे में जमीनों को नए संशोधन में छूट देना पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक हो सकता है.

एक एक्सपर्ट ने जिन्होंने संयुक्त संसदीय समिति को समस्याएं बताईं थीं, उन्होंने कहा हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा, “नॉर्थ ईस्ट में अगर आप हर सीमा से 100 किलोमीटर का इलाका छोड़ रहे हैं तो क्या बचेगा? ये बहुत संवेदनशील इलाका है. वैसे भी यहां कुछ समुदायों के साथ दिक्कतें हैं. इन समुदायों के पास संविधान की छठी अनुसूची के तहत जंगलों पर पारंपरिक और उनकी प्रथाओं के चलते अधिकार हैं. मेरा मानना है कि ये अधिकार कम हैं.”

छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में आदिवासी क्षेत्रों के स्वायत्त प्रशासन का प्रावधान करती है.

 इस विशेष चिंता पर पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि 100 किलोमीटर का प्रावधान रक्षा मंत्रालय के परामर्श से तय किया गया है. इसने जोर देकर कहा कि इसे रक्षा संगठनों और रणनीतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इष्टतम माना जाता है.

इसमें कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं और वामपंथी उग्रवाद क्षेत्रों में प्रस्तावित छूट सामान्य छूट नहीं है और निजी संस्थाओं के लिए उपलब्ध नहीं होगी.

एक्सपर्ट्स का ये भी कहना था कि ये बिल, फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट के प्रावधानों का भी उल्लंघन करता है क्योंकि फ़ॉरेस्ट क्लीयरेंस के लिए गांवों की परिषदों की सहमति के बारे में इसमें स्पष्टता नहीं है.

सरकार का तर्क

विधयेक पर बहस के दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने जलवायु संकट पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की बात कही. भूपेंद्र यादव ने कहा कि जलवायु संकट के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर तय किए गये योगदान के लिए तीन लक्ष्य रखे गए थे.

इन तीन लक्ष्यों में से दो लक्ष्य हासिल कर लिए गए हैं. लेकिन 2.5 से 3.0 बिलियन टन CO2 इक्वीवैलेंट का कार्बन सिंक बनाने का लक्ष्य अभी पूरा नहीं हुआ है. मोटा-माटी जंगलों को कार्बन सिंक माना जाता है. क्योंकि पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं.

भूपेंद्र यादव ने कहा, “ये उद्देश्य पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है. और इसे पूरा करने के लिए हमें एग्रोफॉरेस्ट्री (कृषि वानिकी) पर ध्यान देने और ट्री-कवर (वृक्ष आवरण) बढ़ाने की जरूरत है.”

भूपेंद्र यादव के मुताबिक मौजूदा कानून में कुछ प्रतिबंधों के चलते कुछ वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास रुक गया है और हम चाहते हैं कि सभी जरूरी सार्वजानिक सुविधाओं के प्रोजेक्ट्स इन इलाकों में पहुंचें.

उन्होंने कहा, “भारत-चीन सीमा (LAC) और भारत-पाकिस्तान सीमा (LOC) से 100 किलोमीटर तक के जंगल के इलाकों को छूट देने से जरूरी सड़कें बनाने में हमारी नेशनल सिक्योरिटी के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवेलप करने में मदद मिलेगी.”

पर्यावरण मंत्री कहते हैं कि संयुक्त संसदीय समिति ने पहले बिल की समीक्षा की. उसके बाद ही फिर प्रस्तावित किए गए सभी संशोधनों को पारित किया गया है.

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