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सुजीत चट्टोपाध्याय: शिक्षक से गरीब और आदिवासी बच्चों के मसीहा बने तक का सफ़र

मैं एक शिक्षक हूं और एक शिक्षक का कर्तव्य रिटायरमेंट के बाद भी समाप्त नहीं होता है कहने वाले मास्टर मोशाय यानी शिक्षक सुजीत चट्टोपाध्याय(sujit chattopadhyay) को साल 2021 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. जिन्होंने न केवल रिटायरमेंट के बाद छात्रों को पढ़ाया बल्कि जरूरतमंद और थैलेसीमिया(Thalassemia) बीमारी से जूझ रहे बच्चों की भी काफी सहायता की है.

रिटायरमेंट के बाद जहां लोग आराम करना चाहते है वहीं एक शिक्षक ने स्कूल से रिटायर होने के बाद भी कुछ और काम करने के बारे में सोचा.

छात्रों के आग्रह करने के बाद दुबारा पढ़ाने का मौका मिलने पर उन्होंने 300 छात्रों को बहुत कम पैसे में पढ़ाया और उन पैसे को भी एकत्र करके जरूरतमंद बच्चों की सहायता की.

इनका नाम सुजीत चट्टोपाध्याय(sujit chattopadhyay) है. जिन्होंने न सिर्फ गरीब बच्चों को बल्कि आदिवासी समुदाय के बच्चों को भी शिक्षा दी है.

उनके इस प्रयास के लिए उन्हें साल 2021 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था.

सुजीत चट्टोपाध्याय

सुजीत चट्टोपाध्याय पश्चिम बंगाल के बर्धमान ज़िले के औसग्राम गाँव के रहने वाले है. जिनको सब छात्र मास्टर मोशाय बुलाते है.

वह रामनगर के उच्च माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य होने के साथ ही सामाजिक-पर्यावरणीय जागरूकता में सक्रिय रहे हैं. वह सामाजिक समानता एंव पर्यावरण-अनुकूल जीवन की अवधारणाओं को भी बढ़ावा देते हैं.

उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा है कि जिस दिन उन्हें अपनी स्नातकोत्तर डिग्री(postgraduate degree) मिली उन्होंने एक मिनट भी बर्बाद नहीं किया और वह शिक्षक बनने के लिए अपने गाँव औसग्राम वापस चले गए.

सुजीत ने कहा है की उन्हें बड़े शहरों के स्कूलों में ज्यादा वेतन मिल रहा था. वहीं उनके गाँव के स्कूल में उन्हें 169 रुपये वेतन मिल रहा था.

लेकिन वह अपने गाँव के बच्चों को शिक्षा देना चाहते थे क्योंकि गाँव के बच्चों को एक अच्छे शिक्षक की सबसे ज्यादा जरूरत थी.

इसके अलावा सुजीत ने कहा है कि उन्होंने 39 साल तक स्कूल में पढ़ाया और 60 साल की उम्र में आधिकारिक तौर पर रिटायर हो गए.

लेकिन उन्होंने पढ़ाना बंद नहीं किया और अपना बाकी जीवन आलस्य में नहीं बिताकर वही काम जारी रखना चाहते थे जो उन्हें हमेशा से करना पसंद है यानी पढ़ाना. लेकिन इस बार वह बच्चों को मुफ़्त में शिक्षा देना चाहते थे.

उन्होंने ने यह भी कहा है कि वह एक शिक्षक है और एक शिक्षक का कर्तव्य रिटायरमेंट के बाद भी खत्म नहीं होता इसलिए वह अपने क्षेत्र के गरीब बच्चों को पढ़ाते रहेंगे.

सुजीत स्कूल से रिटायर होने के बाद भी गरीब छात्रों को शिक्षा देते रहे है. इसमें कक्षा 10वीं, 11वीं और डिग्री कॉलेज के छात्र पढ़ाई करते हैं. जिन्हें वे बंगाली भाषा के अलावा 10वीं कक्षा के छात्रों को सारे विषय पढ़ाते हैं.

पुरस्कार

सुजीत के प्रयासों को पहली बार एक प्रमुख मीडिया हाउस के द्वारा मान्यता दी गई.

टेलीग्राफ एजुकेशन फाउंडेशन(The Telegraph Education Foundation) ने मार्गदर्शन के लिए उनके अथक प्रयासों और उपलब्धि हासिल करने के साथ ही आदर्श नागरिकों की तरह सलाह देने के उनके प्रयासों के लिए उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड(Lifetime Achievement Award) से सम्मानित किया गया.

रिटायरमेंट के बाद की कहानी

सुजीत ने बताया है कि रिटायर होने के बाद उनके पास काफी खाली समय रहता था और उन्हें कोई अंदाज़ा नहीं था कि वह इस समय को कैसे व्यतीत करेंगे.

इसी दौरान एक दिन तीन लड़कियां उनके घर पर आई और उनसे सीखने की इच्छा व्यक्त की. सुजीत को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे उनके छात्र बनने के लिए प्रतिदिन 20 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करने के लिए भी तैयार है.

उन लड़कियों कि अपील से व्याकुल होकर उन्होंने फिर से छात्रों को पढ़ाना शुरू कर दिया और इस तरह सदाई फकीर पाठशाला(Sadai Fakirer Pathshala) की शुरुआत हुई.

इस पाठशाला के शुरू होने के कुछ वर्षों में छात्रों की संख्या 3 से बढ़कर 350 हो गई है. लेकिन उनकी फीस में सिर्फ एक रुपये की बढ़ोतरी हुई और वो भी पहले के छात्रों के आग्रह पर जो अपनी स्वेच्छा से इस पाठशाला में पढ़ना चाहते थे.
फीस मुख्य रूप से शिक्षक के प्रति सम्मान का प्रतीक है.

वैसे जो छात्र इस पाठशाला में पढ़ने आते थे वे कम आय करने वाले परिवारों के छात्र थे. जिसमें से कई छात्र तो अपने परिवार में पहली पीढ़ी के थे जो शिक्षा प्राप्त कर रहे थे.

वे छात्र एक अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए प्रतिदिन घंटों यात्रा करने का जोखिम नहीं उठा सकते है इसलिए सुजीत जहां तक संभव हो सके उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करते है.

इसके अलावा सुजीत ने स्थानीय सरकार को कई पत्र भेजकर अधिक स्कूलों और कॉलेजों के साथ-साथ बेहतर सार्वजनिक परिवहन की मांग की है. लेकिन अफसोस कि बात यह है कि सरकार ने उन्हें तो सम्मान दिया है लेकिन आदिवासी इलाकों में सुविधाएं देने की उनकी सारी अपीलें अनसुनी कर दी गई है.

वैसे सुजीत तीन दशकों से अधिक के अपने शिक्षण करियर में हमेशा छात्रों के बीच पसंदीदा रहे है.

सदाई फकीर पाठशाला

सुजीत के सदाई फकीर पाठशाला में किसी अन्य स्कूल की तरह ही नियमित कक्षाओं और पीटीएम बैठकों के साथ संचालित होती है.

इस पाठशाला में पढ़ने वाले 80 प्रतिशत छात्रों में निम्न-मध्यम वर्गीय परिवारों की छात्राएं हैं.

यह पाठशाला सुबह 6:30 बजे शुरू होकर शाम के 6 बजे तक चलती है.

सुजीत इस पाठशाला में अपनी इच्छा से माध्यमिक कक्षा के छात्रों को सामाजिक विज्ञान पढ़ाते हैं और ग्रेजुएट छात्रों को डिग्री-पाठ्यक्रम बांग्ला पढ़ाते हैं.

ये सब पढ़ाने के अलावा भी सुजीत जिन्हें छात्र मास्टर मोशाय भी कहते है वह अपने छात्रों को समाचारों पर अपडेट देते हैं ताकि उनके छात्र दुनिया भर में होने वाली घटनाओं से भी अवगत रह सके.

वैसे इस पाठशाला में गरीब बच्चों के साथ ही आदिवासी समुदाय के बच्चों भी पढ़ते है और इस मास्टर मोशाय की इस पाठशाला में आदिवासी समुदाय के बच्चों की संख्या थोड़ी ज्यादा हैं.

कमाई से गरीबों की मदद

सुजीत की अपनी इस पाठशाला से जो कुछ भी सालाना कमाए होती है. वह उन पैसों से गरीब छात्रों के लिए कपड़े व उनकी जरूरत की चीजें भी खरीदते हैं.

उन्होंने बताया है कि वह एक बुजर्ग टीचर है. उन्हें छात्रों के लिए कुछ करना होगा.

वह दो रुपये लेने के बाद भी जो पैसे सालभर में इकट्ठा होते है उनसे गरीब बच्चों के लिए कपड़े व अन्य चीजें खरीदकर देते है. जिस से जरूरतमंद बच्चों की सहायता हो जाती है.

सुजीत के मुताबिक उनका क्षेत्र जंगल इलाके के पास पड़ता है. जिसके कारण वहां के छात्र शिक्षा से वंचित रहते हैं. इसके अलावा कई लोग थैलेसीमिया(Thalassemia) बीमारी से भी जूझ रहे हैं.

धन एकत्रित

2015 में सुजीत ने थैलेसीमिया(Thalassemia) जागरूकता अभियान शुरू करने का फैसला किया. आज वह इस उद्देश्य के लिए एक सक्रिय मंच का प्रबंधन करते हैं. जहां वह थैलेसीमिया रोगियों के इलाज के लिए धन एकत्रित करते हैं.

उन्होंने एक किस्सा बताते हुए कहा है कि वह हमेशा जल्दी उठते है और अपने गाँव में सैर करने जाते है.

इसी तरह जब वह तीन साल पहले सैर करने जा रहे थे तो उन्होंने एक माँ को अपने बच्चे के साथ बस स्टैंड पर बस का इंतज़ार करते हुए देखा.

ये भोर होने से भी पहले की बात है जब उन्होंने ने उस बच्चे की माँ से कुछ पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके बेटे को थैलेसीमिया है.

उनके बच्चे को हर कुछ हफ्तों में खून बदलवाने(transfusion) की आवश्यकता होती है. वह यह कहते हुए रो पड़ी कि उनके परिवार के लिए इलाज का खर्च उठाना कितना मुश्किल है.

उस माँ की बात ने सुजीत के मन पर गहरा प्रभाव डाला. जिसके बाद उन्होंने इस थैलेसीमिया बीमारी के बारे में पढ़ा और अपने छात्रों के बीच इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाना शुरू कर दिया.

जल्दी ही उन्होंने छात्रों का एक समूह इकट्ठा किया जो घर-घर जाके थैलेसीमिक बच्चों के लिए दान इकट्ठा कर सके.

जिसके बाद वह ये काम रोज करने लगे. जिस से अब गांव और गांव के आसपास के 60 से अधिक थैलेसीमिक बच्चों का भरण-पोषण हो पा रहा है.

सम्मान के साथ सुविधाएं भी चाहिएं

सुजीत इस बात से खुश हैं कि उनके प्रयासों की राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक ने सराहना की है. लेकिन वे इस बात से उदास भी हो जाते हैं कि उनके क्षेत्र में एक बैंक शाखा तक उपलब्ध नहीं है.

सुजीत ने चाहते हैं कि रामनगर ग्राम पंचायत में एक डिग्री कॉलेज और एसबीआई की एक शाखा कम से कम खोल दी जाए.

उन्होंने कहा है कि छात्रों को बैंकिंग लेनदेन के लिए 30 किलोमीटर की यात्रा तय करनी पड़ती है. जिसके समाधान के लिए उन्होंने राज्य प्रशासन से भी मांग की थी लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ.

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