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कैसे साबित हो कौन है असली आदिवासी, कहीं भेदभाव, कहीं हक़ मारी है

बोगस आदिवासी एक बड़ा मसला है. लेकिन इस मसले पर राज्य सरकारों में संवेदनशीलता नज़र नहीं आती है. जहां आदिवासी के साथ भेदभाव दिखाई देता है वहीं फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र के सहारे आदिवासियों का हक़ भी मारा जाता है.

मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने तमिलनाडु के आदिवासी कल्याण विभाग (Tribal Welfare Department of Tamilnadu) को एसटी सर्टिफिकेट (ST certificate) से जुड़े लंबित केसों पर एक रिपोर्ट फाइल करने को कहा है.

कोर्ट ने आदिवासी कल्याण विभाग को दो हफ़्ते में तमिलनाडु स्टेट लेवल जाँच कमेटी  (Tamil Nadu State Level Scrutiny Committee II) के सामने सभी लंबित मामलों पर एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा है. 

तमिलनाडु आदिवासी कल्याण विभाग की यह राज्य स्तर की कमेटी आदिवासियों के जनजाति प्रमाणपत्र की जाँच कर उसे सत्यापित करती है. लेकिन कोर्ट ने एक मामले में पाया कि याचिका कि एक बैंक कर्मचारी को उनके सर्टिफिकेट रद्द किये जाने की ख़बर 5 साल बाद मिली थी.

अदालत को याचिका कर्ता आर चंद्रशेखर ने बताया है कि साल 2012 में एक राष्ट्रीय बैंक के उप जनरल मैनेजर ने उनके एसटी सर्टिफिकेट की असलियत पर सवाल उठाए थे. उन्होंने इस सर्टिफिकेट की जाँच के लिए ज़िला कलेक्टर को भेज दिया था.

इसके बाद यह मामला कलेक्टर के दफ़्तर से कमेटी के पास भेज दिया गया. कमेटी ने यह पाया कि चंद्रशेखर के एसटी सर्टिफिकेट से जुड़े सभी दस्तावेज़ नष्ट किये जा चुके हैं. इस आधार पर कमेटी ने उनके सर्टिफिकेट को रद्द करने की सिफ़ारिश की थी.

चंद्रशेखर अब बैंक से रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने कोर्ट को बताया है कि उन्हें साल 2012 के इस मामले में साल 2019 में ही पता चला कि उनका सर्टिफिकेट रद्द कर दिया गया है. यानि इस पूरे मामले में 7 साल का समय लग गया. 

कोर्ट ने चंद्रशेखर के अलावा आदिवासी कल्याण विभाग से इस तरह के सभी पेंडिंग मामलों पर रिपोर्ट माँग ली है. 

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद भेदभाव

MBB ने इस प्रक्रिया को समझने के लिए तमिलनाडु आदिवासी कल्याण विभाग की वेबसाइट का जायज़ा लिया. इस वेबसाइट से लगता है कि राज्य में फ़र्ज़ी जनजाति सर्टिफिकेट एक बड़ा मसला है. क्योंकि इस वेबसाइट से पता चलता है कि तमिलनाडु में चेन्नई, मदुरै, सेला और त्रिची क्षेत्रों में बाक़ायदा सेल बनाए गए हैं जो एसटी सर्टिफिकेट की जाँच करती हैं. 

तमिलनाडु में फ़र्ज़ी एसटी सर्टिफिकेट का मामला कितना बड़ा है यह समझने के क्रम में हमें मद्रास हाईकोर्ट का साल 2010 का एक फ़ैसला मिला. यह फ़ैसला मद्रास हाईकोर्ट की फ़ुल बेंच का था. क्योंकि इस मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि राज्य का लोक सेवा आयोग (Tamilnadu public service commission) को यह अधिकार है कि वो किसी उम्मीदवार के जनजाति प्रमाणपत्र को फर्ज़ी बता कर उसे रद्द कर दे. 

कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी बताया है कि अदालत के सामने इस तरह के मामले बार-बार आते हैं. इसलिए कोर्ट चाहता था कि यह मामला एक बार तय हो जाए. इसलिए यह मामला तय करना ज़रूरी था कि राज्य में किसी निवासी का जनजाति प्रमाणपत्र सही है या नहीं यह तय करने का अधिकार किस संस्था का होगा. 

अदालत ने यह भी पाया कि अलग अलग संस्थान आदिवासी उम्मीदवारों की नौकरी में नियुक्ति से पहले उनके सर्टिफिकेट की जाँच करवाती हैं. अदालत ने अपने आदेश में यह बात नोट करते हुए कहा है कि यह एक तरह का भेदभाव है. 

कोई भी संस्थान किसी को नौकरी पर नियुक्ति के लिए किसी आदिवासी को इस आधार पर इंतज़ार नहीं करवा सकता है कि उसके प्रमाणपत्र की जाँच हो रही है. इसी तरह से किसी शिक्षण संस्थान को भी यह अधिकार नहीं है कि वह किसी आदिवासी छात्र को इस आधार पर दाख़िला ना दे या फिर दाख़िला देने में देरी करे. 

अदालत ने इस मामले को पूरी तरह से सैटल करने के लिए कहा कि किसी नागरिक का जनजाति प्रमाणपत्र की जाँच और सत्यता प्रमाणित करने का अधिकार और ज़िम्मेदारी सिर्फ़ कमेटी की ही होगी. अदालत ने कमेटी के लिए भी दिशा निर्देश तय किये थे जिनके तहत कम से कम समय में कमेटी का जाँच और सत्यता प्रमाणित करने के लिए कहा गया था.

तमिलनाडु सरकार ने नवंबर 1989 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार आदिवासी कल्याण विभाग की यह कमेटी बनाई थी. लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस मसले पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों के बावजूद जनजाति प्रमाणपत्रों की जाँच के काम में अभी भी तेज़ी नहीं आई है.

इस वजह से आदिवासियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है और साथ ही उन्हें अपने दावे को सही साबित करने के लिए अदालतों में समय और पैसा ख़र्च करना पड़ता है.

आदिवासी होने का फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र का मामला सिर्फ़ तमिलनाडु तक सीमित नहीं है. इस तरह के मामले देश के लगभग उन सभी राज्यों में आते हैं जहां आदिवासी आबादी है. ये मामले सिर्फ़ नौकरी या शिक्षण संस्थानों से जुड़े नहीं हैं.

राजनीतिक क्षेत्र में यानि चुनी हुई संस्थाओं में चुनाव लड़ने के मामलों में भी फ़र्ज़ी प्रमाणपत्र इस्तेमाल करने के केस देखे गए हैं.  

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